Tuesday, February 01, 2022

बुरी मौत और अच्छी मौत

दुनिया में बहुत सारे लोग 'बुरी मौत' मर रहे हैं- चेतावनी की तरह यह बात अंतराष्ट्रीय विशेषज्ञों की 27 सदस्यीय एक समिति ने कही है। बुरी मौत से उनका आशय है, अस्पतालों में दवाओं एवं मेडिकल उपकरणों से विलम्बित बना दी गई तकलीफदेह मौत। 

इस विशेषज्ञ समिति का कहना है कि दुनिया भर में परिवारीजन और डॉक्टर अपने प्रियजनों की आसन्न मृत्यु को टालते रहने का हरसम्भव जतन करने लगे हैं, तब भी जबकि उनका अर्थपूर्ण या कष्ट रहित जीवन बचाना सम्भव नहीं रह जाता है। निश्चित एवं स्वाभाविक मृत्यु का स्वागत करने की बजाय मरीज अस्पतालों की आईसीयू में लगभग अकेले, उपकरणों से छिदे, होश-बेहोशी के बीच झूलते हुए कष्ट झेलते रहते हैं और कह भी नहीं पाते।

अकेले भारत में 39 लाख मौतें, जो कुल सालाना मौतों का एक तिहाई हैं, गम्भीर बीमारियों एवं अत्यंत कष्टकारक स्थितियों के बाद होती हैं। कॉलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार 'द टेलीग्राफ' में आज इस बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। यह रिपोर्ट अंतराष्ट्रीय ख्याति वाले मेडिकल जरनल 'द लांसेट' में प्रकाशित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के संदर्भ में लिखी गई है। 

चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, इतनी कि किसी मरते हुए या लगभग मर चुके व्यक्ति को भी पूरी तरह मरने से रोका जा सकता है। यह अलग बात है कि तब उसके जीने का कोई अर्थ होता नहीं। उलटे, वह आईसीयू में विविध सुइयों से छिदा हुआ, उपकरणों से बंधा हुआ, कृत्रिम सांसें लेता हुआ अत्यंत कष्ट में होता है। परिवार एकल हो गए हैं। उनके पास अपने बुजुर्गों या मरणासन्न सम्बंधियों की सेवा करने या उनके पास कुछ समय बिताने की फुर्सत नहीं होती। अनेक बार वे अपने बीमार परिवारीजनों से बहुत दूर भी होते हैं। इसलिए वृद्धावस्था में देखभाल और इलाज के एक से एक 'सुविधा सम्पन्न' अस्पताल खुल गए हैं। मरणासन्न परिवारीजनों को इन अस्पतालों में डालकर लोग निश्चिंत हो जाया  करते हैं। कभी-कभार कोई देखने आ गया तो ठीक वर्ना डॉक्टर, नर्स, आदि से ही वे घिरे रहते हैं। वे ही उनके गले में या नसों में पड़ी नलियों से खाना और दवाएं डालते हैं। यह स्थिति बीमारों के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से अत्यंत कष्टकारी होती है।

'द लांसेट' में प्रकाशित विशेषज्ञों की रिपोर्ट में इसे ही 'बुरी मौत' कहा गया है। तो फिर 'अच्छी मौत' क्या है?

जीवन के अंतिम क्षणों में देखभाल के लिए समर्पित भारत की एक स्वैच्छिक संस्था 'पैलियम इण्डिया' के अध्यक्ष डॉ राजगोपाल 'द टेलीग्राफ' से कहते हैं- जीवन के अंतिम समय में, जबकि कोई व्यक्ति चिकित्सकीय मदद के लाभ से परे चला गया हो, उसे आईसीयू मेंं डाले रखने से अधिक भयानक कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे समय तो होना यह चाहिए कि घर वाले उसके पास रहें, उससे प्यार से दो बातें करें, उसका आलिंगन करें। ऐसे समय मृत्यु को अपरिहार्य मानकर उस व्यक्ति को अधिकाधिक शारीरिक एवं मानसिक सुकून देना चाहिए। उसे अपनी पसंद की जगह, अस्पताल या घर पर रखना चाहिए ताकि जब मृत्यु आए तो  सहजता, सम्मान और निश्चिंतता के साथ वह उसका स्वागत कर सके। यही समानजनक या अच्छी मृत्यु है।

अपने देश में ऐसी अच्छी मौत पाने वाले कितने होंगे? डॉ राजगोपाल बताते हैं कि हमारा मानना है कि करीब चार प्रतिशत लोगों की ऐसी मौत मिलती है।

डॉ राजगोपाल यह भी कहते हैं कि पिछली एक-दो पीढ़ियों से हम स्वाभाविक मृत्यु की समझ ही भूलने लगे हैं। बढ़ते एकल परिवारों की वजह से ऐसा अधिक हुआ है। मौत के बारे में लोग आसानी से बात ही नहीं करते। मौत को ऐसे देखा जाता है कि उसे हर हाल में हराना ही है, जबकि हम जानते हैं कि हमेशा यह सम्भव नहीं है। मरणासन्न व्यक्ति के लिए घर वाले डॉक्टरों-अस्पतालों की दौड़ लगाते हैं। होना यह चाहिए कि जितना भी समय उसके पास बचा है, उसे सुकून दें, अपनापन दें, उसकी अंतिम इच्छा पूछें और पूरी करें। हो सकता है अंंतिम समय में वह कुछ खाना चाहता हो, किसी को देखना चाहता हो, कुछ कहना चाहता हो या किसी की नाराजगी दूर करना चाहता हो।

और, ऐसे समय में डॉक्टरों, आदि की क्या भूमिका होनी चाहिए? यही कि उसकी तकलीफ कम से कम हो। ध्यान जीवन की गुणवत्ता पर होना चाहिए। जब मृत्यु निश्चित हो गई हो तब उसे किसी भी रूप में नाम मात्र के लिए जीवित रखने और इस प्रक्रिया में कष्ट देने का कोई अर्थ नहीं है। 

है न यह एक ज्वलंत और विचारणीय विषय? ऐसे विमर्श कम ही अखबारों में पढ़ने को मिलते है। आज पढ़ा तो सोचा आपसे साझा करूं।

और, इसे पढ़ते-लिखते हुए मुझे दार्शनिक जे  कृष्णमूर्ति याद आने लगे। मृत्यु पर उनके बड़े गूढ़ लेकिन रोचक व्याख्यान हैं। रवींद्र वर्मा जी ने मुझे पिछले वर्ष उनकी एक पुस्तक पढ़ने को दी थी। सब तो समझ में नहीं आया लेकिन वे मृत्यु को अत्यंत सहजता से लेने और उसका स्वागत करने की बात करते हैं। एक स्वगत व्याख्यान में वे जीवन के अंतिम समय की तुलना पेड़ से झरे पीले जर्जर पत्ते से करते हैं जो हवा में उड़ा और पानी में बहा चला जाता है। मृत्यु को उस पत्ते की ही तरह आनंद से देखना चाहिए। ऐसा जैसा कुछ। 

-न जो, एक फरवरी, 2022 (चित्र इण्टरनेट से)

     

3 comments:

aaku said...

इस लेख को पढ़ने तक के लिए हिम्मत और स्थिर मन चाहिए. वैसे भी फेसबुक आदि पर जब कुछ ऐसी शुरूआत हो तो डर लगता है. सच तो यही है कि एक सीमा के बाद ईश्वर से हार मान लेनी चाहिए जबकि हमारी फितरत कुछ लड़ने की हो चली है. आभार.

Unknown said...

वाह। जानकर प्रसन्नता हुई कि दुनिया में हैं कुछ लोग जो मृत्यु को, उचित समय पर और उचित स्थिति के अनुसार निष्पादित करने के पक्ष में विचार देकर, उसकी महत्ता और अर्थ को बढ़ा देते हैं। 'मृत्यु' एक ऐसा विषय है, जिस को अधिकाधिक सुविधाजनक बनाने को लेकर, शोध एवं सेवा के क्षेत्रों में बहुत काम किया जाना है। पता नहीं कितने लेखकों/विचारकों ने 'सुखपूर्वक मृत्यु/आत्महत्या' के ऊपर कुछ लिखा भी है, अथवा नहीं, विशेषकर, भारतीय उपमहाद्वीप में!

Unknown said...

क्यूंकि, जिस मनुष्य का उत्तरदायित्व जीवन को हर प्रकार से उन्नत करते चले जाना है, क्या उसी मनुष्य का उत्तरदायित्व, मृत्यु का सुखपूर्वक आलिंगन करना, नहीं होना चाहिए?