Wednesday, February 15, 2023

कीड़ाजड़ी - पिण्डर घाटी के जीवन का जादुई आईना

अनिल यादव  की कीड़ाजड़ीमें कीड़ाजड़ी उतनी ही है जितनी कीड़े में जड़ी या जड़ी में कीड़ा होता है। नाम अवश्य एक सनसनी पैदा करता है। कीड़ाजड़ी अब अपने नाम, काम और दाम से एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सनसनी है। इसे यह भी कोई देश है महाराजकी तरह अनिल यादव का ट्रैवलॉगयानी यात्रा वृतांत कहा गया है। उत्तर-पूर्वी भारत में अनिल की आवारगी का वृतांत सचमुच बहुत रोचक और खूबसूरत है लेकिन कीड़ाजड़ीमें कहीं से कहीं होते हुए कहीं आने-जाने की यात्रा नहीं है। वह पिण्डर घाटी के सुदूर क्षेत्र के एक लॉज और आसपास अनिल के अच्छा खासा समय जीने और वहां के जन-जीवन, प्रकृति, पशु-पक्षी, नदी-गाड़-गधेरे, बर्फ, पर्यटकों चाय-पानी और पदार्थको जीने और उस सब में अदृश्य को देख लेने एवं अश्रव्य को सुन लेने की विरल क्षमता का भेदक गद्य है। इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है लेकिन जो यथार्थ है उसे देख लेने, सुन सकने और लिख पाने की लेखक की क्षमता ने इस पुस्तक को उल्लेखनीय बना दिया है। यह दृष्टि और क्षमता पहाड़ को गहराई से देखने वाले यात्री-लेखकों के यहां भी दुर्लभ है। यह वास्तव में पिण्डर घाटी के बर्फीले शिखरों के निकटवर्ती इलाके का वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक एवं प्राकृतिक आईना है जो अपनी भेदक किरणों से तस्वीर के भीतर की तस्वीर भी दिखा देता है।

शायद तीन या चार साल पुरानी बात होगी। शायद कुछ और पुरानी। अल्मोड़ा से माफ करना हे पितावाले अनोखे लेखक और बहुत प्यारे साथी शम्भू राणा का कुछ इस तरह का संदेश आया था कि अनिल यादव काफी समय से लापता हैं। उनका कुछ पता नहीं चल पा रहा है। क्या आपके पास कोई सूचना है? मेरे पास कोई सूचना नहीं थी लेकिन जो जवाब दिया जा सकता था वही दिया कि अनिल बीच-बीच में लापता होता रहता है। कहीं भटक रहा होगा, आ जाएगा। मुझे यह भी नहीं पता था कि उन दिनों अनिल एक एनजीओ की योजना के तहत उत्तराखण्ड की पिण्डर घाटी के किसी सुदूर इलाके के स्कूल में बच्चों को कुछ समय के लिए पढ़ाने गया है। शम्भू से ही जानकारी मिली थी। अनिल की उसी भटकन और लापताई का परिणाम है पुस्तक कीड़ाजड़ी

उत्तराखण्ड के सुदूर एवं दुर्गम इलाकों की तरह पिण्डर घाटी के ऊपरी गांव भी गरीबी, उपेक्षा, लाचारी और पलायन झेलते आए हैं। पिण्डारी और सुंदरढूंगा ग्लेशियर के मार्ग के पड़ने के कारण 1970-80 के दशक से यहां पथारोहियों-पर्वतारोहियों का आना-जाना बढ़ा तो यहां के निवासियों के जीवन में गाइड और कुली के रूप में तदजनित ट्रिकल डाउन इकॉनॉमीके कुछ छींटे पड़ने शुरू हुए। चीन और तिब्बत होते हुए कीड़ाजड़ी (यार्सा गुन्बु) का अता-पता और ख्याति इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में यहां पहुंचे तो देसी-विदेशी दलालों-तस्करों के जरिए गरीब पहाड़ियों की हथेलियों में नोटों की कुछ गर्मी आनी शुरू हुई। सरकार जो विकासचुनाव-दर-चुनाव नहीं ला पाई वह कीड़ाजड़ी अपने आप ले आई।

साढ़े तीन हजार से पांच हजार फुट के ऊंचे शिखरों पर मिट्टी-पत्थरों के नीचे एक विशेष प्रजाति के कैटरपिलर लार्वा और एक फफूंद के अद्भुत संयोग से कीड़ाजड़ी बनती है। इन शिखरों पर जब सर्दियों में पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है तो कीड़े के खोल के भीतर से फफूंद का डंठल बाहर फूट पड़ता है। यही कीड़ाजड़ी है जिसे तलाशने और साबुत खोद निकालने के लिए इलाके के स्त्री-पुरुष-बच्चे बड़ी कठिन स्थितियों में गलती बर्फ के बीच दिन भर कुहनियों के बल रेंगते हैं। कई गम्भीर रोगों की दवा बताई जाने वाली कीड़ाजड़ी की सर्वाधिक उपयोगिता यौनशक्तिवर्धक के रूप में प्रचारित हुई। अंतराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत दस लाख से बीस लाख रु प्रति किलो और कहीं इससे भी अधिक है। पिण्डर और सुंदरढूंगा ग्लेशियरों के आस-पास भी सीमित मात्रा में कीड़ाजड़ी मिलती है। इसने यहां के लोगों का जीवन अजब-गजब ढंग से विकसित एवं विकृत कर दिया है।

अनिल यादव कीड़ाजड़ी के इतिहास-भूगोल-बाजार के बारे में थोड़ा-सा जाते हैं। बाकी वे पिण्डर घाटी के जीवन में गोते लगाते हैं। स्कूली बच्चे, मास्टर, चाय उबालते दुकानदार, जंगल-खेत आती-जाती औरतें, लड़कियां, नशा करते पुरुष, पर्यटकों-पथारोहियों को ताकते कुली-गाइड, स्थानीय देवी-देवता, मान्यताएं, कुत्ते, भेड़-बकरियां, गाय-भैंस, नदी-पेड़-पहाड़, बर्फीले शिखर, विविध रूपों-रंगों वाला आकाश, रातें, अंधेरे और हवाएं। ये सब यहां पात्रों की तरह हैं और अनिल सबसे मिलते-देखते-सुनते-बतियाते हैं। जो कहा गया उसके आगे-पीछे का अनकहा भी सुन लेते हैं। जो दिखता है, उसके नीचे-ऊपर का अनदिखा भी उनकी नजर में आ जाता है। वे नदी की आवाज में कोई नई आवाज मिली हुई सुन पाते हैं “जैसे पानी को लकड़ी की तरह चीरा जा रहा हो” और चांदनी में इस सृष्टि का हर रंग-शेड, जो जीवन के ही रंग हैं, अलग-अलग छान पाते हैं-

“मैंने आधी नींद में सुना, कुहासे में छनकर आती, ओस से भीगकर भारी हुई एक उदास लम्बी तान जिसमें मिट्टी और घास की पत्तियां चिपकी हुई थीं। मैं खिड़की खोलकर देखने लगा, देर तक धुंध में कुछ नहीं दिखाई दिया। तब मेरे भीतर एक तस्वीर बनने लगी। ज़िंदगी सूखे, कठोर पहाड़ की तरह अंतहीन फैली हुई है जिसकी दरारों में बहुत दूर कहीं-कहीं छोटे गुमनाम फूल पड़े हुए है, चिड़ियों की फड़फड़ाहट है, जलती हुई आग है, किसी जानवर के सांस की आवाज है, बच्चे की हंसी है, एक औरत की सिसकी है। वह तान इन सबको आपस में जोड़ने के लिए पानी की एक लम्बी डोर की तरह उड़ती हुई, इनमें से हर एक को एक फंदे में फंसाकर आगे बढ़ती जा रही है।”

समय के साथ पिण्डर घाटी का जीवन बदलता रहा और नहीं भी- “पिण्डर घाटी में कोई नाई नहीं है, न कोई हेयर कटिंग सैलून। पड़ोस के दो-तीन घरों के बीच एक पुराना डिब्बा घूमता है जिसमें उस्तरा, कैंची, कंघी, फिटकरी के गोले और एक नेलकटर रहते हैं। ग्रामीण एक-दूसरे के बाल काटते हैं। महीन बालों को साफ करने के लिए ब्रश और पाउडर नहीं होता, एक चुटकी आटे और कपड़़े से काम चला लिया जाता है। लौंडे-मौंडे किसी काम से जीप पर लदकर भराड़ी जाते हैं तो जेब में पैसों की उपलब्धता के आधार पर क्रमानुसार मोबाइल में गाना भराना, पसंद के बाल कटाना और बीयर पीना, तीन काम जरूर करते हैं। ....नए लड़के-लड़कियां हर मामले में उन चिकने शहरियों के जैसे होना चाहते हैं जो मोबाइल और टीवी में दिखाई देते हैं क्योंकि वे सभी उनकी जानकारी के मुताबिक श्रेष्ठ, खुश और मां कस्सम-खत्तरनाक हैं।”

जैसा कि होता है, वहां विविध और विचित्र चरित्र हैं जिनसे वह समाज व्याख्यायित होता है। अनिल उनसे आत्मीय हो उठते हैं और उनकी मार्फत दनपुरियों के जीवन के सूत्र पकड़ पाते हैं। इनमें मातृविहीन, अल्हड़ नन्हीं जोतीहै, जिसका कुली और गाइड बाप खूब पीता है (जो चंद वर्ष बाद किताब लिखे जाते वक्त बंगाल के पथारोहियों के साथ सुंदरढूंगा ग्लेशियर के एवलांच में मारा जाता है।) एक बाबा रामदेव है और यह नाम इसलिए पड़ा है कि उसे रामजी ने दर्शन देकर अपना मोबाइल नम्बर दिया था जिसे पुलिस ने जब्त कर लिया है। एक अनुपस्थित रमेश है जो वास्तव में असाधारण रूप से कठिन जीवन जीने वाले यहां के निवासियों की जिजीविषा का रूपक भर है। स्कूल के प्रिंसिपल कांडपाल हैं जो बच्चों को पीटते हुए उनका भविष्य बांचते है- अपने बाप की तरह दारू पीकर शहर की नाली में पड़े मिलेंगे, पत्ते में सब कुछ गंवा देंगे, भीख मांगेंगे, चोरी करेंगे...।” शांत स्वभाव का भोटिया कुत्ता गब्बर है जो “गरारा करते समय गले से उठने वाली आवाज में बातचीत की शुरुआत करता है।” पुराना गाइड और “पर्वतारोहण के इतिहास में न चाहकर भी याद किए जाने वाले कई अभियानों में ज़िंदा बच आया है।” पशु-पक्षी, गाड़-गधेरे, पिण्डर नदी, हवाएं, अंधेरा, बारिश, बर्फ, देवता और उनके जगरिया-डंगरिया, पेड़-जंगल, कीड़ाजड़ी, उसे टोहने-खोदने वाले ग्रामीण, दलाल-तस्कर, पुलिस-पटवारी, सब इस वृतांत में पिण्डर घाटी में मिट्टी-पत्थर की तरह छितराया जीवन उकेरते हैं। अनिल की ही तरह बच्चों को कुछ दिन के लिए पढ़ाने यहां आए दिल्ली-मुम्बई के अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ कुछ स्त्री-पुरुष भी हैं जो पहाड़ और पहाड़ियों को अपनी ही विशेषज्ञ-दृष्टि से देखते एवं परिभाषित करते हैं। कुछ दिन बाद वे लौट जाते हैं लेकिन अनिल रह जाते हैं उस जीवन में गहराई से पैठते हुए। पांच साल में वे इस इलाके में वे बार-बार आते हैं। हर बार जीवन और प्रकृति के रहस्य उनके और भी सामने खुलते हैं- “हर भौगोलिक स्थिति में फलने-फूलने वाली ज़िंदगी का वहां के अपने खतरों के साथ सचेत तादात्म्य होता है। यह जितना गहरा होता है, प्रकृति के नियमों की समझ बनती है, दक्षताएं आती हैं, जीने में सहायक विशिष्ट गुणों वाले लोग बनते हैं। ... सबसे अधिक घाटे में वे हैं जिनका प्रकृति से सबंध टूट चुका है। वे कुछ महसूस नहीं कर सकते।”

इसीलिए कीड़ाजड़ीसिर्फ यात्रा-वृतांत नहीं है। वह एक पहाड़ी इलाके के जीवन और प्रकृति में गहरे झांकने वाली खिड़की भी है। अनिल का अनूठा गद्य अतिरिक्त उपलब्धि की तरह है।

- न जो, 15 फरवरी, 2023

(कीड़ाजड़ी- अनिल यादव, हिंद पॉकेट बुक्स (पेंग्विन), 2022, पृष्ठ- 190, मूल्य रु 250/-)                                           

1 comment:

भाषाविज्ञान एवं भाषाप्रौद्योगिकी said...

कमाल की कहानी और बेमिसाल लेखक👌