धराली (उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड) के वीडियो भयावह हैं लेकिन अप्रत्याशित बिल्कुल नहीं। यह हर साल बरसात में लगभग आम किस्सा हो गया है। इस साल हिमाचल में पहले ही हो चुका। उत्तराखंड का नम्बर अब आया है। अभी तो मानसून सक्रिय हुए मुश्किल से महीना भर हुआ है।
उन्नीस सौ साठ-सत्तर के दशक से हिमालय ने मानवकृत अत्याचारों के विरुद्ध चेतावनी देनी शुरू कर दी थी। जुलाई,1970 में बिरही और अलकनंदा ने बेलाकूची का नामोनिशान मिटाकर हरद्वार तक तबाही के शिलालेख लिख दिए थे। 2013 की केदारनाथ त्रासदी इन तमाम वर्षों की अनेक चेतावनियों की उपेक्षा के विरुद्ध गर्जना थी। अब प्रत्येक वर्ष पहाड़ ऐसी गर्जनाएं करता है। पर्यावरण विशेषज्ञ और भू विज्ञानी कब से इन प्रकृति की चेतावनियां पढ़कर सरकारों को सलाह दे रहे हैं, सचेत कर रहे हैं लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हो रही।
‘ग्लोबल वार्मिंग’ और ‘बादल फटने’ के अच्छे बहाने मिल गए हैं। ग्लोबल वार्मिंग के अपने दुष्परिणाम हैं लेकिन पहाड़ उसके कारण नहीं दरक रहे। बादल फटना कोई नई बात नहीं है। एक सीमित इलाके में बहुत कम समय में अतिवृष्टि पहले से होती रही है। अब पहाड़ उस अतिवृष्टि को बर्दाश्त करने की क्षमता खो बैठे हैं। यह आदमी और उसकी व्यवस्था की करतूतें हैं। अंग्रेजी के ‘क्लाउड बर्स्ट’ से निजामों को नया बहाना मिला, बस।
कुछ बातें जान लीजिए। हिमालय दुनिया का सबसे बच्चा और कच्चा पहाड़ है। इसके बाहर-भीतर निरंतर छोटी-बड़ी भू-हलचलें होती रहती हैं। कोई शिखर ढहता है, कोई घाटी भरती है, छोटी-बड़ी कोई नदी रास्ता बदलती है। पहले यह नज़र में कम आता था। अब सड़कों, आबादी और यातायात के विस्तार से नज़र में आ जाता है। पहाड़ की यह हलचल मानव बस्तियों में नहीं हो रहीं। मानव बस्तियां और उनके बेहिसाब व्यवसाय हलचल वाले पहाड़ों में जा पहुंचे हैं।
धराली को देखिए। अपार पानी और चट्टान-मिट्टी-वृक्षों-कंक्रीट के प्रचंड मलबे ने जिस बाजार और कस्बे को जमींदोज़ किया, वह बीस-पच्चीस बरस पहले तक वहां नहीं था। मूल धराली गांव नदी से काफी ऊपर है और आज भी सुरक्षित है। जिन दुमंजिले-चौमंजिले कंक्रीट भवनों को आपने ताश के पत्तों की तरह बिखरते देखा, वह नदी के बहाव-बाढ़ क्षेत्र में हाल के वर्षों में बनाए गए। स्थानीय भाषा में इसे बगड़, थाला, आदि कहते हैं। यहां गांव के खेत थे, चरागाह थे, घराट थे। यह वास्तव में नदी की जगह थी, जहां वह अतिवृष्टि के समय पसर जाती थी। पांच अगस्त को भी वह मलबा लेकर अपनी उसी जगह घुसी। और कहां जाती?
पहाड़ों में जगह-जगह नए धराली बन गए हैं। बनते जा रहे हैं। मध्य वर्ग को ‘टूरिज्म’ के नाम पर बेलगाम मस्ती चाहिए। आस्थावानों को बिना शरीर हिलाए-डुलाए तीर्थयात्रा का पुण्य चाहिए। सरकार को ‘पर्यटन प्रदेश’ बनाकर राजस्व चाहिए, ‘ऊर्जा प्रदेश’ बनाकर विकास का ढिंढोरा चाहिए। दिल्ली की बड़ी सरकार को ‘ऑल वेदर रोड’ बनाकर लोकप्रियता चाहिए। उद्यमियों को बांध, रिसॉर्ट, होटल, आदि-आदि बनाकर दिन दूनी-रात चौगुनी समृद्धि चाहिए। माफिया व ठेकदारों को जल-जंगल-जमीन की दलाली चाहिए। स्थानीय जनता को इस विकास में कुछ टुकड़े चाहिए।
सबके स्वार्थ जिस एक बिंदु पर मिलते हैं, वह है पहाड़ की संवेदनशीलता और प्रकृति की चेतावनियों की अनदेखी। सबने आंखें बंद कर रखी हैं। विशेषज्ञ कब से सावधान कर रहे हैं कि अति हो रही है। केदारनाथ त्रासदी के बाद भी ये आंखें नहीं खुली तो धराली क्या चीज है! सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ कमेटी की सलाह मानने की बाजाय ऐसी स्थितियां बना दी गईं कि कमेटी के अध्यक्ष, पर्यावरणविद रवि चोपड़ा को इस्तीफा देना पड़ा था। इसलिए अभी कई धराली और कई मंडी हम देखने को अभिशप्त हैं।
ऐसा कहने वालों को बड़ी आसानी से विकास विरोधी करार दे दिया जाता है। यह समझ नहीं बनाई जाती कि हिमालय के विकास की नीति प्रकृति सम्मत बने। वहां ऐसा विकास हो कि पहाड़ की रीढ़ बची रहे, नदी के लिए उसका बगड़ और बाढ़-क्षेत्र बचे रहें, जंगल और उसकी जैव विविधता सुरक्षित रहे, मिट्टी व चट्टानों को पेड़ अपनी जगह बांधे रहें, तीर्थयात्रा की आस्था में देह का तनिक कष्ट भी शामिल हो, पर्यटकों के आनंद में प्रकृति का सम्मान कायम रहे, स्थानीयता को उसका वाजिब हिस्सा मिले। मगर यहां तो सब मिलकर सोने की मुर्गी का पेट एक बार में चीर डालने पर उतारू हैं।
-न जो ( नवोदय टाइम्स, 07 अगस्त, 2025 में प्रकाशित)
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