Wednesday, August 06, 2025

भूत होते गांव- कटु यथार्थ से रू-ब-रू कराता उपन्यास

— दिवा भट्ट 

एक भरा- पूरा, महकता- चहकता, हंसता- गाता गांव एक दिन जनहीन हो गया तो जनों के साथ वहां के पालतू पशुओं का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। बचे हैं  जंगली हिंसक पशु; जो गांव के सन्नाटे में अपनी भयावह आवाजें भरते रहते हैं। गांव भुतहा हो गया है। भूत बन गया है। मनुष्य और उसके प्रिय पशुओं की संख्या शून्य हो जाने से ठीक पहले जो अंतिम आदमी अपने एकमात्र साथी शेरू नामक कुत्ते के साथ वहां बचा है, उसकी मनःस्थिति कैसी हो सकती है? मनुष्य के स्थान पर वहां यादें हैं, केवल यादें, जीवंत अतीत की यादें। उन्हें दोहराते रहना उसका दैनिक क्रम बन गया है। अतीत की अलग-अलग कथाओं की खट्टी-मीठी स्मृतियां ही उसका वर्तमान बनाती हैं और ‘भूतगांव’ नामक उपन्यास के कथानक को रचती हैं। गांव खाली हुआ तो क्यों हुआ? कैसे हुआ? इसकी अनेक छोटी-छोटी कथाएं-उपकथाएं हैं। गांव में बचा हुआ यह अंतिम आदमी एक सेवानिवृत्त फौजी आनंद सिंह शेरू के साथ गांव में घूमता हुआ जिस-जिस घर के पास से गुजरता है, उस-उस घर के पूर्व निवासियों की कथाएं शेरू को सुनाता है। गांव के अतीत और वर्तमान की दास्तान सुनाने के साथ -साथ वह अपनी प्रतिक्रियाएं देते हुए उनका विश्लेषण भी करता चलता है। ये अनेक कथाएं धीरे-धीरे एक परिवार पर केंद्रित होकर मुख्य कथा के पात्रों से जुड़ जाती हैं। 

पलायन की इस कथा के दो छोर हैं। एक छोर गांव में है; जहां से पलायन हुआ है और दूसरा शहर में है; जहां पलायन करने वाले व्यक्ति पहुंचे हैं। ये दोनों कथाएं अलग-अलग चलती हैं। प्रारंभिक अध्यायों में उनका परस्पर कोई जुड़ाव दिखाई नहीं देता। एक ओर अपनी अंतिम अवस्था गांव में व्यतीत कर रहा एकाकी आनंद सिंह है; तो दूसरी ओर शहर के एक बड़े निजी अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती एक लकवाग्रस्त वृद्ध पड़ा है, जिसकी देखभाल में अस्पताल के डॉक्टर- कर्मचारी घबराये- हड़बड़ाये- से जुटे पड़े हैं। वे सभी अत्यधिक सतर्क और तत्पर हैं, क्योंकि उसके इलाज के लिए अमेरिका से मुंह मांगी धनराशि भेजने वाला उसका बेटा प्रतिदिन वीडियो कॉल करके अपने पिता का हाल-चाल पता करता है। रोगी की पहचान नंबर 21 है। आगे जाकर नंबर 21 मिस्टर वी० एस० नेगी बन जाता है और कथा के अंतिम अध्यायों में पहुंच कर वही वीरेंद्र हो जाता है; जिसकी जड़ें जाकर आनंद सिंह से मिल जाती हैं। कथा की यह दोनों धाराएं लगभग पूरे उपन्यास में परस्पर मिलकर कोई ताना-बाना नहीं बुनतीं; बल्कि समानांतर आगे बढ़ती- बढ़ती समीप आकर एक होती प्रतीत होती हुईं भी अंत में एक नहीं हो पातीं। एक ही वृक्ष- मूल की दो भिन्न शाखाएं भिन्न ही बनी रहती हैं।

कथा उस गांव की है; जो जनसंख्या के ग्राफ में छोटा होते-होते एक दिन भूत बन जाता है। भूत अर्थात् जो कभी था और अब नहीं है। लोक की सामान्य समझ के अनुसार प्रेतात्मा भी भूत कहलाती है। ‘भूतगांव’ शीर्षक दोनों अर्थों का सार्थक संकेत देता है। पहले का तात्पर्य एक ऐसे गांव से है; जो कभी जीवंत था, मगर अब मरकर भूत बन गया है और सबको डरा रहा है। दूसरे अर्थ के अनुसार एक ऐसा गांव; जो कभी आबाद था, जिसमें मनुष्यों तथा अनेक मनुष्येतर प्राणियों का वास था। वे सब अब नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्माएं भूत बनकर गांव में यहां- वहां भटक रही हैं। खालीपन का यह डरावना वातावरण किसी को भी हताश और आतंकित कर सकता है। भूत बन रहे गांव के मृतप्राय वर्तमान के साथ-साथ एक समय के जीवंत अतीत को हम आनंद सिंह की आंखों से देखते हैं और शेरू के कानों से सुनते हैं। शेरू के साथ आनंद सिंह का संवाद इतना सीधा सहज और आत्मीयतापूर्ण है कि लगता ही नहीं कि यह संवाद एक मनुष्य और एक पशु के बीच हो रहा है। यह पशु मनुष्यों से अधिक संवेदनशील, अधिक बुद्धिमान और अधिक निष्ठावान है। अपने स्वामी की हर बात समझता है। साथ ही अपनी बॉडी लैंग्वेज से अपने भाव भी मालिक को अच्छी तरह से समझा लेता है। कभी आंखों से टुकुर-टुकुर ताकते हुए, कभी उसके पांवों में अपने नाक और थूथन रगड़ते हुए। कभी पंजे से जमीन खरोच कर तो कभी मालिक के आगे- पीछे चलकर। कभी बीच रास्ते में अड़ कर खड़े रहकर, तो कभी तेजी से भाग- भाग कर और कभी जोर-जोर से भोंक कर वह अपना आग्रह एवं प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता रहता है। आनंद सिंह भी समझ जाता है कि वह क्या कहना चाहता है। यहां तक कि वह किस घर का वृतांत सुना चाहता है। उसे गांव के लगभग प्रत्येक घर के स्त्री- पुरुषों की बातें सुना चुके आनंद सिंह के अपने ही घर का आख्यान अनकहा रह जाता है तो शेरू घर के दरवाजे पर अड़ जाता है। तब आनंद सिंह उसे अपने घर की गाथा भी सुनाने लगता है। इसके साथ ही कथा के उलझे धागे सुलझने लगते हैं। तब पता चलता है कि नगर- कथा में जो घटनाएं घटित हो रही हैं; उसके पात्रों की डोर भी इसी घर से बंधी हुई है।

शेरू से बातियाता आनंद सिंह सिर्फ घरों और उसके निवासियों के वृत्तांत ही नहीं सुनाता; गांव की प्रकृति, पर्यावरण तथा वहां के मौसम के हाल भी सुनाता है और उसीके अनुसार अपनी व शेरू की गतिविधियों के सूचन भी करता रहता है। गांव की वर्तमान दशा- दुर्दशा का वर्णन करते हुए वह इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार वर्तमान व्यवस्था तथा समाज की कुरीतिपूर्ण परंपराओं पर भी तीखे व्यंग्यात्मक प्रहार करता है। कुरीतियों में जातिगत भेदभाव प्रमुख है, जो सामाजिक सौहार्द तथा सामंजस्यपूर्ण विकास में सड़न पैदा करता है। हमारे संस्कारों में गहरी जड़ें जमा चुके भेदभाव से उत्पन्न विडंबनाओं का उद्घाटन उद्वेलित करता है। आनंद सिंह सामाजिक- राजनीतिक व्यवस्थाओं की अनुचित नीतियों के साथ-साथ गांव, पर्वत, प्रकृति तथा पर्यावरण का अनियंत्रित दोहन करती कंपनियों तथा गांव की स्थिति सुधारने के स्थान पर यहां से पलायन कर जाने वालों पर भी कभी सीधे तो कभी व्यंग्य बाणों से प्रहार करता है;

"ऐसा भी कोई विकास हुआ जो हमको गांव से, पुरखों की जमीन से उखाड़ दे? कहते हैं तुम्हारा विकास कर रहे हैं और पूरा का पूरा गांव बेच देते हैं। कहते हैं तुम्हारा विकास करने आए हैं और पहाड़ खोद-खोद कर खड़िया, लोहा, मैग्नीसाइट जाने क्या-क्या निकाल कर ले जाते हैं। कहते हैं हम तुम्हारा विकास कर रहे हैं और नदी को बांधकर गांव के गांव डुबो देते हैं। ऐसे कारनामे लच्छू कोठारी की संतानों के अलावा और कौन करेगा?” लच्छू कोठारी और उसकी मूर्ख संतानों के अनेक किस्से कुमाऊं भर में दंतकथाओं के रूप में कहे- सुने जाते हैं; जो प्राय: किसी व्यक्ति के अव्यावहारिक तथा मूर्खतापूर्ण क्रियाकलापों के दृष्टांत बन जाते हैं। इसी भांति बाघ का रूपक माफियाओं के आतंक को रेखांकित करता है। गांव में बाघ के आवागमन से उत्पन्न आतंक की बात करते हुए आनंद सिंह कहता है; "बाघ ही बाघ हो गए यार, चारों तरफ। मैं इस एक बाघ के लिए परेशान था, अब और भी भयानक बाघ आ रहे। यह कंपनी हम सब के लिए बाघ ही तो हुई —- खा जाएगी पूरे गांव को।”

इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता उपन्यास का यह केंद्रीय पात्र जब अपनी बातें कहते-कहते सरक कर सीधे-सीधे लेखक की वाणी बोलने लगता है और जल, जंगल, जन, जमीन के मुद्दों का वैचारिक विश्लेषण करने लगता है तो कहीं -कही वह कथा पर भारी पड़ता भी प्रतीत होता है। वस्तुत: ‘दावानल’, ‘देवभूमि डेवलपर्स’, ‘टिकटशुदा रुक्का’ और ‘बाघैन’ जैसी कृतियों के लेखक नवीन जोशी को पहाड़ के समाज, संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण के चिंताजनक प्रश्न इतनी गहराई तक प्रभावित करते हैं कि वे उनकी प्रत्येक रचना के प्रेरक बिंदु बन जाते हैं। पहाड़ के गांव, उनकी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं, सामाजिक सौहार्द, विपुल संसाधन संपन्न सुंदर प्रकृति; जिसमें भूमि, पर्वत, वन, वृक्ष, नदियां आदि सब कुछ अपने वैभव के साथ सम्मिलित हैं; उनके सरकारी तथा गैर सरकारी माफियाओं द्वारा किए जा रहे अनियंत्रित दोहन और प्रदूषण की चिंता की छाया उनकी प्राय: प्रत्येक कृति पर छाई रहती है। लेखक के अंतर्मन के ये गहरे सरोकार इस रचना पर भी इस तरह व्याप्त हैं कि कई बार लगता है जैसे कथा खुद को कहने की अपेक्षा इन प्रश्नों के विश्लेषण में अधिक व्यस्त हो रही है। 

कथानक के मूल सूत्र का जो दूसरा सिरा शहरी जीवन की माया में उलझता है; उसके पात्रों का पलायन धन कमा कर सुख- सुविधापूर्ण जीवन बिताने की कामना से प्रेरित सामान्य पलायन से भिन्न है। एक किशोर जोड़े के मुग्धावस्था में जन्मे प्रणयाकर्षण से आरंभ होकर यह कथा अनेक उतार -चढ़ाओं से होती हुई अंत में क्षोभ और विषाद की विडंबना तक पहुंचाती है। जातिगत भेदभाव की रूढ़ियों में जकड़े हुए ग्रामीण समाज में अपने संबंध की अस्वीकृति ही नहीं, असहनीय दंड को  भी सुनिश्चित मानकर गांव से भाग जाने वाले इस युगल की कथा एक भिन्न परिवेश में आगे बढ़ती है। प्रेम की उद्दाम लहरें यथार्थ से टकराती हुईं कभी उपेक्षा प्रताड़ना और कभी विवशता का भार उठाकर बहती हुई जिस स्थिति तक पहुंचाती है, उसे प्रेम की निष्फलता नहीं कहा जा सकता तो सुखद परिणति भी नहीं। भीतर जड़ जमा कर बैठे हुए रुढ़ संस्कार घुन की तरह सुखी गृहस्थी के खलिहान को भी खोखला करने लगते हैं। अपने स्वजनों तथा मातृभूमि का स्थाई विछोह भीतर से कुरेदता रहता है। दूसरी ओर गांव का परिवार भी अपने ही लोगों द्वारा मिले निष्कासन तथा घोर अपमान की आग में जलते रहने को विवश है।

परस्पर भिन्न परिवेशों में समानांतर चलती इन दो उपकथाओं का भाषा- शिल्प भी अपने-अपने परिवेश के अनुरूप है; जो रचना को सहजता एवं विश्वसनीयता प्रदान करता है। कथा की ऐसी बुनावट अपने आप में एक बड़ी चुनौती भी है और कसौटी भी। इसकी सफलता ही ‘भूतगांव’ रचना को विशेष प्रभावशाली बनाती है। नगर परिवेश में आगे बढ़ते घटनाक्रम में समाहित औत्सुक्य कथानक को गति प्रदान करता है; जबकि ग्रामीण परिवेश की कथा में गति की अपेक्षा स्थिति की गहन पड़ताल विशेष रूप से की गई है; जो लेखक के गंभीर सरोकारों से रूबरू करा कर झकझोर देती है। इन सरोकारों के मूल में निहित पलायन का दर्द कथा का बीज मंत्र होते हुए भी यहां पलायन से जुड़े अनेक कारणों में से एक कारण को विस्तार दिया गया है, फिर भी वह विभिन्न कारणों से हो रहे पलायन जनित दुष्परिणामों की विस्तृत पड़ताल करता है।

एक ओर सुख-वैभव- प्राप्ति की लालसा स्थानीय निवासियों को पहाड़ छोड कर जाने को विवश करती है; तो दूसरी ओर से शहरों के बड़े-बड़े पूंजीपति अपनी पूंजी बढ़ाने के लालच से पहाड़ों की प्राकृतिक संपदा को छिलने-खोदने- बांधने- लूटने में जुट जाते हैं। पलायन कर जाने वाले अपने पीछे वीरान घर और बंजर धरती का विस्तार छोड़ जाते हैं; तो स्वर्गिक सुख के सपने लेकर जहां पहुंचते हैं वहां भी इन्हें सुख के फूलों की मखमली सेज नहीं मिलती। सुविधा एवं समृद्धि के झूलों में झूलते दिखाई देते इन पात्रों के भीतर भी व्यथा-निराशा और असमंजस की चिंता धारा बहती रहती है। उनकी व्यथा के अनेक रूप हैं। स्वजनों से वियोग तथा प्यारी मातृभूमि से टूटने-छूटने की पीड़ा तो है ही; सुख- समृद्धि के साथ समाहित शुष्क और कठोर यथार्थ को अंगीकार करने की विवश पीड़ा भी सम्मिलित है। विडंबना यह है कि पहली पीढ़ी शहर के सुखों के लिए गांव छोड़ती है तो उनके बाद की पीढ़ी भौतिक सुखों की पराकाष्ठा का स्वाद चखने के लिए देश छोड़कर विदेश चली जाती है। वहां के तंत्र में वह‌ ऐसे फंस जाती है कि अपने मरणासन्न माता-पिता की सेवा करना तो दूर; उन्हें देखने भर का भी अवकाश ‌उन्हें नहीं मिलता। वे पैसे भेज कर माता-पिता की सेवा तो खरीद लेते हैं, किंतु न उनको सुख-संतुष्टि दे पाते हैं; न उनका जीवन बचा पाते हैं। 

‘भूतगांव’ उपन्यास में नवीन जोशी ने उत्तराखंड के एक गांव को केंद्र में रखकर जिन सरोकारों पर सोचने के लिए उद्वेलित किया है, वे समग्र देश के संदर्भ में विचारणीय हैं। गांवों से बढता पलायन तथा शहरों का बढ़ता आकार एवं घनत्व आज पूरे भारत में अनेक समस्याओं को बढ़ा रहा है। लगभग सभी राज्यों में इस पर चिंतन -मनन चल रहा है, लेकिन पहाड़ी प्रदेशों में यह जिस तीव्र गति से हो रहा है और प्राकृतिक,सामाजिक तथा सांस्कृतिक असंतुलन के जिन नये प्रश्नों को जन्म दे रहा है, वे अत्यधिक चिंताजनक हैं। सीमांत गांवों का खाली हो जाना देश की सुरक्षा की दृष्टि से भी चिंतनीय है। यह कथाकृति इन सरोकारों पर विचार मंथन कर समाधान खोजने को भी प्रेरित करती है।

उपन्यास जैसी साहित्यिक विधा में ऐसे सरोकारों की प्रस्तुति कटु यथार्थ से रूबरू कराने के साथ ही यह प्रश्न भी खड़ा करती है कि अभेद्य बनी हुई इस दीवाल में क्या कोई छेद नहीं हो सकता; जिससे आशा की कोई किरण प्रविष्ट हो जाए? गांव में बाघ का आना द्विअर्थी है। उसका गाय, बकरी और कुत्तों को शिकार बनाते- बनाते मनुष्यों तक पहुंच कर पूरे गांव को आतंकित करने का क्रम कथा नायक की एकलता को विक्षिप्तता तक पहुंचा देता है। दूसरी ओर शहर अथवा विदेश में रहती युवा पीढ़ी का अपनी जड़ों की खोज करते हुए गांव तक पहुंचते ही कंप्यूटर आधारित अद्यतन प्रौद्योगिकी के प्रतीक बने मार्क जुकरबर्ग के देश जाने के लिए बेचैन हो जाना केवल पलायन की विवशता है? या यह भूमि के स्थान पर नभ की ओर ताकने वाली बदली हुई प्राथमिकताओं की ओर संकेत करता है।

लेखकीय कौशल की सफलता यह है कि पिछड़े कहलाते गांव और तथाकथित विकसित शहर की यह परोक्ष तुलनात्मकता पैबंद बन कर कथानक पर आरोपित नहीं होती; बल्कि यह परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य की निर्णयात्मकता की स्वाभाविक परिणति बनकर आती है। इसीलिए यह भीतर तक हिला कर रख देती है। 

परस्पर भिन्न प्रतीत होते ‘भूतगांव’ के इन दोनों वृत्तांतों के समानांतर कथ्य को लेखक नवीन जोशी की कहन शैली विशेष आकर्षक बनाती है। ग्रामीण परिवेश के वृत्तांत- वर्णन में लोकोक्तियों, लोक विश्वासों की उक्तियों तथा लोकगीतों की पंक्तियों के समावेश शिल्प को कथा की पृष्ठभूमि के अनुरूप सहज एवं रोचक बनाने के साथ ही कथ्य की गहराई तक पहुंचने में भी सहायक बनते हैं-

“राजा की चाल और बारिश की धार, अपने मन की हुई।"

“पानी से धारदार कोई औजार नहीं होता। उसे ठीक से रास्ता देना पड़ता है।"

“बारिश को दोष देते हैं। अरे, उसका काम बरसना हुआ। पहाड़ कच्चे हैं तो उसकी गलती है क्या?

"मकान अपने रहने वालों को कभी नहीं दबाता। आज भी इसमें कोई रह रहा होता तो यह नहीं ढहता, शेरू!"

”दही देने उसके घर, नमस्कार मेरे घर!” 

"गांव की सूरत ग्वैट (रास्ते) से! सही किस्सा हुआ।"

"द्यो लागो दणमण, बुड़ी भाजी बण-बण। ले बुड़ी खाजा, त्यार गोरु भाजा।” (वर्षा बरसी दनमन, बुढ़िया भागी बन-बन। ले बुढ़िया खाजे, तेरी गायें भागीं।”

“मड़ुवा (रागी/ नाचनी) राजा, सेंको तब ताजा।”

"जिसकी ज्वे (जोरू) नहीं, उसका क्वे (कोई) नहीं।"

"खाली हाथ मुख में नहीं जाता।”

"मन कहता है दूध भात खाऊंगा, कर्म (भाग्य) कहता है साथ लगा रहूंगा।"

"आंसू पोछ्या रूमालै ले, हिया पोछूं क्या ले?” (आंसू तो रुमाल से पोंछ लिए, हृदय  को किससे पोंछूं?)

(चुन्नी भौजी के ककिया ससुर) "थे बड़े घुन्ना, मुख से हंसते और पूंछ से डसते थे।” 

अंचल विशेष के लोक विश्वासों का समावेश  कथन को चुटीला- चटपटा बनाने के साथ ही गहन संवेदनीय भी बनाता है। स्थानीय समाज में एक यह विश्वास भी प्रचलित है कि नवजात शिशु की नाभि से जुदा हुई नाल को फेंका नहीं जाता; बल्कि उसे घर की देहरी की चौखट के ऊपर रख दिया जाता है। विश्वास है कि ऐसा करने से उस शिशु को जीवन में कभी भूखे नहीं रहना पड़ता। वह कहीं भी जाए; खाने के समय पहुंच ही जाता है। विडंबना यह है कि आज वही शिशु तथा शिशु से युवा और वृद्ध हो रहे लोग अपनी उसी देहरी को छोड़कर न जाने कहां-कहां चले गए हैं। चौखट उनकी नाभि-नाल को संभाले हुए वहीं खड़ी है। छोड़ दिए गए ये घर एक दिन गिर जाते हैं तो उनमें संभाली हुई वह नाल भी उन्हीं के साथ दब जाती है। मनुष्य साथ छोड़ देता है, लेकिन चौखट और नाल एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। आनंद सिंह शेरू से कहता है; "यहां जन्मे बच्चों की नाभि-नाल उस चौखट के ऊपर धरी रह गई होगी, जो आज मलबे के नीचे दब गई है।” 

आनंद सिंह गांव की इन स्थितियों पर ही टिप्पणी नहीं करता; वहां की प्रकृति के विविधतापूर्ण सुंदर दृश्यों को देखते हुए अपने हृदय में उत्पन्न होते आल्हाद- विषाद के भावों की चर्चा भी शेरू से ही करता है; (और किससे कहे?)

"नहाए- धोए, तरो ताजा, कितने खुश हो रखे पहाड़! कुहरा ऐसे लपेट लिया जैसे पशमीना। भीगते- भीगते जाड़ा लग जाता होगा। सो, चिलम फूंकने लगे! चौमास में क्षण-क्षण रूप बदलते हैं पहाड़! आहा, बादलों के साथ लुका-छुपी का कैसा खेल हो रहा ! हा – –हा – –हा – –। देख-देख, बादल का वह शैतान भूरा टुकड़ा पहाड़ के सिर पर थप्पी देकर भाग गया और नीचे से उठा सफेद कुहरा उसका पीछा करने दौड़ पड़ा है।"

वर्षा ऋतु में पहाड़ों के ऐसे अगणित मनमोहन रूप किसे अह्लादित नहीं करते? सीधी-सरल बातें करने वाला ग्रामीण आनंद सिंह हो या सामाजिक सरोकारों को समर्पित लेखक नवीन जोशी, अथवा प्रकृति के अद्वितीय चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत, जिन्होंने ऐसे दृश्यों को देख कर ही लिखा था; 

"पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल- पल परिवर्तित प्रकृति वेश।" 

लेखक की कल्पनाशीलता प्रकृति के इन सुंदर चित्रों को विविध प्रकार के दृष्टांतों, रूपकों और उपमानों से सजाने के बाद वैचारिकता के धागे में गूंथ कर सामने रखती है तो गद्य भी रसप्रद बन कर काव्य- सौंदर्य का आनन्द देने लगता है।

('बनास जन' ,सम्पादक- पल्लव के अंक 81, जून 2025 में प्रकाशित) 

No comments: