चुनाव प्रचार का स्वरूप बता रहा है प्रत्याशी महत्त्वपूर्ण नहीं रह गए हैं, पार्टियां और शीर्ष नेता ही सब कुछ हैं। बड़े नेताओं पर ही जीत-हार का दारोमदार रहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। वे विधान सभा चुनावों में ही नहीं, उपचुनावों में भी प्रचार करने निकलते हैं। विधान सभा चुनावों में भी लोक सभा चुनाव की तरह प्रचार में उतरते हैं। पार्टी उन्हीं पर निर्भर है।
पहले किसी प्रधानमंत्री को तो क्या, मुख्यमंत्री
को भी उप-चुनावों का प्रचार करते नहीं देखा जाता था। अब दृश्य उलट गया है। भाजपा की
चुनाव रणनीति पंचायत स्तर के चुनावों को भी हर हाल में जीतने की होती है। यह नई आक्रामक
चुनाव रणनीति है। भाजपा की पहचान मोदी से ही है। पहले उनके साथ अमित शाह का भी नाम
लिया जाता था। अमित शाह को चुनाव जिताने में माहिर घोषित किया जाता था। अब यह श्रेय
भी पूरी तरह मोदी के हिस्से जा पड़ा है। शाह और योगी भी अपने भाषणों में मोदी का नाम
बार-बार लेना नहीं भूलते। मोदी युग से पहले भाजपा के पास कम से कम चार-पांच बड़े और
बराबर के चेहरे होते थे।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी
सिर्फ अखिलेश यादव पर निर्भर है। मुलायम सिंह यादव के स्वास्थ्य कारणों से घर बैठ जाने
के बाद कोई दूसरा चेहरा सपा के पास नहीं है। मुलायम के समय सपा में कुछ बड़े नाम होते
थे। अब आजम खान ही नहीं शिवपाल भी नेपथ्य में चले गए हैं। कांशीराम के बाद बसपा में
मायावती के अलावा कोई दूसरा नेता हुआ ही नहीं या कहिए कि होने ही नहीं दिया गया। कांग्रेस, जो कभी
बड़े-बड़े नामी नेताओं के लिए जानी जाती थी, आज राहुल और प्रियंका
के भरोसे ही है। सोनिया सक्रिय नहीं हैं।
इसका असर यह है कि अनेक क्षेत्रों में जनता अपने प्रत्याशी को
नहीं जानती। कई बार तो उसका नाम भी उनकी जुबान पर नहीं आता। वे पार्टी का चिह्न पहचानते
हैं या भी ‘मोदी’ अथवा ‘अखिलेश
भैया’ या ‘बहन जी’ को। कौन स्थानीय नेता किस पार्टी से चुनाव मैदान में है, इसका भी बहुत असर इसीलिए नहीं दिखता। ऐसे कई दर्जन प्रत्याशी होंगे जो पिछली
बार किसी और दल से चुनाव लड़ रहे थे और इस बार दूसरे दल से मैदान में हैं। चुनाव इतना
व्यक्ति या धर्म-जाति केंद्रित हो गया है कि प्रत्याशी गौण हो गया है। अंगुलियों में
गिने जाने लायक प्रत्याशी होंगे जिनको जनता उनके काम या व्यक्तिगत छवि से जानती-मानती
और जिताती हो।
नेता के बाद मतदाता जिसे पहचानते हैं वह जाति-उपजाति है। मंडल
आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से चुनावी राजनीति में सामाजिक न्याय का जो बिगुल
बजा उसने भी प्रत्याशी पर उसकी जातीय पहचान को महत्वपूर्ण बनाया। प्रत्याशी को जानें
या न जानें, वह कल ही राजनीति में आया नौसिखिया हो, जाति
के आधार पर चुनाव में सशक्त दावेदार हो जाता है। सामाजिक न्याय का मुद्दा ही वैचारिक
राजनीति को भी संचालित करता है। वैसे, विचार और सिद्धांत आधारित
राजनीति थोड़ा-बहुत वामपंथियों के हिस्से रह गई लेकिन उनकी जगह चुनावी राजनीति में सिकुड़ती
गई है।
इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के पर कतरने की जो प्रवृत्ति शुरू हुई थी, वह अब सभी पार्टियों ने अपना ली है। प्रतिफल सामने है। हर पार्टी में एक ही बड़ा नेता है। दूसरा जो भी उसके बराबर होने की कोशिश करता है, उसका कद छोटा कर दिया जाता है। चुनावी जीत उसी नेता के सिर पर सेहरा बांधती है। वह इतना ताकवर होता है कि पराजय का चोला दूसरे को पहना देता है।
(चुनावी तमाशा, नभाटा, 19 फरवरी, 2022)
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