Monday, August 04, 2025

साझा विरासत में सेंध लगाने वाले कौन हैं और उनके इरादे क्या हैं?

1960-70 के दशक में हम लखनऊ के जिस मुहल्ले में रहते थेहां मेरे बाबू जी पण्डित जी कहलाते थे। वे सुबह-शाम पूजा करतेचंदन-रोली लगाते और शौचालय जाते समय दाहिने कान में तीन बार जनेऊ लपेटते थे। शौचालय और नल पूरे अहाते का सार्वजनिक थाजहां कोई एक दर्ज़न क्वार्टरों में अलग-अलग जाति-धर्मों के लोग रहते थे। जब बाबू जी नल से पानी की बाल्टी भरकर अपने क्वार्टर की ओर आते तो दूसरे लोग ऐहतियातन अपने बच्चों को हिदायत देते कि दूर रहो। दो मुस्लिम परिवार थे। वे विशेष रूप से ध्यान रखते कि उनके बच्चे गलती से भी पण्डित जी की बाल्टी न छू लें। मैंने बाबू जी को कभी हटो-हटो’ कहते नहीं सुना। 

अहाते के बीच एक बड़ा छतनार नीम का पेड़ था। शाम को काम से लौटने और खा-पी चुकने के बाद सभी पुरुष नीम के नीचे बैठ जाते। बाबू जी नारियल वाला अपना हुक्का भरकर लाते और गुड़गुड़ाते। शहाबुद्दीन जीअपनी चारपाई पर बैठे-बैठे जमीन पर रखे हुक्के की लम्बी नली मुंह से लगाए हुए धुआं उड़ाते रहते। बाबू जी बीच-बीचे में नारियल मे से चिलम निकालकर दूसरे साथियों को पकड़ाते। पानी भरा नारियल दूसरे हाथों में नहीं देते थे। बाबू जी का हुक्का वहां बैठे दो-तीन और लोग पीते थे लेकिनशहाबुद्दीन जी का हुक्का साझा नहीं किया जाता था। हुक्का पीते-पीते सभी अपने काम-काजघर-परिवार के दुख-दर्दहारी-बीमारीगांव से आई चिट्ठियों में दर्ज़ अपेक्षाओं के बारे में चर्चा करतेऔर सलाह लेते। ज़्यादातर लोग सूदखोर पठान के कर्ज़दार थे। कर्ज़ और पठान की बात आती तो वे सब कुछ देर मौन रहकर नीचे ताका करते और फिर जै राम जी की’ कहते हुए सोने चले जाते। जाड़ों और बरसातों में सब अपनी कोठरियों में सोते लेकिन गर्मियों की रातों में पुरुष अपनी चारपाइयां नीम के नीचे चारों और गा लेते। पहले सभी मिल-जुलकर अहाते की ईटों का ताप शांत करने के लिए बाल्टियां भर-भर कर पानी छिड़कते और जम्हाइयां लेते हुए सो जाते। उमस भरी रातों में बेचैन शहाबुद्दीन जी काउच्छवास या अल्लाह’ सुनाई देता तो किसी खाट से उनींदा लेकिन बेचैन स्वर उठता- ‘हे रामइन घमौरियों से कैसे चैन मिले! शहाबुद्दीन खड़ाऊ पहनते थे। रात में दो-एक बार पेशाब के लिए उठते तो पूरा अहाता खट-खट-खट से गूंज उठता। लोगों की नींद टूट जाती। एक राजिंदर जी थे जो शहाबुद्दीन जी को अक्सर टोक देते- “मियांये रात में खट-खट जरा कम किया करो।” 

अमां यारखड़ाऊं तो खट-खट करबै करी।” शहाबुद्दीन मजा लेते।

राजिंदर दहला मारते- “और जब चुपके से कोठरिया में घुसत हौतब नाहीं करत खड़ाऊं खट-खट! हांनाहीं तो!

शहाबुद्दीन जी दाढ़ी में मुस्काते तो कुछ ठहाके भी लग जाते थे। 

बदरुद्दीन साहब का परिवार हमारी कोठरी से तनिक दूरी पर नीचे की तरफ था। वे बड़े नफासत पसंद थे और कम घुलते-मिलते थे। शायद इसीलिए उनके नाम के साथ साहब जो दिया जाता था। मैं चौथी-पांचवीं में पढ़ता रहा होऊंगा। एक दिन बदरुद्दीन साहब के यहां कई रिश्तेदार जुटे। जुगनू नाम वाले उनके छोटे-से बेटे का खतना थाजो हम बच्चों के लिए समझ में न आने वाली अजूबी बात थी। हम नामकर्णछठीअन्नप्राशनवगैरह जानते थे। उस दिन उनके यहां बड़े पतीलों-देगचियों में गोश्त पका। उसकी खुशबू फिजां में फैल गई और हमारे नथुनों से होती हुई जिह्वा पर रस बरसाने लगी। बदरुद्दीन साहब खुद हर दरवाजे पर हाजिर होकर बच्चे के खतने की खुशखबरी और दावत का न्योता दे गए थे लेकिन कोई सवाल ही नहीं था कि पण्डित जी मुसलमान के यहां खाने जाएं और वह भी गोश्त! ईद की सिवैयां हम बच्चे अवश्य खा लेते थे। खैरबाबू जी ने बदरुद्दीन साहब को बधाई और बच्चे को आशीर्वाद दिया। 

उसके बाद मेरे लिए जो अजूबा घटा वह यह कि अगले ही इतवार को बाबू जी झोले में छुपाकर एक पाव गोश्त खरीद लाए। उस दिन चूल्हे में लकड़ी जलाने की बजायकोयलों वाली अंगीठी सुलगाई गई। उसे भीतर की कोठरी में खिड़की के पास रखकर पतीली में गोश्त भूना गया। पतीली के मुंह पर ढक्कन की तरह रखे कटोरे में पानी भरकर बाबू जी दरवाजे में ताला लगाकर मेरा हाथ पकड़कर बाहर निकल गए। थोड़ी-थोड़ी देर में हमलौटतेबाबू जी ताला खोलते, जल्दी से पतीली में करछुल चलातेकटोरे में गरम हो चुका पानी पतीली में डालते और फिर ताला लगाकर आस-पास निकल जाते। यह क्रम कई बार दोहराया गया। उस दिन दरवाजे में भीतर से सांकल चढ़ाकर पिता-पुत्र ने वह दावत उड़ाई। चूसी गई हड्डियां एक कागज में लपेटकर बाबू जी ने अपने झोले में छुपा दीं (जिसे दूसरे दिन दफ्तर जाते हुए कहीं दूर फेंका होगा) और मुझे समझाया कि किसी को बताना नहीं कि क्या पकाया-खाया। उसके बाद पंडित जी ऐसी ही सावधानी से महीने-दो महीने में किसी छुट्टी के दिन दावत उड़ा लेते

इजा (मां) दो-चार साल में कभी जाड़ों में पहाड़ के गांव से लखनऊ आती थी। दोपहर में जब मर्द अपने-अपने काम पर गए होते और घर का काम-काज निपट चुका होतातब खुले अहाते की धूप में चटाई बिछाकर महिलाओं की महफिल जमती। स्वटेर बुने जातेअमरूद-मूंगफली खाए जाते और सुख-दुख बांटे जाते। शहाबुद्दीन और बदरुद्दीन साहब की बीवियां भी अपनी दरी या चटाई के साथ उसमें शामिल होतीं और कोई नई बिनाई या अचार बनाने की विधि सिखातीं। इजा जब गांव लौट जाती तो अपनी चिट्ठियों में लखनऊ के उस अहाते के सभी लोगों का हाल पूछतीं। मुशई राठ (मुस्लिम परिवार) भी ठीक होंगेयह लिखना नहीं भूलती थी।हर इतवार की सुबह बाबू जी की एक ड्यूटी शहाबुद्दीन जी का साफा बांधने की होती। वे चीफ साहब के खलासी थे और लाल चोगे पर साफा बांधकर फ्तर जाते थे। शनिवार की रात उका साफा खुलता, लम्बा सफेद कपड़ा धोकर रात में सुखाया जाता और सुबह वे हमारे दरवाजे पर हाजिर हो जाते। बाबू जी साफा बांधने में उस्ताद थे और कई लोग अपना साफा बंधवाने उनके पास आते रहते थे। लोग कहते, पंडित जी का बांधा साफा पूरी हफ्ते टाइट बना रहा है। बाबू जी भी साफा पहनते थे और अपना साफा शीशे में देखकर खुद बांध लेते थे। इतवार की सुबह बाबू जी हाबुद्दीन जी को स्टूल पर बैठाते और फिर चारों ओर घूम-घूमकर उनके सिर पर बड़े इतमीनान से साफा बांधते। उनकी दाढ़ी का कोई लम्बा बाल साफे के जोड़ में न फंस जाएयह सावधानी विशेष रूप से बरतनी पड़ती थी।  

हमारे अहाते के पीछे थोड़ी दूर पर एक मजार थी। उसे गनी बाबा की मजार कहा जाता था। बृहस्पतिवार को वहां बहुत सारे लोग बताशे चढ़ाने और लोबान जलाने जाते थे। शहाबुद्दीन और बदरुद्दीन साहब के साथ बाबू जी भी वहां जाते थे। अक्सर मुझे भी साथ ले जाते थे और परीक्षा के दिनों में बराबर याद दिलाते थे कि गनी बाबा की मजार से होकर इम्तहान देने जाना। इजा की चिट्ठियों में भी हिदायत होती थी कि गनी बाबा की मजार पर जाना भूलना नहीं। वर्षों बाद जब हम वह अहाता छोड़कर पहले महानगर और फिर दूर गोमती नगर रहने चले गए थेतब भी बाबू जी किसी-किसी गुरुवार को दो-दो टेम्पो बदलते हुए बताशे और लोबान लेकर गनीबाबा की मजार पर जाया करते थे। उदयगंज चौराहे के पास ही एक पंत जी रहते थे। घंटों पूजा पाठ करने वाले देवी भक्त पंत जी की आचमनी का पानी रोग-दोष नाशक माना जाता था। शहाबुद्दीन जी के बच्चों की बीमारी में भी पंत जी के यहां से पूजा का पानी मंगवाया जाता था। उदयगंज चौराहे पर ही एक मस्जिद थी। जुमे की नमाज के समय हिंदू-मुस्लिम औरतें गोदी में छोटे-छोटे बच्चे लिए मस्जिद के आगे कतार बनाकर खड़ी हो जाती थीं। मस्जिद से निकलकर नमाजी बच्चों के माथे पर फू-फू करते हुए चले जाते।

मैं ऐसे ही माहौल में लखनऊ में बड़ा हुआ। नौ वर्ष की उम्र में पहाड़ ले जाकर पूरे विधि विधान से गले में छहपल्ली जनेऊ डालकर मुझे भी द्विज बना दिया गया था। मैं सुबह शाम दाहिने हाथ पर जनेऊ लपेटकर गायत्री मंत्र का पाठ करताचंदन-टीका लगाता और शिखा पर गांठ लगाकर स्कूल जाता था लेकिन कल्लूजुम्मनजुगनूमोहनअमर और दूसरे कई दोस्तों के साथ कंचे-पिन्नीछुपन-छुपाईगेंदताड़ी खेलता और पतंग उड़ाता। इण्टर कक्षाओं तक आते-आते चंदन-टीकाचोटी, जनेऊ गायब हो गए और हम कबाब-बिरयानी-नहारी-कुल्छा के अच्छे-खासे खवैया बन गए। लखनऊ की साझी रवायत हम जैसे पंडितों की रग-रग में दौड़ने लगी। जैसे-जैसे पैर खुलेलखनऊ ने हमें पंड़ाइन की मस्जिद दिखाईऔर अलीगंज के हनुमान मंदिर के शिखर पर चमकते चांद-तारे ने हमें गर्व से भर दिया। हमारे डेरे से कुछ ही दूर बेगम अख्तर की ठुमरियां गूंजती थी। हमने वाजिद अली शाह की नज्में पढ़ींगुज़िश्ता लखनऊ (अब्दुल हलीम शरर), आग का दरिया (कुर्रतुल ऐन हैदर) और आधा गांव (राही मासूम रजा) बार-बार पढ़े बनारस में बिस्मिल्ला खान साहब को गंगा से बेपनाह प्यार करते हुए भोले बाबा के सम्मान में शहनाई बजाते और उस्ताद जाकिर हुसैन को तबले पर शिवजी का डमरू बजाते देखा-सुना तोहमने अपने हिंदुस्तान पर गर्व किया। 

...वह 1978 का साल था या 1979 लग गया था। सपनों और उमंगों से भरे हम कई युवा पत्रकारिता को समाज और सरकार की चौकीदारी की तरह अपनाए हुए थे। स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग में अचानक दो पत्रकारों की ऊपर से भर्ती हो गई। गुप-चुप सुनने को मिला कि संघ के लोग हैं और लालकृष्ण आडवाणी (तत्कालीन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री) के राष्ट्रव्यापी अभियान का हिस्सा हैं। उनमें से एक ने एक दोपहरजब हम सामूहिक रूप से दफ्तर में खाना खा रहे थेमेरा हाथ पकड़कर किनारे खींचा और धीरे से लेकिन क्रोध के साथ कहा- “जोशी जीआप मलेच्छ के साथ कैसे खा लेते हैं? पहले मैं चौंका और कुछ न समझा,फिर उनका इशारा समझा तो हतप्रभ और जड़ हो जाने के लिए काफी था। दरअसलसाथी ताहिर अब्बास भी हमारे साथ खाना खा रहे थे। यह पहला वाकया था जब किसी ने मुझे मुसलमान के साथ खाने के लिए टोका था। सदमे और गुस्से से भरे हम युवा साथियों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि उस बदजुबान को ज़ल्दी ही नौकरी छोड़कर भागना पड़ गया था। हम हंसे और इसे एक बुरा सपना मानकर भूल गए थे। 

1983 में हमारे घर बेटा जन्मा। पोते के लिए गाय का शुद्ध दूध देने वालेकी बाबू जी की खोज पुराना महानगर की एक गली में मुश्ताक अली के घर पहुंचकर पूरी हुई। बाबू जी नियमित रूप से सुबह दूध लेने जाते। छह महीने में मुश्ताक अली बाबू जी को अपने अब्बा की जगह मानने लगे और अक्सर घर आकर चाय भी पी जाते। तीन-चार साल बाद जब हम महानगर वाला किराए का डेरा छोड़कर गोमतीनगर के अपने मकान में जाने लगे तो मुश्ताक अली अपनी घोड़ागाड़ी लेकर दरवाजे पर हाजिर। हमारी मंगवाई गाड़ी को उन्होंने जबरन वापस भिजवा दिया और हमारा सारा सामान चार-पांच फेरे लगाकर महानगर से गोमतीनगर पहुंचाया। बाबू जी से जो एक धेला उन्होंने लिया होज़िद करने पर पांव पकड़ लिए। दूसरी सुबह से ही गाय का दूध लेकर मुश्ताक अली महानगर से पांच-छह किमी दूर गोमतीनगर आने लगे। उतनी दूर रोज सुबह आना उनके लिए बहुत मुश्किल था दूसरा कोई ग्राहक भी वहां न था और न ही यह व्यावहारिक था। बाबू जी ने कई दिन तक समझाया कि अब इतनी तकलीफ न करें लेकिन वे राजी ही न होते थे। फिर एक दिन बाबू जी ने उन्हें कसम दिलवाई। तब वे माने लेकिन बिना रोए नहीं। वर्षों बाद तक मुश्ताक अली जब कभी गोमती नगर की ओर आते तो बिना मिले जाते नहीं थे। बाबू जी भी उस ओर जाते तो उनसे मिलकर जरूर आते। आज इस मुहब्बत की याद दिलानी पड़ रही है। तब यह सामान्य बात थी यह हमारी हिंदुस्तानियत का हिस्सा था।

 1978-79 में हम जिसे बुरा सपना मानकर भूल गए थेवह अगले एक दशक में किसी भयानक राक्षस की तरह हमारे सामने आ खड़ा हो गया। में समझ में आ गया था कि कुछ ताकतें हमारी गंगा-जमुनी पहचान के लिए खतरा बन रही हैं। जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी राम रथलेकर गुजरात से अयोध्या की ओर चले तो उनके उत्तेजक नारे हमारे हिंदी अखबारों में भी गूंजने लगे। अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर बनाने के रानैतिक अभियान में 1989-92 के दौर की खबरें गवाह हैं कि कई पत्रकार अखबारों में उनके कार्यकर्ता की तरह बर्ताव करने लगे थे। अधिकतर अखबारों में अतिउत्साही समाचारों से माहौल को उत्तेजक बनानेहिंदुओं को भड़काने और मरने-घायल होने वालों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाशित करने की होड़-सी मच गई थी। सैकड़ों मारे गएलाशें फेंके जाने से लाल हुई सरयू, जेल में बंद कारसेवकों को घोड़े का मल खिलाया गया, मुलायम सिंह यादव को खाड़ी देशों से 50 करोड़ रुपए मिले जैसी शीर्षक छप रहे थे। पत्रकारिता ऐसी राममय हो गई थी कि पुलिस जब नृत्य गोपाल दास (श्रीराम जन्म भूमि ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष) को पकड़ने गई तो वे एक चमत्कार से हवा में गायब हो गए! और जिस पुलिस अधिकारी ने कार सेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया थाराम कृपा से उसकी एक आंख की पुतली बह गई जैसे समाचार अखबारों के पहले पृष्ठ पर छप रहे थे। छह दिसम्बर 1992 को तो अयोध्या में कई पत्रकार मस्जिद ध्वस्त होते देखकर जय श्रीराम के नारे लगाते हुए खुशी में दौड़ लगा रहे थे।

 समाज की विविध परतों में हिंदुस्तानियत की हमारी प्राचीन विरासत बदस्तूर धड़कती रही है लेकिन उस पर हमले तेजी से बढ़ते भी आए हैं। राजनैतिक स्तर पर तो यह हो ही रहा थाउसकी पोल खोलकर समाज को सचेत करने का दायित्व निभाने की बजाय पत्रकारिता भी उसी रंग में रंगती गई। अगले दो दशकों में कारसेवक पत्रकारों की फौज अखबारोंइलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया पर छाने लगी। अब एक साजिश के तहत पत्रकारिता हिंदुत्ववादी राजनैतिक दलों-संगठनों का अभियान बन गई। मीडिया के बड़े हिस्से को गोदी मीडिया विशेषण यूं ही नहीं मिला। प्रश्न करने वाली पत्रकारिता स्वयं प्रश्न बन गई। हमारे प्रधानमंत्री बिना एक भी संवाददाता सम्मेलन को सम्बोधित किए अपने तीसरे कार्यकाल में है। कुछेक पत्रकारों का सवाल उठाना या तथ्यों की छानबीन करना अपराध बन जाता है। सामाजिक कार्यकर्ताविरोधी दलों के नेता और गिने-चुने पत्रकार, जो सरकार की नीयत पर सवाल पूछने का साह कर रहे हैंतरह-तरह से प्रताड़ित किए जा रहे हैं। सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री रिक्शा चालकों को औरगंजेब की औलाद बताकर सम्पूर्ण श्रमिक वर्ग का अपमान कर रहा है मीडिया इस पर मौन हैबल्कि उसका बड़ा हिस्सा तालियां बजाने की मुद्रा में है। नागरिकता कानून से लेकर समान नागरिक संहिता तक की कवायद का एक ही मकसद है- मुसलमानों को दोयम दर्ज़े का नागरिक बना देना और इसके लिए एक ही तरीका हैबहुसंख्यक हिंदू समुदाय में उनके प्रति नफरत भर देना। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन इसी अभियान में लगे हैं। मीडिया भी इस नफरत को फैलाने-बढ़ाने में जोर-शोर से जुटकर उनके हाथ की कपुतली बन गया है।  

इसी खतरनाक प्रवृत्ति का परिणाम है कि आज हमारे देश में मुसलमानों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है। किराए का मकान पाने में उन्हें मुश्किलें पहले भी ती थी लेकिन अब तो उन्हें कॉलोनियों व अपार्टमेण्टोंसे निष्काषित किए जाने के लिए धरना-प्रदर्शन होने लगे हैं। जिन कॉलोनियों में चंदा एकत्र कर त्योहार सामूहिक रूप से मनाए जाते थेवहां मुसलमानों को उनमें शामिल करने से साफ इनकार कर दिया जा रहा है। कई कस्बों-शहरों में मुसलमान दुकानदारों को खदेड़ा जा रहा है तो कई जगह उनसे सामान न खरीदने की अपीलें की जा रही हैं। कांवर यात्रापथ में कोई मुसलमान दुकान नहीं खोल सकता। कुम्भ मेला क्षेत्र में दुकानों की नीलामी में मुसलमानों को भाग लेने से रोकने के लिए प्रदर्शन हुए। मुसलमानों के चूल्हे और फ्रिज में झांका जा रहा है कि वे क्या पका-खा रहे हैं। किसी भी चीज को गोमांस बताकर उनकी जान लेना आम हो गया है। जो हत्यारे हैंवे अभिनंदनीय हैं और भुक्तभोगी प्रताड़ित। प्रेम सबसे अधिक निशाने पर है। हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के का ब्याह दोनों परिवारों की सहमति से भी नहीं करने दिया जा रहा है। यह लव ज़िहाद करार दिया गया है। अतएव हिंदू धर्म रक्षा के लिए ऐसे ब्याह हिंसा के जो पर रोके जा रहे हैं। पुलिस आंख बंद कर लेती है या अभियुक्तों के पक्ष में ही खड़ी हो जाती है। इधर और भी खतरनाक प्रवृत्ति ने जोर पकड़ लिया है। देश भर में हिंदू संगठनों को जगह-जगह मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के सपने आ रहे हैं वे उन्हें सबूत बताकर अदालत में याचिकाएं दाखिल कर रहे हैं और अदालतें आनन-फानन में मस्जिदों का सर्वेक्षण करने के आदेश जारी कर रही हैं। मीडिया कोई सवाल नहीं उठा रहा हैबल्कि इस पागलपन में अतिउत्साह से शामिल है और सवाल उठाने वालों को धर्मद्रोहीदेशद्रोही घोषित कर रहा है।

यह हमारा हिंदुस्तान नहीं है। यह हमारी विरासत हरगिज नहीं है। यह साठ-सत्तर के दशक वाला हमारा अहाता नहीं है, जहां बाबूजी शहाबुद्दीन के हुक्के से परहेज करते थे लेकिन उनके सिर पर प्यार से साफा बांधते थे और दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते थे। जहां पंत जी की आचमनी का पानी शहाबुद्दीन के बच्चों की हारी-बीमारी दूर करता था और हिंदू औरतें गोदी के शिशुओं को लेकर जुमे के रोज मस्जिद के बाहर खड़ीरहती थीं कि नमाजियों की दुआओं से उनकी सेहत-सीरत बनी रहेगी। आज वे कौन लोग हैं जो दुष्प्रचार कर रहे हैं कि शाहरुख खान ने लता मंगेशकर के शव के पास खड़े होकर थूका थावे कौन लोग हैं जो कह रहे हैं कुछ होटल-ढाबे वाले थूककर खाना परोसते हैंये कौन लोग हैं और इनके इरादे क्या हैं?

...

ऐसा नहीं था कि पहले सब कुछ एक आदर्श व्यवस्था में चला करता था। साथ रहते थे तो कभी झगड़े भी होते ही थे। कूपमंडूकों के कारण या किसी साजिश के तहत छोटे-मोटे फसाद कभी हो पड़ते थे। हिंदू-मुसलमान ही नहींमुसलमान-मुसलमा और हिंदू-हिंदू भी लड़ते थे लेकिन शीघ्र ही सब फिर मिल-जुलकर जीवन-संघर्षों में जुट जाते थे। किसी के मन में नफरत की गांठ नहीं पड़ती थी। हमारा हिंदुस्तान अपनी भीतरी परतों में आज भी बाबू जी और शहाबुद्दीन और मुश्ताक अली के रिश्तों वाला है। वह विरासत आज भी इस देश की माटी में धड़कती है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। यह हमारे संगीतकलाओंवास्तुशिल्पपहनावे और खानपान में बेतरह घुला-मिला है लेकिन कई दशकों से सक्रिय ताकतें अब इतनी बढ़ गई हैं कि इस विरासत को मिटा डालने पर उतारू हैंवे अपने टुच्चे राजनैतिक स्वार्थों के लिए हमारी साझी हिंदुस्तानियत में नफरत का जहर घोल रही हैं और झूठ का सहारा लेकर भोली-भाली जनता को धर्म के नाम पर बहका रही हैं इन ताकतों की पहचान करनाउनके मुखौटे उतारना और उनकी साजिश को नाकाम करना जरूरी है। जो सामान्य जनता धर्म को खतरा होने के दुष्प्रचार में अपनी सदियों पुरानी विरासत भूल रही हैउसे समझाना होगा कि अगर धर्म को कहीं से खतरा है तो इन्हीं नफरत फैलाने वालों से है नफरत से समाज को बांटने-तोड़ने का यह खेल केवल सत्ता हासिल करने और उस पर काबिज रहने के लिए हैधर्म के लिए नहीं। धर्म का सबसे बड़ा नुकसान तो वे ही कर रहे हैं। 

अपनी साझी विरासत की पताका के साथ यह संदेश लेकर जन-जन के बीच जाना ही आज सबसे बड़ी आवश्यकता और चुनौती भी है।

('कथादेश' मासिक के जुलाई 2025 अंक में  'हमारी हिंदुस्तानियत'  स्तम्भ के अंतर्गत प्रकाशित)     

   

1 comment:

सुरेश पंत said...

हम अच्छी तरह से जानते हैं कि साझा विरासत में सेंध लगाने वाले कौन हैं और यह भी कि उनके इरादे क्या हैं। कठिनाई यह है कि लगभग 100 साल के भीतर पूरा पर्यावरण गंदा कर दिया गया है। पानी में ज़हर खोल दिया गया है। कोई करे तो क्या करे।
बहरहाल इतना तो कह ही सकते हैं की बहुत सुंदर लिखा है आपने। दिल खुश हो गया।