Sunday, February 05, 2023

गंगा 2

बहुत दुष्कर लगता है हमें 

एक छोटी-सी ज़िंदगी जीना

अनेक बार हारते हैं हम जीतते-जीतते

पड़ोस की नदी लौटाती है बार-बार

लहरों की तरह ज़िंदगी की ओर

सोचो तो कितना कठिन है एक नदी की तरह जीना

बहते रहना और शिकायत न करना

पीना कितने ही दर्द 

और उछालना छोटी-बड़ी खुशियां


कमर पर पत्थर बांध डूबने आती है गांव की दुखी लड़की

अंजुली में जल उठाकर शाप देती है परास्त मां

युगों की थकान मिटाता है यायावर

घुटनों तक पांव डाल

पूरे जीवन की करनी-न करनी का

प्रायश्चित करता बूढ़ा

नदी को ही हेरता-टेरता है बार-बार

नदी को ही होना है गवाह

परलोक की महायात्रा का

घाटों पर ही जुटेगा

स्वर्गलोकी पुरखों का भण्डारा

इदं नीरं इदं पिब


नदी तीरे ही आएगा संन्यासी

माया-मोह की माला जपने

नदी को ही ढोना है लावारिश की लाश

जंगल कटेंगे तो भी पीठ पर लाद लाना होगा नदी को

नदी ही झेलेगी चुनौती

करके दिखाएगी पहाड़ों को रेत

वही लगाएगी रेत का पहाड़ भी

करवट बदलकर नदी ही देगी जवाब

मनुष्य को प्रकृति से अनाचार का

मां भी बनेगी वही और बच्चे का खिलौना भी

सपने दिखाएगी नई युग-संधि के

नदी होना सचमुच युगों की कथा होना है


जिसकी लहरों में धड़कती है

एक पूरी सभ्यता

हजारों-हजार बरस से 

हम उसे गंगा कहते हैं

- न. जो. हरद्वार कुम्भ, 1997


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