1970 के दशक में हमने इवान इलिच की पुस्तक ‘डी-स्कूलिंग सोसायटी’ पढ़ी थी। ऑस्ट्रिया के इस समाजशास्त्री लेखक ने विश्व भर में व्याप्त स्कूली शिक्षा की संस्था-बद्ध प्रणाली को सिरे से खारिज करके समाज को शिक्षा की दुकानों से मुक्त करने का आह्वान किया था। इलिच का मानना था कि हर बच्चा अपनी तरह का अलग एवं विशिष्ट होता है और उन सबको को एक ढांचे में बांधकर वास्तविक अर्थों में शिक्षित नहीं किया जा सकता। उसने आधुनिक शिक्षा प्रणाली में कई तरह के सुधार सुझाए थे जिनमें बच्चों के स्वभावानुसार अलग-अलग समूह बनाकर उन्हें आपस में सीखने देने, समाज के सामने अपनी जिज्ञासाएं रखने देने और टेक्नॉलॉजी के उपयोग से विकेंद्रित केंद्र बनाने जैसे प्रयोग थे। उनका कहना था कि स्कूलों के माध्यम से सभी को एक समान शिक्षा देने का विचार ही बहुत अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है। इलिच की यह किताब दुनिया भर में बहुत चर्चित हुई, उस पर खूब विमर्श हुआ लेकिन स्कूली शिक्षा का स्वरूप नहीं बदला। यह किताब आज भी अक्सर उद्धृत की जाती है।
1980 के दशक में एक और अद्भुत किताब आई- ‘तोत्तो
चान’ जो आज भी बहुत पढ़ी-कही जाती है। जापानी टेलीविजन की
महशूर हस्ती तेत्सुको कुरोयानागी की यह छोटी सी किताब सच्चा या संस्मरणात्मक अनुभव
है जिसने वैश्विक स्कूली प्रणाली को ‘बच्चों की जेल’ साबित करते हुए सीखने के गैर-परम्परागत तरीकों को सबसे मूल्यवान प्रमाणित
किया। ‘तोत्तो चान’ द्वितीय विश्व
युद्ध के समय एक शिक्षक सोसाकु कोबायाशी द्वारा स्थापित एक नायाब स्कूल की सच्ची
कहानी है जहां बच्चों के लिए कुछ भी बाध्यकारी नहीं था। यह तोत्तो चान नामक एक ‘बहुत शरारती, बिगड़ैल और दूसरे बच्चों के लिए भी
खतरनाक’ मानी गई बच्ची की कथा है जो एक नामी स्कूल से निकाल
दी गई थी। वह कोबायाशी के अनोखे स्कूल में
अपनी ही जिज्ञासाओं और शरारतों से सीखती हुई एक दिन जापान की मशहूर हस्ती बनी।
कोबायाशी के स्कूल में बच्चों को वह सब करने की आजादी थी जो वे करना चाहते थे। बस,
उन्हें एक सुरक्षित एवं बिल्कुल अपना लगने वाला वातावरण प्रदान कर
दिया जाता था।
कुछ ऐसा ही नायाब विचार पिछले कुछ समय से अमेरिकी लेखक पीटर
ग्रे प्रस्तुत करते रहे हैं जो मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं लेकिन आधुनिक स्कूली
शिक्षा प्रणाली के गम्भीर आलोचक होने के साथ-साथ बच्चों के सीखने के नए और
गैर-परम्परागत तरीकों की जबर्दस्त वकालत करते हैं। उनकी पुस्तक ‘फ्री
टु लर्न’ बहुत लोकप्रिय है। उनका मुख्य जोर बच्चों को खेलते
हुए सीखने देने पर है।
उत्तराखण्ड के सुदूर क्षेत्रों के बच्चों में विज्ञान चेतना
विकसित करने का महत्त्वपूर्ण काम कर रहे आशुतोष उपाध्याय ने पीटर ग्रे के कुछ व्याख्यानों
को हिंदी में प्रस्तुत करके 66 पेज की एक पुस्तिका तैयार की है –‘शिक्षा
का अर्थ’ जिसे कुछ दिन पहले ही ‘नवारुण’ ने प्रकाशित किया है। अत्यंत सरल एवं प्रभावकारी भाषा में प्रस्तुत यह
पुस्तिका कई समाजों के अध्ययनों और प्रयोगों का हवाला देकर अत्यंत विश्वनीय ढंग से
यह बताती है कि बच्चों के वास्तव में शिक्षित होने का सबसे स्वाभाविक एवं उपयुक्त
माध्यम खेल हैं।
वे तो यहां तक कहते हैं कि "हमें कुछ निर्धारित घण्टों के लिए शहर की सड़कों को बंद कर देना चाहिए ताकि बच्चे उन पर कब्जा जमाएं और खेल सकें।"
पीटर बताते हैं कि जैसे-जैसे समाज सभ्य-संस्कारी और आधुनिक
बनता गया, बच्चों से उनका स्वाभाविक विकास छीन लिया जाता रहा- “खेलने और
खोजने की आज़ादी उनसे छीन ली गई। मनमर्जी, जो कभी एक गुण मानी
जाती थी, अब बुराई में गिनी जाने लगी, जिसका
इलाज सिर्फ पिटाई था। .... एक अच्छे बच्चे का मतलब था, एक
आज्ञाकारी बच्चा, जो खेलने और खोजने की अपनी सहज वृत्ति पर
लगाम लगा सके। ...माना गया कि बचपन सीखने की उम्र है और इस तरह सीखने की जगह के
रूप में स्कूल खड़े किए जाने लगे। ... शिक्षा ‘दिमागों में
ठूंसने’ का पर्याय बन गई।”
पीटर ग्रे मानते हैं कि “खेलने और खोजने की मानवीय
वृत्तियां इतनी जबर्दस्त होती हैं कि इन्हें किसी बच्चे के दिल-दिमाग से रगेदा
नहीं जा सकता।” तो, हुआ यह कि जो बच्चे खेलते हुए और खोजते हुए दुनिया में खड़े
होने और सम्मान से जीने लायक सब कुछ सीख सकते थे, वे स्कूलों
की कैद में ऐसे पाठ सीखने को मजबूर कर दिए गए जो स्वभावत: उनकी चाहत नहीं थे। थोपे
गए विषय और सिखाने के तरीके तो उन्हें कतई नहीं भाते। इसलिए विषयों से उनका टकराव
होता है। खेलों को और उनकी स्वाभाविक शरारतों को स्कूलों में ही नहीं, घरों में भी सजा का कारण बना दिया गया। पीटर ग्रे इतिहास में जाते हैं,
घुमंतू-संग्राहक समाजों के दृष्टांत देते हैं और बड़े तार्किक ढंग से
स्कूली शिक्षा की जोर-जबर्दस्ती को हमारे सामने रखते हैं।
आज हमारे देश में शिक्षा की जो स्थिति है, स्कूलों
का जो-जैसा धंधा चल रहा है और जैसी पढ़ी-लिखी लेकिन ‘अशिक्षित’
फौज वे पैदा कर रहे हैं, उसे हमसे अधिक कौन
जानता है? क्या यह हमारा ही दर्द नहीं हैं, जब पीटर ग्रे कहते हैं कि- “हमारे बच्चे उस लड़ाई के मोहरे बन गए हैं
जिसमें एक अभिभावक को दूसरे अभिभावक से, एक शिक्षक को दूसरे
शिक्षक से, एक स्कूल को दूसरे स्कूल से और एक देश को दूसरे
देश से इसलिए भिड़ाया जा रहा है कि कौन अपने बच्चों से ज्यादा से ज्यादा अंक
निकलवाने में कामयाब होता है। हम अपने बच्चों से उनकी नींद छीन रहे हैं, खेलने और खोजने की उनकी स्वतंत्रता छीन रहे हैं। दूसरे शब्दों में,
ज्यादा से ज्यादा अंकों की खातिर हम उनसे उनका बचपन छीन रहे हैं।”
क्यों किशोरों-युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है? क्यों
आज के बच्चे कुण्ठा एवं अवसाद ग्रस्त हैं? क्यों वे परिवार
और समाज से कटे-कटे हैं? क्यों असहिष्णुता, झगड़े और तनाव बढ़ रहे हैं? क्या इन सबका सम्बंध हमारे
स्कूलों और उस शिक्षा से नहीं से है जो वे दे रहे हैं और जिस तरीके से दे रहे हैं?
तो इलाज क्या है? पीटर ग्रे कहते हैं कि एक ही कुंजी है-
चाहत। बच्चे जो चाहते हैं, उसे करने को मिले। सीखने का सम्बंध
चाहत से होना चाहिए। बच्चे जो चाहते हैं उसे सीख करके रहते हैं। इसलिए पीटर ग्रे
वकालत करते हैं कि “बच्चों के लिए पाठ्यक्रम, पाठ योजना,
सीखने का प्रोत्साहन, परीक्षा और उन बातों की
चिंता हमें नहीं करनी चाहिए जिन्हें शिक्षा शास्त्र के दायरे में रखा जाता है।
इसके बजाय हमें इन चीजों में खर्च होने वाली ऊर्जा को ऐसे साफ-सुथरे वातावरण के
निर्माण में लगाना चाहिए जहां बच्चे ठीक से खेल सकें। बच्चों की शिक्षा खुद बच्चों
की जिम्मेदारी है, हमारी नहीं। यह काम वही कर सकते हैं। इसके
लिए वे कुदरतन तैयार होते हैं।”
पीटर अपने सुझावों के पक्ष में कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों के अलावा
मैसाचुसेट्स के सडवरी वैली स्कूल का उदाहरण पेश करते हैं “जहां के लोकतांत्रिक वातावरण
में सभी बच्चों को वास्तव में बड़ों की तरह सभी अधिकार मिले हुए हैं। यहां बच्चे पूरी
तरह स्वनिर्देशित गतिविधियों से खुद को शिक्षित करते हैं। ...यहां कोई परीक्षा नहीं
होती, न कोई सुनहरा सितारा या इनाम दिया जाता है। यहां न कोई पास होता है,
न फेल, न कोई पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम या पाठ,
न ही पढ़ने के लिए कोई मान-मनौव्वल, न ही जोर-जबर्दस्ती....।
यकीन मानिए, वे कुशल कारीगर, रसोइए,
चिकित्सक, इंजीनियर, उद्यमी,
वकील संगीतकार, वैज्ञानिक, समाजसेवी और सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनते हैं। वे उन सभी पेशों में नाम कमा रहे
हैं जिन्हें हम अपने समाज में इज्जत देते हैं।”
इस किताब को अवश्य पढ़िए। बहुत छोटी-सी है लेकिन बहुत बड़ा संदेश
देती है। आशुतोष उपाध्याय और नवारुण प्रकाशन ने यह अत्यंत सराहनीय काम किया है। जिन्होंने
न पढ़ी हो वे ‘तोत्तो चान’ भी इसके साथ पढ़ें। हमें शिक्षा
की पूरी तस्वीर बदलने की दिशा में अवश्य सोचना-विचारना और इसके लिए वातावरण बनाना चाहिए
ताकि यह दुनिया और भयानक होने से बचे।
पुस्तक- शिक्षा का अर्थ- पीटर ग्रे, अनुवाद- आशुतोष उपाध्याय। नवारुण प्रकाशन। मूल्य- 100 रु, सम्पर्क- 9811577426, 9990234750
-न जो, 04 फरवरी, 2022
2 comments:
बहुत बढ़िया और जानकारी देने वाली समीक्षा। किताब पढ़ने को प्रेरित करती है।
आभार।
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