Sunday, February 05, 2023

गंगा 1

बड़ी-सी परात में पोते को नहलाती दादी

निहाल हो कहती है- हर गंगे-हर गंगे!

गंगे-गंगे तुतलाता है बच्चा

यहां-वहां से पिचका वह खानदानी लोटा

समाए होता है पूरी गंगा

ब्रह्मा के कमण्डल की तरह


तीज-त्योहार, संक्रांतियों पर 

पास की छोटी नदी में नहा आता है पूरा गांव

छितराए गंगलोड़ों पर यहां-वहां सूखते हैं मटमैले कपड़े

धूप में भाप बनकर उड़ते हैं पाप

बेटे की पीठ चढ़

गंगा नहाने का पूण्य पाता है बूढ़ा-लाचार बाप

ऊपर घने बांज-वन की जड़ों से फूटती है सीर

सोती-दर-सोता नदी बनते हुए

शिव की जटा से छूटी गंगा की धारा की तरह


गोमुख से गंगासागर तक

बहती है जो बहुविध

सिर्फ वही नहीं है गंगा

पर्वत से पीड़ा की तरह पिघलती

हर धारा में एक गंगा है

सगर के सौ पुत्रों की नहीं

भारत के करोड़ों वंशजों की तारणहार है गंगा


एक आचमनी भर

एक शीशी भर

एक लोटा भर

हर गंगा में मौजूद है गंगा

एक आश्वस्ति की तरह

(हरद्वार कुम्भ, 1997 में कवि सम्मेलन के मंच से पढ़ी गई कविता जो अचानक पुरानी फाइल में मिल पड़ी। एक और कविता जो वहां पढ़ी थी, कल पोस्ट की जाएगी- न. जो) 

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