Friday, April 01, 2022

'गैस चैम्बर' में जारी मौतों का क्रूर सत्य

यह सवाल पहले कई बार पूछा जा चुका है। तो भी बार-बार और चीख-चीख कर पूछा जाना चाहिए कि सीवर की सफाई के लिए ऑक्सीजन मास्क और सुरक्षा उपकरण के बिना सफाई कर्मियों को मैनहोल में क्यों उतारा जा रहा है?  आज जब फाइव ट्रिलियन डॉलर इकॉनॉमीबनाने के दावे किए जा रहे हैं और अयोध्या, काशी और नए संसद परिसर के निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही, तब मैनहोल की सफाई मशीनों से क्यों नहीं कराई जा रही? लखनऊ, रायबरेली और दिल्ली में दो दिन में आधे दर्जन से अधिक लोग मैनहोल की जहरीली गैस से जान गंवा बैठे हैं। विश्व गुरुभारत के दावों पर यह जोर का तमाचा नहीं है?

एक अनुमान के अनुसार देश में सीवर की जहरीली गैस से हर पांचवें दिन एक सफाईकर्मी की मृत्यु होती है। सितम्बर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी खबरों का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार से सख्त लहजे में पूछा था कि सफाई कर्मचारियों को सुरक्षा उपकरणों के बिना मैनहोलों में क्यों उतारा जा रहा है? शीर्ष अदालत ने टिप्पणी की थी कि गैस चैमबर में श्रमिकों को उतारना सर्वाधिक अमानवीय और बर्बरकृत्य है। दुनिया में ऐसा और कहीं नहीं होता। उसने निर्देश दिया था कि सुरक्षा उपकरण उपलब्ध न कराने वाले जिम्मेदार लोगों को गिरफ्तार करके सख्त सजा दी जाए।

सर्वोच्च अदालत के इस कड़े निर्देश के बाद भी सीवर में जहरीली गैस से श्रमिकों का मरना जारी है। प्रदेश की राजधानी से लेकर देश की राजधानी तक यह अमानवीय और बर्बर कृत्यकिया जा रहा है। छोटे शहरों का तो क्या ही कहना। हर हादसे के बाद निजी एजेंसियों के कुछ लोग पकड़ लिए जाते हैं या उनके अनुबंध निरस्त कर दिए जाते हैं, बस। नगर निगमों से लेकर सरकार में बैठे जिम्मेदार अधिकारी हाथ झाड़ लेते हैं। हादसे होते रहते हैं।

चूंकि अब आउटसोर्सिंगका चलन है, इसलिए सीवर सफाई का काम निजी एजेंसियों को ठेके पर दे दिया गया है। निजी एजेंसियां यह ठेका किस तरह प्राप्त करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। वे कमीशन के बाद अधिकाधिक मुनाफा कमाने के वास्ते सफाई कर्मियों को बिना सुरक्षा उपकरणों के मैनहोल में उतार देते हैं। गरीबी उन श्रमिकों को जान पर खेल जाने के लिए विवश करती है। मौत पर थोड़ा-बहुत मुआवजा ही सही! हादसे के लिए निजी एजेंसियां दोषी ठहरा दी जाती हैं। इस आड़ में जिम्मेदार अधिकारी साफ बच जाते हैं। वास्तव में गरदन तो उनकी ही नपनी चाहिए थी लेकिन यह तंत्र सबसे कमजोर को ही शिकार बनाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने तब यह भी रखांकित किया था कि गैस चैम्बरोंमें मरने को विवश किए गए लोग बहुत गरीब और वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे ठहराए गए होते हैं। लेकिन कानून और सरकार की दृष्टि में उन्हें बराबर का दर्ज़ा मिलना चाहिए। लेकिन ऐसा होता कहां है! सरकार और उसका तंत्र मौतों को भी अमीर-गरीब और जातीय खांचों में बांटता है। उसकी दृष्टि में सफाईकर्मी यदि बराबर के नागरिक होते तो वे इस तरह लगातार मारे जाने के लिए नहीं छोड़े जाते। उस समय वरिष्ठ सरकारी वकील ने भी माना था कि इन मामलों में कभी किसी को सजा नहीं मिलती। खुले मैनहोलों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं में मरने वालों की जिम्म्देदारी भी कभी तय नहीं हुई। नगर निगम कर वसूलते हैं। उनका दायित्व बनता है कि वे नागरिकों के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं। यह उनका महत्वपूर्ण एवं मुख्य दायित्व है।

ये आदर्श लगने वाली बातें, बातें ही रह गईं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश कागजों में दर्ज़ होकर रह गए। 'गैस चैम्बरों' में मौतें कब तक जारी रहेंगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 02 अप्रैल, 2022)                  

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