Saturday, February 26, 2022

चुनाव नहीं, पाइथागोरस की प्रमेय भए!

चुनाव अब गणित का जटिल सवाल हो गए। गणित भी सीधा नहीं, पहेली-सा कठिन और उलझाऊ। उसे जीतने का मतलब कठिन समीकरण हल करना होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शुरुआती चुनाव शायद मुख्यत: इस आधार लड़े लाते जाते हों कि किस पार्टी ने क्या किया, देश और समाज के लिए उसका क्या योगदान है, उसकी क्या योजनाएं हैं, उसके नेताओं का जनता से कैसा व्यवहार है और वे क्या कहते-करते हैं, इत्यादि। जाति-धर्म के आधार पर भी थोड़ा-बहुत वोट पड़ते होंगे लेकिन वह एकमात्र आधार नहीं होता होगा। अब चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहने को है। लड़ा तो वह गणित के समीकरणों और शतरंजी चालों से है।

हर क्षेत्र की चुनावी बाजी लैपटॉप पर बिछती है। एक्सल शीटपर जातियों-उपजातियों और धर्म के विविध जोड़-घटाव-संयोग रखे जाते हैं। सभी पार्टियों के विशेषज्ञ लैपटॉप पर ही सिर खपाए रहते हैं। किस पार्टी के किस प्रत्याशी को पिछली बार किस जाति-उपजाति का कितने वोट मिले थे, किसने किस आधार पर किसके वोट काटे, विपक्षी अगर इस जाति का या उस उपजाति का हुआ तो कितने वोट किधर जा सकते हैं, कौन प्रत्याशी विपक्षी के वोट काट सकता है और कितने, वगैरह-वगैरह।

दिन-रात लगाया जाने वाला यह गणित इतना जटिल, अनिश्चित फॉर्मूले वाला और चालों भरा है कि इसके विशेषज्ञ तैयार हो गए हैं। प्रशांत किशोर आखिर क्यों बारी-बारी सभी दलों के रणनीतिकार बनने में कामयाब हो जाते हैं? उनका कौशल जमीन पर जनता के बीच नहीं, गणित के इन्हीं सवालों, समीकरणों और जटिल पहेलियों को समझाने-समझाने और हल करने में है। इसी आधार पर उन्हें चुनाव जिताऊ रणनीतिकार माना जाता है। वे मोदी से लेकर ममता तक को चुनाव जिताने का श्रेय ले चुके हैं लेकिन आम मतदाता को उनका नाम भी मालूम न होगा। एक चतुर खिलाड़ी मतदाताओं के वोटों का खेल कर जाता है। क्या पता आने समय में प्रशांत किशोर जैसे हिसाब-किताबियों की जगह आर्टिफीशियल इण्टेलीजेंस’ (कम्प्यूटरी दिमाग) ले ले!

सात-सात चरणों में मतदान ने चुनावी गणित के खेल को फॉर्मूलों में बांध दिया है। पश्चिम में जाट और मुसलमान हैं, रुहेलखण्ड मुस्लिम बहुल है, एक यादव लैण्डहै, एक दलित लैण्डहै, फिर शहरी मध्य वर्ग का इलाका है और उसके बाद पूर्वांचल के अन्य पिछड़ा और अन्य दलित इलाके हैं। इसी हिसाब से प्रत्याशियों का चयन होता है और उन्हें दूसरे दलों से तोड़ कर लाया जाता है। नेताओं के भाषण भी इसी हिसाब से तय होते हैं। जो पश्चिम में बोला गया, वह बुंदेलखण्ड में नहीं चलता। यादव बहुल क्षेत्र के मतदाताओं को लुभाने के लिए जो कहा जाता है वह मध्य उत्तर प्रदेश में काम नहीं आता। किसी भी दल के नेताओं के भाषण सुन लीजिए, वे इलाकावार गणित के हिसाब से जुमले गढ़ते और आरोप लगाते हैं। सर्वज्ञातापत्रकार भी इसी गणित में उलझे रहते हैं।

गणित ही तय करता है कि किस जगह किस जाति के वोट काटने के लिए डमीखड़ा किया जाए। तीन-चार कोणीय मुकाबला हो तो उसी में वोट कटवाढूंढना आसान हो जाता है। तीसरा और चौथा कोण का चुनावी समीकरण समझना और उसके मुताबिक चाल चलना पाइथागोरस प्रमेयकी तरह कठिन है और उलझा हुआ। अनेक बार इसकी कोशिश उलटी पड़ जाती है। अब तो पार्टियों में इसके विशेषज्ञ तैयार हो गए हैं। डेटा अनालिस्टनियुक्त किए जाते हैं। वे पिछले कई चुनावों में मतदाताओं के रुख का विश्लेषण करके फॉर्मूला बना देते हैं।

इतना सब करने के बाद भी सवाल गलत होने की पूरी सम्भावना रहती है। इति सिद्धमलिख देने से कागज पर सवाल हल हुआ दिखाई दे सकता है लेकिन जमीन पर मतदाता इन विशेषज्ञों से भी चालाक साबित हो सकता है।        

(चुनाव तमाशा, नभाटा, 26 फरवरी, 2022)  

No comments: