Wednesday, August 06, 2025

भूत होते गांव- कटु यथार्थ से रू-ब-रू कराता उपन्यास

— दिवा भट्ट 

एक भरा- पूरा, महकता- चहकता, हंसता- गाता गांव एक दिन जनहीन हो गया तो जनों के साथ वहां के पालतू पशुओं का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। बचे हैं  जंगली हिंसक पशु; जो गांव के सन्नाटे में अपनी भयावह आवाजें भरते रहते हैं। गांव भुतहा हो गया है। भूत बन गया है। मनुष्य और उसके प्रिय पशुओं की संख्या शून्य हो जाने से ठीक पहले जो अंतिम आदमी अपने एकमात्र साथी शेरू नामक कुत्ते के साथ वहां बचा है, उसकी मनःस्थिति कैसी हो सकती है? मनुष्य के स्थान पर वहां यादें हैं, केवल यादें, जीवंत अतीत की यादें। उन्हें दोहराते रहना उसका दैनिक क्रम बन गया है। अतीत की अलग-अलग कथाओं की खट्टी-मीठी स्मृतियां ही उसका वर्तमान बनाती हैं और ‘भूतगांव’ नामक उपन्यास के कथानक को रचती हैं। गांव खाली हुआ तो क्यों हुआ? कैसे हुआ? इसकी अनेक छोटी-छोटी कथाएं-उपकथाएं हैं। गांव में बचा हुआ यह अंतिम आदमी एक सेवानिवृत्त फौजी आनंद सिंह शेरू के साथ गांव में घूमता हुआ जिस-जिस घर के पास से गुजरता है, उस-उस घर के पूर्व निवासियों की कथाएं शेरू को सुनाता है। गांव के अतीत और वर्तमान की दास्तान सुनाने के साथ -साथ वह अपनी प्रतिक्रियाएं देते हुए उनका विश्लेषण भी करता चलता है। ये अनेक कथाएं धीरे-धीरे एक परिवार पर केंद्रित होकर मुख्य कथा के पात्रों से जुड़ जाती हैं। 

पलायन की इस कथा के दो छोर हैं। एक छोर गांव में है; जहां से पलायन हुआ है और दूसरा शहर में है; जहां पलायन करने वाले व्यक्ति पहुंचे हैं। ये दोनों कथाएं अलग-अलग चलती हैं। प्रारंभिक अध्यायों में उनका परस्पर कोई जुड़ाव दिखाई नहीं देता। एक ओर अपनी अंतिम अवस्था गांव में व्यतीत कर रहा एकाकी आनंद सिंह है; तो दूसरी ओर शहर के एक बड़े निजी अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती एक लकवाग्रस्त वृद्ध पड़ा है, जिसकी देखभाल में अस्पताल के डॉक्टर- कर्मचारी घबराये- हड़बड़ाये- से जुटे पड़े हैं। वे सभी अत्यधिक सतर्क और तत्पर हैं, क्योंकि उसके इलाज के लिए अमेरिका से मुंह मांगी धनराशि भेजने वाला उसका बेटा प्रतिदिन वीडियो कॉल करके अपने पिता का हाल-चाल पता करता है। रोगी की पहचान नंबर 21 है। आगे जाकर नंबर 21 मिस्टर वी० एस० नेगी बन जाता है और कथा के अंतिम अध्यायों में पहुंच कर वही वीरेंद्र हो जाता है; जिसकी जड़ें जाकर आनंद सिंह से मिल जाती हैं। कथा की यह दोनों धाराएं लगभग पूरे उपन्यास में परस्पर मिलकर कोई ताना-बाना नहीं बुनतीं; बल्कि समानांतर आगे बढ़ती- बढ़ती समीप आकर एक होती प्रतीत होती हुईं भी अंत में एक नहीं हो पातीं। एक ही वृक्ष- मूल की दो भिन्न शाखाएं भिन्न ही बनी रहती हैं।

कथा उस गांव की है; जो जनसंख्या के ग्राफ में छोटा होते-होते एक दिन भूत बन जाता है। भूत अर्थात् जो कभी था और अब नहीं है। लोक की सामान्य समझ के अनुसार प्रेतात्मा भी भूत कहलाती है। ‘भूतगांव’ शीर्षक दोनों अर्थों का सार्थक संकेत देता है। पहले का तात्पर्य एक ऐसे गांव से है; जो कभी जीवंत था, मगर अब मरकर भूत बन गया है और सबको डरा रहा है। दूसरे अर्थ के अनुसार एक ऐसा गांव; जो कभी आबाद था, जिसमें मनुष्यों तथा अनेक मनुष्येतर प्राणियों का वास था। वे सब अब नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्माएं भूत बनकर गांव में यहां- वहां भटक रही हैं। खालीपन का यह डरावना वातावरण किसी को भी हताश और आतंकित कर सकता है। भूत बन रहे गांव के मृतप्राय वर्तमान के साथ-साथ एक समय के जीवंत अतीत को हम आनंद सिंह की आंखों से देखते हैं और शेरू के कानों से सुनते हैं। शेरू के साथ आनंद सिंह का संवाद इतना सीधा सहज और आत्मीयतापूर्ण है कि लगता ही नहीं कि यह संवाद एक मनुष्य और एक पशु के बीच हो रहा है। यह पशु मनुष्यों से अधिक संवेदनशील, अधिक बुद्धिमान और अधिक निष्ठावान है। अपने स्वामी की हर बात समझता है। साथ ही अपनी बॉडी लैंग्वेज से अपने भाव भी मालिक को अच्छी तरह से समझा लेता है। कभी आंखों से टुकुर-टुकुर ताकते हुए, कभी उसके पांवों में अपने नाक और थूथन रगड़ते हुए। कभी पंजे से जमीन खरोच कर तो कभी मालिक के आगे- पीछे चलकर। कभी बीच रास्ते में अड़ कर खड़े रहकर, तो कभी तेजी से भाग- भाग कर और कभी जोर-जोर से भोंक कर वह अपना आग्रह एवं प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता रहता है। आनंद सिंह भी समझ जाता है कि वह क्या कहना चाहता है। यहां तक कि वह किस घर का वृतांत सुना चाहता है। उसे गांव के लगभग प्रत्येक घर के स्त्री- पुरुषों की बातें सुना चुके आनंद सिंह के अपने ही घर का आख्यान अनकहा रह जाता है तो शेरू घर के दरवाजे पर अड़ जाता है। तब आनंद सिंह उसे अपने घर की गाथा भी सुनाने लगता है। इसके साथ ही कथा के उलझे धागे सुलझने लगते हैं। तब पता चलता है कि नगर- कथा में जो घटनाएं घटित हो रही हैं; उसके पात्रों की डोर भी इसी घर से बंधी हुई है।

शेरू से बातियाता आनंद सिंह सिर्फ घरों और उसके निवासियों के वृत्तांत ही नहीं सुनाता; गांव की प्रकृति, पर्यावरण तथा वहां के मौसम के हाल भी सुनाता है और उसीके अनुसार अपनी व शेरू की गतिविधियों के सूचन भी करता रहता है। गांव की वर्तमान दशा- दुर्दशा का वर्णन करते हुए वह इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार वर्तमान व्यवस्था तथा समाज की कुरीतिपूर्ण परंपराओं पर भी तीखे व्यंग्यात्मक प्रहार करता है। कुरीतियों में जातिगत भेदभाव प्रमुख है, जो सामाजिक सौहार्द तथा सामंजस्यपूर्ण विकास में सड़न पैदा करता है। हमारे संस्कारों में गहरी जड़ें जमा चुके भेदभाव से उत्पन्न विडंबनाओं का उद्घाटन उद्वेलित करता है। आनंद सिंह सामाजिक- राजनीतिक व्यवस्थाओं की अनुचित नीतियों के साथ-साथ गांव, पर्वत, प्रकृति तथा पर्यावरण का अनियंत्रित दोहन करती कंपनियों तथा गांव की स्थिति सुधारने के स्थान पर यहां से पलायन कर जाने वालों पर भी कभी सीधे तो कभी व्यंग्य बाणों से प्रहार करता है;

"ऐसा भी कोई विकास हुआ जो हमको गांव से, पुरखों की जमीन से उखाड़ दे? कहते हैं तुम्हारा विकास कर रहे हैं और पूरा का पूरा गांव बेच देते हैं। कहते हैं तुम्हारा विकास करने आए हैं और पहाड़ खोद-खोद कर खड़िया, लोहा, मैग्नीसाइट जाने क्या-क्या निकाल कर ले जाते हैं। कहते हैं हम तुम्हारा विकास कर रहे हैं और नदी को बांधकर गांव के गांव डुबो देते हैं। ऐसे कारनामे लच्छू कोठारी की संतानों के अलावा और कौन करेगा?” लच्छू कोठारी और उसकी मूर्ख संतानों के अनेक किस्से कुमाऊं भर में दंतकथाओं के रूप में कहे- सुने जाते हैं; जो प्राय: किसी व्यक्ति के अव्यावहारिक तथा मूर्खतापूर्ण क्रियाकलापों के दृष्टांत बन जाते हैं। इसी भांति बाघ का रूपक माफियाओं के आतंक को रेखांकित करता है। गांव में बाघ के आवागमन से उत्पन्न आतंक की बात करते हुए आनंद सिंह कहता है; "बाघ ही बाघ हो गए यार, चारों तरफ। मैं इस एक बाघ के लिए परेशान था, अब और भी भयानक बाघ आ रहे। यह कंपनी हम सब के लिए बाघ ही तो हुई —- खा जाएगी पूरे गांव को।”

इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता उपन्यास का यह केंद्रीय पात्र जब अपनी बातें कहते-कहते सरक कर सीधे-सीधे लेखक की वाणी बोलने लगता है और जल, जंगल, जन, जमीन के मुद्दों का वैचारिक विश्लेषण करने लगता है तो कहीं -कही वह कथा पर भारी पड़ता भी प्रतीत होता है। वस्तुत: ‘दावानल’, ‘देवभूमि डेवलपर्स’, ‘टिकटशुदा रुक्का’ और ‘बाघैन’ जैसी कृतियों के लेखक नवीन जोशी को पहाड़ के समाज, संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण के चिंताजनक प्रश्न इतनी गहराई तक प्रभावित करते हैं कि वे उनकी प्रत्येक रचना के प्रेरक बिंदु बन जाते हैं। पहाड़ के गांव, उनकी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं, सामाजिक सौहार्द, विपुल संसाधन संपन्न सुंदर प्रकृति; जिसमें भूमि, पर्वत, वन, वृक्ष, नदियां आदि सब कुछ अपने वैभव के साथ सम्मिलित हैं; उनके सरकारी तथा गैर सरकारी माफियाओं द्वारा किए जा रहे अनियंत्रित दोहन और प्रदूषण की चिंता की छाया उनकी प्राय: प्रत्येक कृति पर छाई रहती है। लेखक के अंतर्मन के ये गहरे सरोकार इस रचना पर भी इस तरह व्याप्त हैं कि कई बार लगता है जैसे कथा खुद को कहने की अपेक्षा इन प्रश्नों के विश्लेषण में अधिक व्यस्त हो रही है। 

कथानक के मूल सूत्र का जो दूसरा सिरा शहरी जीवन की माया में उलझता है; उसके पात्रों का पलायन धन कमा कर सुख- सुविधापूर्ण जीवन बिताने की कामना से प्रेरित सामान्य पलायन से भिन्न है। एक किशोर जोड़े के मुग्धावस्था में जन्मे प्रणयाकर्षण से आरंभ होकर यह कथा अनेक उतार -चढ़ाओं से होती हुई अंत में क्षोभ और विषाद की विडंबना तक पहुंचाती है। जातिगत भेदभाव की रूढ़ियों में जकड़े हुए ग्रामीण समाज में अपने संबंध की अस्वीकृति ही नहीं, असहनीय दंड को  भी सुनिश्चित मानकर गांव से भाग जाने वाले इस युगल की कथा एक भिन्न परिवेश में आगे बढ़ती है। प्रेम की उद्दाम लहरें यथार्थ से टकराती हुईं कभी उपेक्षा प्रताड़ना और कभी विवशता का भार उठाकर बहती हुई जिस स्थिति तक पहुंचाती है, उसे प्रेम की निष्फलता नहीं कहा जा सकता तो सुखद परिणति भी नहीं। भीतर जड़ जमा कर बैठे हुए रुढ़ संस्कार घुन की तरह सुखी गृहस्थी के खलिहान को भी खोखला करने लगते हैं। अपने स्वजनों तथा मातृभूमि का स्थाई विछोह भीतर से कुरेदता रहता है। दूसरी ओर गांव का परिवार भी अपने ही लोगों द्वारा मिले निष्कासन तथा घोर अपमान की आग में जलते रहने को विवश है।

परस्पर भिन्न परिवेशों में समानांतर चलती इन दो उपकथाओं का भाषा- शिल्प भी अपने-अपने परिवेश के अनुरूप है; जो रचना को सहजता एवं विश्वसनीयता प्रदान करता है। कथा की ऐसी बुनावट अपने आप में एक बड़ी चुनौती भी है और कसौटी भी। इसकी सफलता ही ‘भूतगांव’ रचना को विशेष प्रभावशाली बनाती है। नगर परिवेश में आगे बढ़ते घटनाक्रम में समाहित औत्सुक्य कथानक को गति प्रदान करता है; जबकि ग्रामीण परिवेश की कथा में गति की अपेक्षा स्थिति की गहन पड़ताल विशेष रूप से की गई है; जो लेखक के गंभीर सरोकारों से रूबरू करा कर झकझोर देती है। इन सरोकारों के मूल में निहित पलायन का दर्द कथा का बीज मंत्र होते हुए भी यहां पलायन से जुड़े अनेक कारणों में से एक कारण को विस्तार दिया गया है, फिर भी वह विभिन्न कारणों से हो रहे पलायन जनित दुष्परिणामों की विस्तृत पड़ताल करता है।

एक ओर सुख-वैभव- प्राप्ति की लालसा स्थानीय निवासियों को पहाड़ छोड कर जाने को विवश करती है; तो दूसरी ओर से शहरों के बड़े-बड़े पूंजीपति अपनी पूंजी बढ़ाने के लालच से पहाड़ों की प्राकृतिक संपदा को छिलने-खोदने- बांधने- लूटने में जुट जाते हैं। पलायन कर जाने वाले अपने पीछे वीरान घर और बंजर धरती का विस्तार छोड़ जाते हैं; तो स्वर्गिक सुख के सपने लेकर जहां पहुंचते हैं वहां भी इन्हें सुख के फूलों की मखमली सेज नहीं मिलती। सुविधा एवं समृद्धि के झूलों में झूलते दिखाई देते इन पात्रों के भीतर भी व्यथा-निराशा और असमंजस की चिंता धारा बहती रहती है। उनकी व्यथा के अनेक रूप हैं। स्वजनों से वियोग तथा प्यारी मातृभूमि से टूटने-छूटने की पीड़ा तो है ही; सुख- समृद्धि के साथ समाहित शुष्क और कठोर यथार्थ को अंगीकार करने की विवश पीड़ा भी सम्मिलित है। विडंबना यह है कि पहली पीढ़ी शहर के सुखों के लिए गांव छोड़ती है तो उनके बाद की पीढ़ी भौतिक सुखों की पराकाष्ठा का स्वाद चखने के लिए देश छोड़कर विदेश चली जाती है। वहां के तंत्र में वह‌ ऐसे फंस जाती है कि अपने मरणासन्न माता-पिता की सेवा करना तो दूर; उन्हें देखने भर का भी अवकाश ‌उन्हें नहीं मिलता। वे पैसे भेज कर माता-पिता की सेवा तो खरीद लेते हैं, किंतु न उनको सुख-संतुष्टि दे पाते हैं; न उनका जीवन बचा पाते हैं। 

‘भूतगांव’ उपन्यास में नवीन जोशी ने उत्तराखंड के एक गांव को केंद्र में रखकर जिन सरोकारों पर सोचने के लिए उद्वेलित किया है, वे समग्र देश के संदर्भ में विचारणीय हैं। गांवों से बढता पलायन तथा शहरों का बढ़ता आकार एवं घनत्व आज पूरे भारत में अनेक समस्याओं को बढ़ा रहा है। लगभग सभी राज्यों में इस पर चिंतन -मनन चल रहा है, लेकिन पहाड़ी प्रदेशों में यह जिस तीव्र गति से हो रहा है और प्राकृतिक,सामाजिक तथा सांस्कृतिक असंतुलन के जिन नये प्रश्नों को जन्म दे रहा है, वे अत्यधिक चिंताजनक हैं। सीमांत गांवों का खाली हो जाना देश की सुरक्षा की दृष्टि से भी चिंतनीय है। यह कथाकृति इन सरोकारों पर विचार मंथन कर समाधान खोजने को भी प्रेरित करती है।

उपन्यास जैसी साहित्यिक विधा में ऐसे सरोकारों की प्रस्तुति कटु यथार्थ से रूबरू कराने के साथ ही यह प्रश्न भी खड़ा करती है कि अभेद्य बनी हुई इस दीवाल में क्या कोई छेद नहीं हो सकता; जिससे आशा की कोई किरण प्रविष्ट हो जाए? गांव में बाघ का आना द्विअर्थी है। उसका गाय, बकरी और कुत्तों को शिकार बनाते- बनाते मनुष्यों तक पहुंच कर पूरे गांव को आतंकित करने का क्रम कथा नायक की एकलता को विक्षिप्तता तक पहुंचा देता है। दूसरी ओर शहर अथवा विदेश में रहती युवा पीढ़ी का अपनी जड़ों की खोज करते हुए गांव तक पहुंचते ही कंप्यूटर आधारित अद्यतन प्रौद्योगिकी के प्रतीक बने मार्क जुकरबर्ग के देश जाने के लिए बेचैन हो जाना केवल पलायन की विवशता है? या यह भूमि के स्थान पर नभ की ओर ताकने वाली बदली हुई प्राथमिकताओं की ओर संकेत करता है।

लेखकीय कौशल की सफलता यह है कि पिछड़े कहलाते गांव और तथाकथित विकसित शहर की यह परोक्ष तुलनात्मकता पैबंद बन कर कथानक पर आरोपित नहीं होती; बल्कि यह परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य की निर्णयात्मकता की स्वाभाविक परिणति बनकर आती है। इसीलिए यह भीतर तक हिला कर रख देती है। 

परस्पर भिन्न प्रतीत होते ‘भूतगांव’ के इन दोनों वृत्तांतों के समानांतर कथ्य को लेखक नवीन जोशी की कहन शैली विशेष आकर्षक बनाती है। ग्रामीण परिवेश के वृत्तांत- वर्णन में लोकोक्तियों, लोक विश्वासों की उक्तियों तथा लोकगीतों की पंक्तियों के समावेश शिल्प को कथा की पृष्ठभूमि के अनुरूप सहज एवं रोचक बनाने के साथ ही कथ्य की गहराई तक पहुंचने में भी सहायक बनते हैं-

“राजा की चाल और बारिश की धार, अपने मन की हुई।"

“पानी से धारदार कोई औजार नहीं होता। उसे ठीक से रास्ता देना पड़ता है।"

“बारिश को दोष देते हैं। अरे, उसका काम बरसना हुआ। पहाड़ कच्चे हैं तो उसकी गलती है क्या?

"मकान अपने रहने वालों को कभी नहीं दबाता। आज भी इसमें कोई रह रहा होता तो यह नहीं ढहता, शेरू!"

”दही देने उसके घर, नमस्कार मेरे घर!” 

"गांव की सूरत ग्वैट (रास्ते) से! सही किस्सा हुआ।"

"द्यो लागो दणमण, बुड़ी भाजी बण-बण। ले बुड़ी खाजा, त्यार गोरु भाजा।” (वर्षा बरसी दनमन, बुढ़िया भागी बन-बन। ले बुढ़िया खाजे, तेरी गायें भागीं।”

“मड़ुवा (रागी/ नाचनी) राजा, सेंको तब ताजा।”

"जिसकी ज्वे (जोरू) नहीं, उसका क्वे (कोई) नहीं।"

"खाली हाथ मुख में नहीं जाता।”

"मन कहता है दूध भात खाऊंगा, कर्म (भाग्य) कहता है साथ लगा रहूंगा।"

"आंसू पोछ्या रूमालै ले, हिया पोछूं क्या ले?” (आंसू तो रुमाल से पोंछ लिए, हृदय  को किससे पोंछूं?)

(चुन्नी भौजी के ककिया ससुर) "थे बड़े घुन्ना, मुख से हंसते और पूंछ से डसते थे।” 

अंचल विशेष के लोक विश्वासों का समावेश  कथन को चुटीला- चटपटा बनाने के साथ ही गहन संवेदनीय भी बनाता है। स्थानीय समाज में एक यह विश्वास भी प्रचलित है कि नवजात शिशु की नाभि से जुदा हुई नाल को फेंका नहीं जाता; बल्कि उसे घर की देहरी की चौखट के ऊपर रख दिया जाता है। विश्वास है कि ऐसा करने से उस शिशु को जीवन में कभी भूखे नहीं रहना पड़ता। वह कहीं भी जाए; खाने के समय पहुंच ही जाता है। विडंबना यह है कि आज वही शिशु तथा शिशु से युवा और वृद्ध हो रहे लोग अपनी उसी देहरी को छोड़कर न जाने कहां-कहां चले गए हैं। चौखट उनकी नाभि-नाल को संभाले हुए वहीं खड़ी है। छोड़ दिए गए ये घर एक दिन गिर जाते हैं तो उनमें संभाली हुई वह नाल भी उन्हीं के साथ दब जाती है। मनुष्य साथ छोड़ देता है, लेकिन चौखट और नाल एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। आनंद सिंह शेरू से कहता है; "यहां जन्मे बच्चों की नाभि-नाल उस चौखट के ऊपर धरी रह गई होगी, जो आज मलबे के नीचे दब गई है।” 

आनंद सिंह गांव की इन स्थितियों पर ही टिप्पणी नहीं करता; वहां की प्रकृति के विविधतापूर्ण सुंदर दृश्यों को देखते हुए अपने हृदय में उत्पन्न होते आल्हाद- विषाद के भावों की चर्चा भी शेरू से ही करता है; (और किससे कहे?)

"नहाए- धोए, तरो ताजा, कितने खुश हो रखे पहाड़! कुहरा ऐसे लपेट लिया जैसे पशमीना। भीगते- भीगते जाड़ा लग जाता होगा। सो, चिलम फूंकने लगे! चौमास में क्षण-क्षण रूप बदलते हैं पहाड़! आहा, बादलों के साथ लुका-छुपी का कैसा खेल हो रहा ! हा – –हा – –हा – –। देख-देख, बादल का वह शैतान भूरा टुकड़ा पहाड़ के सिर पर थप्पी देकर भाग गया और नीचे से उठा सफेद कुहरा उसका पीछा करने दौड़ पड़ा है।"

वर्षा ऋतु में पहाड़ों के ऐसे अगणित मनमोहन रूप किसे अह्लादित नहीं करते? सीधी-सरल बातें करने वाला ग्रामीण आनंद सिंह हो या सामाजिक सरोकारों को समर्पित लेखक नवीन जोशी, अथवा प्रकृति के अद्वितीय चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत, जिन्होंने ऐसे दृश्यों को देख कर ही लिखा था; 

"पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल- पल परिवर्तित प्रकृति वेश।" 

लेखक की कल्पनाशीलता प्रकृति के इन सुंदर चित्रों को विविध प्रकार के दृष्टांतों, रूपकों और उपमानों से सजाने के बाद वैचारिकता के धागे में गूंथ कर सामने रखती है तो गद्य भी रसप्रद बन कर काव्य- सौंदर्य का आनन्द देने लगता है।

('बनास जन' ,सम्पादक- पल्लव के अंक 81, जून 2025 में प्रकाशित) 

बादल फटना एक बहाना है, अभी कई धराली होंगे

धराली (उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड) के वीडियो भयावह हैं लेकिन अप्रत्याशित बिल्कुल नहीं। यह हर साल बरसात में लगभग आम किस्सा हो गया है। इस साल हिमाचल में पहले ही हो चुका। उत्तराखंड का नम्बर अब आया है। अभी तो मानसून सक्रिय हुए मुश्किल से महीना भर हुआ है।

उन्नीस सौ साठ-सत्तर के दशक से हिमालय ने मानवकृत अत्याचारों के विरुद्ध चेतावनी देनी शुरू कर दी थी। जुलाई,1970 में बिरही और अलकनंदा ने बेलाकूची का नामोनिशान मिटाकर हरद्वार तक तबाही के शिलालेख लिख दिए थे। 2013 की केदारनाथ त्रासदी इन तमाम वर्षों की अनेक चेतावनियों की उपेक्षा के विरुद्ध गर्जना थी। अब प्रत्येक वर्ष पहाड़ ऐसी गर्जनाएं करता है। पर्यावरण विशेषज्ञ और भू विज्ञानी कब से इन प्रकृति की चेतावनियां पढ़कर सरकारों को सलाह दे रहे हैं, सचेत कर रहे हैं लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हो रही।

ग्लोबल वार्मिंगऔर बादल फटनेके अच्छे बहाने मिल गए हैं। ग्लोबल वार्मिंग के अपने दुष्परिणाम हैं लेकिन पहाड़ उसके कारण नहीं दरक रहे। बादल फटना कोई नई बात नहीं है। एक सीमित इलाके में बहुत कम समय में अतिवृष्टि पहले से होती रही है। अब पहाड़ उस अतिवृष्टि को बर्दाश्त करने की क्षमता खो बैठे हैं। यह आदमी और उसकी व्यवस्था की करतूतें हैं। अंग्रेजी के क्लाउड बर्स्टसे निजामों को नया बहाना मिला, बस।

कुछ बातें जान लीजिए। हिमालय दुनिया का सबसे बच्चा और कच्चा पहाड़ है। इसके बाहर-भीतर निरंतर छोटी-बड़ी भू-हलचलें होती रहती हैं। कोई शिखर ढहता है, कोई घाटी भरती है, छोटी-बड़ी कोई नदी रास्ता बदलती है। पहले यह नज़र में कम आता था। अब सड़कों, आबादी और यातायात के विस्तार से नज़र में आ जाता है। पहाड़ की यह हलचल मानव बस्तियों में नहीं हो रहीं। मानव बस्तियां और उनके बेहिसाब व्यवसाय हलचल वाले पहाड़ों में जा पहुंचे हैं।

धराली को देखिए। अपार पानी और चट्टान-मिट्टी-वृक्षों-कंक्रीट के प्रचंड मलबे ने जिस बाजार और कस्बे को जमींदोज़ किया, वह बीस-पच्चीस बरस पहले तक वहां नहीं था। मूल धराली गांव नदी से काफी ऊपर है और आज भी सुरक्षित है। जिन दुमंजिले-चौमंजिले कंक्रीट भवनों को आपने ताश के पत्तों की तरह बिखरते देखा, वह नदी के बहाव-बाढ़ क्षेत्र में हाल के वर्षों में बनाए गए। स्थानीय भाषा में इसे बगड़, थाला, आदि कहते हैं। यहां गांव के खेत थे, चरागाह थे, घराट थे। यह वास्तव में नदी की जगह थी, जहां वह अतिवृष्टि के समय पसर जाती थी। पांच अगस्त को भी वह मलबा लेकर अपनी उसी जगह घुसी। और कहां जाती?

पहाड़ों में जगह-जगह नए धराली बन गए हैं। बनते जा रहे हैं। मध्य वर्ग को टूरिज्मके नाम पर बेलगाम मस्ती चाहिए। आस्थावानों को बिना शरीर हिलाए-डुलाए तीर्थयात्रा का पुण्य चाहिए। सरकार को पर्यटन प्रदेशबनाकर राजस्व चाहिए, ‘ऊर्जा प्रदेशबनाकर विकास का ढिंढोरा चाहिए। दिल्ली की बड़ी सरकार को ऑल वेदर रोडबनाकर लोकप्रियता चाहिए। उद्यमियों को बांध, रिसॉर्ट, होटल, आदि-आदि बनाकर दिन दूनी-रात चौगुनी समृद्धि चाहिए। माफिया व ठेकदारों को जल-जंगल-जमीन की दलाली चाहिए। स्थानीय जनता को इस विकास में कुछ टुकड़े चाहिए।

सबके स्वार्थ जिस एक बिंदु पर मिलते हैं, वह है पहाड़ की संवेदनशीलता और प्रकृति की चेतावनियों की अनदेखी। सबने आंखें बंद कर रखी हैं। विशेषज्ञ कब से सावधान कर रहे हैं कि अति हो रही है। केदारनाथ त्रासदी के बाद भी ये आंखें नहीं खुली तो धराली क्या चीज है! सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ कमेटी की सलाह मानने की बाजाय ऐसी स्थितियां बना दी गईं कि कमेटी के अध्यक्ष, पर्यावरणविद रवि चोपड़ा को इस्तीफा देना पड़ा था। इसलिए अभी कई धराली और कई मंडी हम देखने को अभिशप्त हैं।

ऐसा कहने वालों को बड़ी आसानी से विकास विरोधी करार दे दिया जाता है। यह समझ नहीं बनाई जाती कि हिमालय के विकास की नीति प्रकृति सम्मत बने। वहां ऐसा विकास हो कि पहाड़ की रीढ़ बची रहे, नदी के लिए उसका बगड़ और बाढ़-क्षेत्र बचे रहें, जंगल और उसकी जैव विविधता सुरक्षित रहे, मिट्टी व चट्टानों को पेड़ अपनी जगह बांधे रहें, तीर्थयात्रा की आस्था में देह का तनिक कष्ट भी शामिल हो, पर्यटकों के आनंद में प्रकृति का सम्मान कायम रहे, स्थानीयता को उसका वाजिब हिस्सा मिले। मगर यहां तो सब मिलकर सोने की मुर्गी का पेट एक बार में चीर डालने पर उतारू हैं।

-न जो ( नवोदय टाइम्स, 07 अगस्त, 2025 में प्रकाशित)  

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Monday, August 04, 2025

साझा विरासत में सेंध लगाने वाले कौन हैं और उनके इरादे क्या हैं?

1960-70 के दशक में हम लखनऊ के जिस मुहल्ले में रहते थेहां मेरे बाबू जी पण्डित जी कहलाते थे। वे सुबह-शाम पूजा करतेचंदन-रोली लगाते और शौचालय जाते समय दाहिने कान में तीन बार जनेऊ लपेटते थे। शौचालय और नल पूरे अहाते का सार्वजनिक थाजहां कोई एक दर्ज़न क्वार्टरों में अलग-अलग जाति-धर्मों के लोग रहते थे। जब बाबू जी नल से पानी की बाल्टी भरकर अपने क्वार्टर की ओर आते तो दूसरे लोग ऐहतियातन अपने बच्चों को हिदायत देते कि दूर रहो। दो मुस्लिम परिवार थे। वे विशेष रूप से ध्यान रखते कि उनके बच्चे गलती से भी पण्डित जी की बाल्टी न छू लें। मैंने बाबू जी को कभी हटो-हटो’ कहते नहीं सुना। 

अहाते के बीच एक बड़ा छतनार नीम का पेड़ था। शाम को काम से लौटने और खा-पी चुकने के बाद सभी पुरुष नीम के नीचे बैठ जाते। बाबू जी नारियल वाला अपना हुक्का भरकर लाते और गुड़गुड़ाते। शहाबुद्दीन जीअपनी चारपाई पर बैठे-बैठे जमीन पर रखे हुक्के की लम्बी नली मुंह से लगाए हुए धुआं उड़ाते रहते। बाबू जी बीच-बीचे में नारियल मे से चिलम निकालकर दूसरे साथियों को पकड़ाते। पानी भरा नारियल दूसरे हाथों में नहीं देते थे। बाबू जी का हुक्का वहां बैठे दो-तीन और लोग पीते थे लेकिनशहाबुद्दीन जी का हुक्का साझा नहीं किया जाता था। हुक्का पीते-पीते सभी अपने काम-काजघर-परिवार के दुख-दर्दहारी-बीमारीगांव से आई चिट्ठियों में दर्ज़ अपेक्षाओं के बारे में चर्चा करतेऔर सलाह लेते। ज़्यादातर लोग सूदखोर पठान के कर्ज़दार थे। कर्ज़ और पठान की बात आती तो वे सब कुछ देर मौन रहकर नीचे ताका करते और फिर जै राम जी की’ कहते हुए सोने चले जाते। जाड़ों और बरसातों में सब अपनी कोठरियों में सोते लेकिन गर्मियों की रातों में पुरुष अपनी चारपाइयां नीम के नीचे चारों और गा लेते। पहले सभी मिल-जुलकर अहाते की ईटों का ताप शांत करने के लिए बाल्टियां भर-भर कर पानी छिड़कते और जम्हाइयां लेते हुए सो जाते। उमस भरी रातों में बेचैन शहाबुद्दीन जी काउच्छवास या अल्लाह’ सुनाई देता तो किसी खाट से उनींदा लेकिन बेचैन स्वर उठता- ‘हे रामइन घमौरियों से कैसे चैन मिले! शहाबुद्दीन खड़ाऊ पहनते थे। रात में दो-एक बार पेशाब के लिए उठते तो पूरा अहाता खट-खट-खट से गूंज उठता। लोगों की नींद टूट जाती। एक राजिंदर जी थे जो शहाबुद्दीन जी को अक्सर टोक देते- “मियांये रात में खट-खट जरा कम किया करो।” 

अमां यारखड़ाऊं तो खट-खट करबै करी।” शहाबुद्दीन मजा लेते।

राजिंदर दहला मारते- “और जब चुपके से कोठरिया में घुसत हौतब नाहीं करत खड़ाऊं खट-खट! हांनाहीं तो!

शहाबुद्दीन जी दाढ़ी में मुस्काते तो कुछ ठहाके भी लग जाते थे। 

बदरुद्दीन साहब का परिवार हमारी कोठरी से तनिक दूरी पर नीचे की तरफ था। वे बड़े नफासत पसंद थे और कम घुलते-मिलते थे। शायद इसीलिए उनके नाम के साथ साहब जो दिया जाता था। मैं चौथी-पांचवीं में पढ़ता रहा होऊंगा। एक दिन बदरुद्दीन साहब के यहां कई रिश्तेदार जुटे। जुगनू नाम वाले उनके छोटे-से बेटे का खतना थाजो हम बच्चों के लिए समझ में न आने वाली अजूबी बात थी। हम नामकर्णछठीअन्नप्राशनवगैरह जानते थे। उस दिन उनके यहां बड़े पतीलों-देगचियों में गोश्त पका। उसकी खुशबू फिजां में फैल गई और हमारे नथुनों से होती हुई जिह्वा पर रस बरसाने लगी। बदरुद्दीन साहब खुद हर दरवाजे पर हाजिर होकर बच्चे के खतने की खुशखबरी और दावत का न्योता दे गए थे लेकिन कोई सवाल ही नहीं था कि पण्डित जी मुसलमान के यहां खाने जाएं और वह भी गोश्त! ईद की सिवैयां हम बच्चे अवश्य खा लेते थे। खैरबाबू जी ने बदरुद्दीन साहब को बधाई और बच्चे को आशीर्वाद दिया। 

उसके बाद मेरे लिए जो अजूबा घटा वह यह कि अगले ही इतवार को बाबू जी झोले में छुपाकर एक पाव गोश्त खरीद लाए। उस दिन चूल्हे में लकड़ी जलाने की बजायकोयलों वाली अंगीठी सुलगाई गई। उसे भीतर की कोठरी में खिड़की के पास रखकर पतीली में गोश्त भूना गया। पतीली के मुंह पर ढक्कन की तरह रखे कटोरे में पानी भरकर बाबू जी दरवाजे में ताला लगाकर मेरा हाथ पकड़कर बाहर निकल गए। थोड़ी-थोड़ी देर में हमलौटतेबाबू जी ताला खोलते, जल्दी से पतीली में करछुल चलातेकटोरे में गरम हो चुका पानी पतीली में डालते और फिर ताला लगाकर आस-पास निकल जाते। यह क्रम कई बार दोहराया गया। उस दिन दरवाजे में भीतर से सांकल चढ़ाकर पिता-पुत्र ने वह दावत उड़ाई। चूसी गई हड्डियां एक कागज में लपेटकर बाबू जी ने अपने झोले में छुपा दीं (जिसे दूसरे दिन दफ्तर जाते हुए कहीं दूर फेंका होगा) और मुझे समझाया कि किसी को बताना नहीं कि क्या पकाया-खाया। उसके बाद पंडित जी ऐसी ही सावधानी से महीने-दो महीने में किसी छुट्टी के दिन दावत उड़ा लेते

इजा (मां) दो-चार साल में कभी जाड़ों में पहाड़ के गांव से लखनऊ आती थी। दोपहर में जब मर्द अपने-अपने काम पर गए होते और घर का काम-काज निपट चुका होतातब खुले अहाते की धूप में चटाई बिछाकर महिलाओं की महफिल जमती। स्वटेर बुने जातेअमरूद-मूंगफली खाए जाते और सुख-दुख बांटे जाते। शहाबुद्दीन और बदरुद्दीन साहब की बीवियां भी अपनी दरी या चटाई के साथ उसमें शामिल होतीं और कोई नई बिनाई या अचार बनाने की विधि सिखातीं। इजा जब गांव लौट जाती तो अपनी चिट्ठियों में लखनऊ के उस अहाते के सभी लोगों का हाल पूछतीं। मुशई राठ (मुस्लिम परिवार) भी ठीक होंगेयह लिखना नहीं भूलती थी।हर इतवार की सुबह बाबू जी की एक ड्यूटी शहाबुद्दीन जी का साफा बांधने की होती। वे चीफ साहब के खलासी थे और लाल चोगे पर साफा बांधकर फ्तर जाते थे। शनिवार की रात उका साफा खुलता, लम्बा सफेद कपड़ा धोकर रात में सुखाया जाता और सुबह वे हमारे दरवाजे पर हाजिर हो जाते। बाबू जी साफा बांधने में उस्ताद थे और कई लोग अपना साफा बंधवाने उनके पास आते रहते थे। लोग कहते, पंडित जी का बांधा साफा पूरी हफ्ते टाइट बना रहा है। बाबू जी भी साफा पहनते थे और अपना साफा शीशे में देखकर खुद बांध लेते थे। इतवार की सुबह बाबू जी हाबुद्दीन जी को स्टूल पर बैठाते और फिर चारों ओर घूम-घूमकर उनके सिर पर बड़े इतमीनान से साफा बांधते। उनकी दाढ़ी का कोई लम्बा बाल साफे के जोड़ में न फंस जाएयह सावधानी विशेष रूप से बरतनी पड़ती थी।  

हमारे अहाते के पीछे थोड़ी दूर पर एक मजार थी। उसे गनी बाबा की मजार कहा जाता था। बृहस्पतिवार को वहां बहुत सारे लोग बताशे चढ़ाने और लोबान जलाने जाते थे। शहाबुद्दीन और बदरुद्दीन साहब के साथ बाबू जी भी वहां जाते थे। अक्सर मुझे भी साथ ले जाते थे और परीक्षा के दिनों में बराबर याद दिलाते थे कि गनी बाबा की मजार से होकर इम्तहान देने जाना। इजा की चिट्ठियों में भी हिदायत होती थी कि गनी बाबा की मजार पर जाना भूलना नहीं। वर्षों बाद जब हम वह अहाता छोड़कर पहले महानगर और फिर दूर गोमती नगर रहने चले गए थेतब भी बाबू जी किसी-किसी गुरुवार को दो-दो टेम्पो बदलते हुए बताशे और लोबान लेकर गनीबाबा की मजार पर जाया करते थे। उदयगंज चौराहे के पास ही एक पंत जी रहते थे। घंटों पूजा पाठ करने वाले देवी भक्त पंत जी की आचमनी का पानी रोग-दोष नाशक माना जाता था। शहाबुद्दीन जी के बच्चों की बीमारी में भी पंत जी के यहां से पूजा का पानी मंगवाया जाता था। उदयगंज चौराहे पर ही एक मस्जिद थी। जुमे की नमाज के समय हिंदू-मुस्लिम औरतें गोदी में छोटे-छोटे बच्चे लिए मस्जिद के आगे कतार बनाकर खड़ी हो जाती थीं। मस्जिद से निकलकर नमाजी बच्चों के माथे पर फू-फू करते हुए चले जाते।

मैं ऐसे ही माहौल में लखनऊ में बड़ा हुआ। नौ वर्ष की उम्र में पहाड़ ले जाकर पूरे विधि विधान से गले में छहपल्ली जनेऊ डालकर मुझे भी द्विज बना दिया गया था। मैं सुबह शाम दाहिने हाथ पर जनेऊ लपेटकर गायत्री मंत्र का पाठ करताचंदन-टीका लगाता और शिखा पर गांठ लगाकर स्कूल जाता था लेकिन कल्लूजुम्मनजुगनूमोहनअमर और दूसरे कई दोस्तों के साथ कंचे-पिन्नीछुपन-छुपाईगेंदताड़ी खेलता और पतंग उड़ाता। इण्टर कक्षाओं तक आते-आते चंदन-टीकाचोटी, जनेऊ गायब हो गए और हम कबाब-बिरयानी-नहारी-कुल्छा के अच्छे-खासे खवैया बन गए। लखनऊ की साझी रवायत हम जैसे पंडितों की रग-रग में दौड़ने लगी। जैसे-जैसे पैर खुलेलखनऊ ने हमें पंड़ाइन की मस्जिद दिखाईऔर अलीगंज के हनुमान मंदिर के शिखर पर चमकते चांद-तारे ने हमें गर्व से भर दिया। हमारे डेरे से कुछ ही दूर बेगम अख्तर की ठुमरियां गूंजती थी। हमने वाजिद अली शाह की नज्में पढ़ींगुज़िश्ता लखनऊ (अब्दुल हलीम शरर), आग का दरिया (कुर्रतुल ऐन हैदर) और आधा गांव (राही मासूम रजा) बार-बार पढ़े बनारस में बिस्मिल्ला खान साहब को गंगा से बेपनाह प्यार करते हुए भोले बाबा के सम्मान में शहनाई बजाते और उस्ताद जाकिर हुसैन को तबले पर शिवजी का डमरू बजाते देखा-सुना तोहमने अपने हिंदुस्तान पर गर्व किया। 

...वह 1978 का साल था या 1979 लग गया था। सपनों और उमंगों से भरे हम कई युवा पत्रकारिता को समाज और सरकार की चौकीदारी की तरह अपनाए हुए थे। स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग में अचानक दो पत्रकारों की ऊपर से भर्ती हो गई। गुप-चुप सुनने को मिला कि संघ के लोग हैं और लालकृष्ण आडवाणी (तत्कालीन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री) के राष्ट्रव्यापी अभियान का हिस्सा हैं। उनमें से एक ने एक दोपहरजब हम सामूहिक रूप से दफ्तर में खाना खा रहे थेमेरा हाथ पकड़कर किनारे खींचा और धीरे से लेकिन क्रोध के साथ कहा- “जोशी जीआप मलेच्छ के साथ कैसे खा लेते हैं? पहले मैं चौंका और कुछ न समझा,फिर उनका इशारा समझा तो हतप्रभ और जड़ हो जाने के लिए काफी था। दरअसलसाथी ताहिर अब्बास भी हमारे साथ खाना खा रहे थे। यह पहला वाकया था जब किसी ने मुझे मुसलमान के साथ खाने के लिए टोका था। सदमे और गुस्से से भरे हम युवा साथियों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि उस बदजुबान को ज़ल्दी ही नौकरी छोड़कर भागना पड़ गया था। हम हंसे और इसे एक बुरा सपना मानकर भूल गए थे। 

1983 में हमारे घर बेटा जन्मा। पोते के लिए गाय का शुद्ध दूध देने वालेकी बाबू जी की खोज पुराना महानगर की एक गली में मुश्ताक अली के घर पहुंचकर पूरी हुई। बाबू जी नियमित रूप से सुबह दूध लेने जाते। छह महीने में मुश्ताक अली बाबू जी को अपने अब्बा की जगह मानने लगे और अक्सर घर आकर चाय भी पी जाते। तीन-चार साल बाद जब हम महानगर वाला किराए का डेरा छोड़कर गोमतीनगर के अपने मकान में जाने लगे तो मुश्ताक अली अपनी घोड़ागाड़ी लेकर दरवाजे पर हाजिर। हमारी मंगवाई गाड़ी को उन्होंने जबरन वापस भिजवा दिया और हमारा सारा सामान चार-पांच फेरे लगाकर महानगर से गोमतीनगर पहुंचाया। बाबू जी से जो एक धेला उन्होंने लिया होज़िद करने पर पांव पकड़ लिए। दूसरी सुबह से ही गाय का दूध लेकर मुश्ताक अली महानगर से पांच-छह किमी दूर गोमतीनगर आने लगे। उतनी दूर रोज सुबह आना उनके लिए बहुत मुश्किल था दूसरा कोई ग्राहक भी वहां न था और न ही यह व्यावहारिक था। बाबू जी ने कई दिन तक समझाया कि अब इतनी तकलीफ न करें लेकिन वे राजी ही न होते थे। फिर एक दिन बाबू जी ने उन्हें कसम दिलवाई। तब वे माने लेकिन बिना रोए नहीं। वर्षों बाद तक मुश्ताक अली जब कभी गोमती नगर की ओर आते तो बिना मिले जाते नहीं थे। बाबू जी भी उस ओर जाते तो उनसे मिलकर जरूर आते। आज इस मुहब्बत की याद दिलानी पड़ रही है। तब यह सामान्य बात थी यह हमारी हिंदुस्तानियत का हिस्सा था।

 1978-79 में हम जिसे बुरा सपना मानकर भूल गए थेवह अगले एक दशक में किसी भयानक राक्षस की तरह हमारे सामने आ खड़ा हो गया। में समझ में आ गया था कि कुछ ताकतें हमारी गंगा-जमुनी पहचान के लिए खतरा बन रही हैं। जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी राम रथलेकर गुजरात से अयोध्या की ओर चले तो उनके उत्तेजक नारे हमारे हिंदी अखबारों में भी गूंजने लगे। अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर बनाने के रानैतिक अभियान में 1989-92 के दौर की खबरें गवाह हैं कि कई पत्रकार अखबारों में उनके कार्यकर्ता की तरह बर्ताव करने लगे थे। अधिकतर अखबारों में अतिउत्साही समाचारों से माहौल को उत्तेजक बनानेहिंदुओं को भड़काने और मरने-घायल होने वालों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाशित करने की होड़-सी मच गई थी। सैकड़ों मारे गएलाशें फेंके जाने से लाल हुई सरयू, जेल में बंद कारसेवकों को घोड़े का मल खिलाया गया, मुलायम सिंह यादव को खाड़ी देशों से 50 करोड़ रुपए मिले जैसी शीर्षक छप रहे थे। पत्रकारिता ऐसी राममय हो गई थी कि पुलिस जब नृत्य गोपाल दास (श्रीराम जन्म भूमि ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष) को पकड़ने गई तो वे एक चमत्कार से हवा में गायब हो गए! और जिस पुलिस अधिकारी ने कार सेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया थाराम कृपा से उसकी एक आंख की पुतली बह गई जैसे समाचार अखबारों के पहले पृष्ठ पर छप रहे थे। छह दिसम्बर 1992 को तो अयोध्या में कई पत्रकार मस्जिद ध्वस्त होते देखकर जय श्रीराम के नारे लगाते हुए खुशी में दौड़ लगा रहे थे।

 समाज की विविध परतों में हिंदुस्तानियत की हमारी प्राचीन विरासत बदस्तूर धड़कती रही है लेकिन उस पर हमले तेजी से बढ़ते भी आए हैं। राजनैतिक स्तर पर तो यह हो ही रहा थाउसकी पोल खोलकर समाज को सचेत करने का दायित्व निभाने की बजाय पत्रकारिता भी उसी रंग में रंगती गई। अगले दो दशकों में कारसेवक पत्रकारों की फौज अखबारोंइलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया पर छाने लगी। अब एक साजिश के तहत पत्रकारिता हिंदुत्ववादी राजनैतिक दलों-संगठनों का अभियान बन गई। मीडिया के बड़े हिस्से को गोदी मीडिया विशेषण यूं ही नहीं मिला। प्रश्न करने वाली पत्रकारिता स्वयं प्रश्न बन गई। हमारे प्रधानमंत्री बिना एक भी संवाददाता सम्मेलन को सम्बोधित किए अपने तीसरे कार्यकाल में है। कुछेक पत्रकारों का सवाल उठाना या तथ्यों की छानबीन करना अपराध बन जाता है। सामाजिक कार्यकर्ताविरोधी दलों के नेता और गिने-चुने पत्रकार, जो सरकार की नीयत पर सवाल पूछने का साह कर रहे हैंतरह-तरह से प्रताड़ित किए जा रहे हैं। सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री रिक्शा चालकों को औरगंजेब की औलाद बताकर सम्पूर्ण श्रमिक वर्ग का अपमान कर रहा है मीडिया इस पर मौन हैबल्कि उसका बड़ा हिस्सा तालियां बजाने की मुद्रा में है। नागरिकता कानून से लेकर समान नागरिक संहिता तक की कवायद का एक ही मकसद है- मुसलमानों को दोयम दर्ज़े का नागरिक बना देना और इसके लिए एक ही तरीका हैबहुसंख्यक हिंदू समुदाय में उनके प्रति नफरत भर देना। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन इसी अभियान में लगे हैं। मीडिया भी इस नफरत को फैलाने-बढ़ाने में जोर-शोर से जुटकर उनके हाथ की कपुतली बन गया है।  

इसी खतरनाक प्रवृत्ति का परिणाम है कि आज हमारे देश में मुसलमानों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है। किराए का मकान पाने में उन्हें मुश्किलें पहले भी ती थी लेकिन अब तो उन्हें कॉलोनियों व अपार्टमेण्टोंसे निष्काषित किए जाने के लिए धरना-प्रदर्शन होने लगे हैं। जिन कॉलोनियों में चंदा एकत्र कर त्योहार सामूहिक रूप से मनाए जाते थेवहां मुसलमानों को उनमें शामिल करने से साफ इनकार कर दिया जा रहा है। कई कस्बों-शहरों में मुसलमान दुकानदारों को खदेड़ा जा रहा है तो कई जगह उनसे सामान न खरीदने की अपीलें की जा रही हैं। कांवर यात्रापथ में कोई मुसलमान दुकान नहीं खोल सकता। कुम्भ मेला क्षेत्र में दुकानों की नीलामी में मुसलमानों को भाग लेने से रोकने के लिए प्रदर्शन हुए। मुसलमानों के चूल्हे और फ्रिज में झांका जा रहा है कि वे क्या पका-खा रहे हैं। किसी भी चीज को गोमांस बताकर उनकी जान लेना आम हो गया है। जो हत्यारे हैंवे अभिनंदनीय हैं और भुक्तभोगी प्रताड़ित। प्रेम सबसे अधिक निशाने पर है। हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के का ब्याह दोनों परिवारों की सहमति से भी नहीं करने दिया जा रहा है। यह लव ज़िहाद करार दिया गया है। अतएव हिंदू धर्म रक्षा के लिए ऐसे ब्याह हिंसा के जो पर रोके जा रहे हैं। पुलिस आंख बंद कर लेती है या अभियुक्तों के पक्ष में ही खड़ी हो जाती है। इधर और भी खतरनाक प्रवृत्ति ने जोर पकड़ लिया है। देश भर में हिंदू संगठनों को जगह-जगह मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के सपने आ रहे हैं वे उन्हें सबूत बताकर अदालत में याचिकाएं दाखिल कर रहे हैं और अदालतें आनन-फानन में मस्जिदों का सर्वेक्षण करने के आदेश जारी कर रही हैं। मीडिया कोई सवाल नहीं उठा रहा हैबल्कि इस पागलपन में अतिउत्साह से शामिल है और सवाल उठाने वालों को धर्मद्रोहीदेशद्रोही घोषित कर रहा है।

यह हमारा हिंदुस्तान नहीं है। यह हमारी विरासत हरगिज नहीं है। यह साठ-सत्तर के दशक वाला हमारा अहाता नहीं है, जहां बाबूजी शहाबुद्दीन के हुक्के से परहेज करते थे लेकिन उनके सिर पर प्यार से साफा बांधते थे और दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते थे। जहां पंत जी की आचमनी का पानी शहाबुद्दीन के बच्चों की हारी-बीमारी दूर करता था और हिंदू औरतें गोदी के शिशुओं को लेकर जुमे के रोज मस्जिद के बाहर खड़ीरहती थीं कि नमाजियों की दुआओं से उनकी सेहत-सीरत बनी रहेगी। आज वे कौन लोग हैं जो दुष्प्रचार कर रहे हैं कि शाहरुख खान ने लता मंगेशकर के शव के पास खड़े होकर थूका थावे कौन लोग हैं जो कह रहे हैं कुछ होटल-ढाबे वाले थूककर खाना परोसते हैंये कौन लोग हैं और इनके इरादे क्या हैं?

...

ऐसा नहीं था कि पहले सब कुछ एक आदर्श व्यवस्था में चला करता था। साथ रहते थे तो कभी झगड़े भी होते ही थे। कूपमंडूकों के कारण या किसी साजिश के तहत छोटे-मोटे फसाद कभी हो पड़ते थे। हिंदू-मुसलमान ही नहींमुसलमान-मुसलमा और हिंदू-हिंदू भी लड़ते थे लेकिन शीघ्र ही सब फिर मिल-जुलकर जीवन-संघर्षों में जुट जाते थे। किसी के मन में नफरत की गांठ नहीं पड़ती थी। हमारा हिंदुस्तान अपनी भीतरी परतों में आज भी बाबू जी और शहाबुद्दीन और मुश्ताक अली के रिश्तों वाला है। वह विरासत आज भी इस देश की माटी में धड़कती है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। यह हमारे संगीतकलाओंवास्तुशिल्पपहनावे और खानपान में बेतरह घुला-मिला है लेकिन कई दशकों से सक्रिय ताकतें अब इतनी बढ़ गई हैं कि इस विरासत को मिटा डालने पर उतारू हैंवे अपने टुच्चे राजनैतिक स्वार्थों के लिए हमारी साझी हिंदुस्तानियत में नफरत का जहर घोल रही हैं और झूठ का सहारा लेकर भोली-भाली जनता को धर्म के नाम पर बहका रही हैं इन ताकतों की पहचान करनाउनके मुखौटे उतारना और उनकी साजिश को नाकाम करना जरूरी है। जो सामान्य जनता धर्म को खतरा होने के दुष्प्रचार में अपनी सदियों पुरानी विरासत भूल रही हैउसे समझाना होगा कि अगर धर्म को कहीं से खतरा है तो इन्हीं नफरत फैलाने वालों से है नफरत से समाज को बांटने-तोड़ने का यह खेल केवल सत्ता हासिल करने और उस पर काबिज रहने के लिए हैधर्म के लिए नहीं। धर्म का सबसे बड़ा नुकसान तो वे ही कर रहे हैं। 

अपनी साझी विरासत की पताका के साथ यह संदेश लेकर जन-जन के बीच जाना ही आज सबसे बड़ी आवश्यकता और चुनौती भी है।

('कथादेश' मासिक के जुलाई 2025 अंक में  'हमारी हिंदुस्तानियत'  स्तम्भ के अंतर्गत प्रकाशित)