Friday, February 03, 2023

दून लाइब्रेरी - परेड ग्राउण्ड से लैंसडाउन चौक तक

जून 2014 में जब मैं देहरादून गया था तो ‘दून लाइब्रेरीभी जाना हुआ था। पुस्तकालय के संस्थापक-निदेशक बी के जोशी से पुराना परिचय है। वे लखनऊ में गिरि विकास अध्ययन संस्थान के निदेशक थे, तबसे। उनके अलावा पुराने मित्र चंद्रशेखर तिवारी से भी मिलना था जो दून लाइब्रेरी में शोध सहायक हैं। मित्र-मिलन से भी अधिक सुखद था यह देखना कि पूरा पुस्तकालय पाठकों से भरा था। जिन्हें भीतर बैठकर पढ़ने की जगह नहीं मिली थी, वे बाहर परेड ग्राउण्ड, जिसके एक कोने में लाइब्रेरी का अस्थाई भवन था, के किनारे बैठकर पढ़ने या चर्चा करने में व्यस्त थे। जब देश भर में सार्वजनिक पुस्तकालय बंद हो रहे हों या पाठकों से लगभग सूने हों, तब दून लाइब्रेरी की यह जीवतंता आह्लाद से भर गई थी। जोशी जी ने बताया था कि किताबों, सदस्यों और पाठकों के हिसाब से लाइब्रेरी की जगह बहुत कम पड़ गई है। अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए तब मैंने फेसबुक पर छोटी-सी टिप्पणी भी लिखी थी। आज 2023 में यह जानना प्रफुल्लित कर देने वाला है कि दून लाइब्रेरी एण्ड रिसर्च सेण्टर’ (यही पूरा नाम है) अब अपने नए और बड़े भवन में चला गया है, जहां किताबों, सदस्यों, पाठकों और स्टाफ के लिए पर्याप्त स्थान है।

यह सचमुच बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह कैसे सम्भव हुआ, इसकी पूरी कहानी जोशी जी ने हाल ही में एक पुस्तिका लिखकर प्रकाशित की है- परेड ग्राऊण्ड टु लैंसडाउन चौक।लैंसडाउन चौक वह जगह है जहां आज दून लाइब्रेरी का नया भवन खड़ा है, जहाँ कभी धरना स्थलहुआ करता था। धरना स्थलकी जगह पुस्तकालय भवन का बनना भी एक प्रतीकात्मक परिणति है। किताबों से समाज में जो जागृति आती है, वह लोकतांत्रिक प्रतिरोध के नए द्वार खोलती है।

कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति पद से मुक्त होकर जब प्रो बी के जोशी 1998 में देहरादून जा बसे तो उनके भीतर वर्षों से बैठा बेहतर पुस्तकालय खोलने का सपना कुनमुनाने लगा। अमेरिका में अपने शोध-अध्ययन के दौरान वहां के विश्वविद्यालयों और विभिन्न शहरों के समृद्ध पुस्तकालयों को देखकर उनके मन में यह सपना बीज रूप में आ बैठा था। इस सपने की चर्चा 2005 में उन्होंने अपने लेखक मित्र एलन सेली और कवि-प्राध्यापक अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा से की। दोनों ने उत्साहित होकर सवाल किया- तो शुरू क्यों नहीं हो जाते?’ यह इतना आसान नहीं था। कोई भी अच्छा पुस्तकालय भारत में बिना सरकारी या सांस्थानिक सहायता के नहीं खोला जा सकता। शुरू भी कर दिया जाए तो चल नहीं सकता। तो, मित्रों के कहने पर जोशी जी ने पुस्तकालय खोलने के लिए एक प्रपत्र तैयार किया और तीनों मित्र उत्तराखंड सरकार के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव एम रामचंद्रन से मिले। वहां से न केवल प्रोत्साहन मिला बल्कि एक विस्तृत योजना-पत्र बनाने को कहा गया। रामचंद्रन के समर्थन और सहयोग से योजना-पत्र आगे बढ़ा। सुरजित दास, डी के कोटिया, अमरेंद्र सिंहा, इंदु कुमार पाण्डे, जैसे अफसरों का सक्रिय समर्थन मिलता गया और बहुत शीघ्र पुस्तकालय के लिए सरकार की तरफ से करीब सवा तीन करोड़ रु की व्यवस्था हो गई। एक गवर्निंग बॉडी बनी और सभी ने एकराय से जोशी जी को ही निदेशक (अवैतनिक) के रूप में पुस्तकालय को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी सम्भालने को कहा। धनराशि जरूरी थी लेकिन और भी बहुत कुछ चाहिए था, मुख्य रू से स्थान और भवन। काफी मशक्कतों के बाद कामचलाऊ व्यवस्था हो गई। रुकावटें भी कम नहीं आईं। अंतत: जब आठ दिसम्बर 2006 को तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने पुस्तकालय का शुभारम्भ किया तो प्रसन्न होकर उन्होंने पुस्तकालय के लिए पांच करोड़ रु की एक निधि (कोष) बनाने का ऐलान कर दिया, जबकि जोशी जी ने सहयोगी अफसरों की सलाह पर अपने स्वागत भाषण में मुख्यमंत्री से एक करोड़ रु की निधि का आग्रह किया था! तिवारी जी ने यह भी कहा कि इस पुस्तकालय को देश के श्रेष्ठ पुस्तकालयों के स्तर का बनाया जाना चाहिए।

तिवारी जी जैसे मुख्यमंत्री और चंद अफसरों के इस उत्साहजनक सहयोग के बाद दून लाइब्रेरी और रिसर्च सेण्टरने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। परेड ग्राउंड के एक कोने में ब्रिटिशकालीन सैनिक बैरकों के जिन तीन पुराने कमरों से पुस्तकालय शुरू हुआ था, वह शीघ्र ही देहरादून की सांस्कृतिक धड़कन बन गया। वह पठन-पाठन एवं पुस्तक-चर्चाओं का अड्डा बना, शोध-अध्ययन में बहुत सहायक हुआ और नौकरियों की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के सपनों को साकार करने वाला आवश्यक साधन भी। समाज विज्ञान, विशेष रूप से इतिहास, उत्तराखण्ड और हिमालय सबंधी शोध-अध्ययनों को उसने खूब बढ़ावा दिया और तत्संबंधी हर तरह की पुस्तकें/संदर्भ ग्रंथ उपलब्ध कराए। वर्षों से जगह की कमी झेल रहे इस पुस्तकालय को 2022 में देहरादून स्मार्ट सिटी प्रोजेक्टका बड़ा सहारा मिला। इसके तहत उसे लैंसडाउन चौक में नई जगह और नया भवन मिल गया है।

आज अराजक हो गई उत्तराखण्ड की राजधानी के हृदय-स्थल में दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेण्टरपठन-पाठन, सुकून, अध्ययन, लेखन, शोध और युवाओं के सपनों की परवाज का महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक स्थल बन गया है। अक्टूबर 2022 में यहां 32,031 किताबें और 4829 सक्रिय सदस्य थे। पुस्तकालय की मदद से नौकरियां पाने में सफल युवाओं की बड़ी संख्या है। दून लाइब्रेरी से अब तक 21 पुस्तकें और पत्रक प्रकाशित हो चुके हैं। महत्त्वपूर्ण पुस्तकों पर चर्चाएं होती हैं और कभी-कभार सेमीनार भी।

देहरादून और उत्तराखण्ड को मूलत: प्रो बी के जोशी की यह देन अत्यन्त मूल्यवान है, जिसका प्रभाव समाज में दूर तक और गहरे जाना है। स्वास्थ्य और उम्र के कारणों से अब जोशी जी ने इसका निदेशक पद छोड़ दिया है लेकिन सलाहकार के रूप में पुस्तकालय को उनका दिशा-निर्देश मिलना जारी है। दून लाइब्रेरी के निदेशक अब एन रविशंकर हैं, जो जोशी जी के अभियान को आगे ले जाने के लिए कृत संकल्प हैं।                     

पुनश्च: परेड ग्राउण्ड टु लैंसडाउन चौकपुस्तिका के अंत में जोशी जी ने सुरजित के दास, जो 1983 में देहरादून के डीएम थे और बाद में भी विभिन्न पदों पर वहां रहे, का एक संदेश प्रकाशित किया है जिसमें वे बताते हैं कि देहरादून में एक पदम कुमार जैन थे, जिनके निजी पुस्तकालय में करीब अस्सी हजार पुस्तकें थीं। इसके लिए उन्होंने राजपुर रोड पर एक इमारत किराए पर ले रखी थी। ज्ञानलोकनाम का उनका यह पुस्तकालय जनता के लिए निश्शुल्क खुला रहता था। जैन साहब के निधन के बाद यह विशाल पुस्तक संग्रह लालबहादुर शास्त्री नेशनल अकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की लाइब्रेरी को सात लाख रु में सौंपा गया लेकिन बाद में आग में भस्म हो गया।

पदम कुमार जैन साहब की स्मृति को सलाम करना भी यहां जरूरी है। बल्कि उनके बारे में और अधिक जानकारी सामने लानी चाहिए।   

- न जो, 4 फरवरी, 2023

3 comments:

Manohar Chamoli said...

वाह ! वर्तमान ठिए का पता भी देते !

Naveen Joshi said...

लिखा है,लैंसडाउन चौक्।

Manohar Chamoli said...

लैन्सडाउन चौक कहाँ है ?