वक्त और ‘तरक्की’ के साथ कितनी चीजें, कैसी-कैसी
कारीगरी और कारीगर गायब होते जा रहे हैं. कई चीजें नई जीवन शैली के साथ चलन से
बाहर हो गईं, कुछ को टेक्नॉलॉजी ने इतिहास के कूड़ेदान में
धकेल दिया और कुछ की कद्र करना हम ही ने छोड़ दिया.
शहर की सम्मानित संस्था ‘सनतकदा’ ने इस बार अपने सालाना उत्सव का विषय ‘हुस्न-ए-कारीगरी-ए
अवध’ को अपना विषय बनाया है. एक जमाना था जब अवध की कारीगरी
का हुस्न दुनिया जहाँ में मशहूर था. चिकन, जरदोजी, कामदानी, चटापट्टी, वगैरह के
कद्रदां आज बहुत कम हैं, लेकिन हैं. ये नाम गाहे-ब-गाहे
सुनाई दे जाते हैं. जो नाम सुनकर हम चौंके और पुरानी यादों में खो गये वह है
रफूगरी. रफूगर भी क्या कमाल करते थे. पुराने लखनऊ के गली-मुहल्लों और बाजारों, रंगसाजों,
दर्जियों व ड्राई-क्लीनरों के यहाँ ‘रफूगर’
के छोटे साइन बोर्ड खूब दिखा करते थे.
डेढ-दो दशक पहले तक भी अच्छे रफूगरों
की तलाश होती थी. शॉल हो या कोट, कीमती
साड़ी हो या नायाब कुर्ता, सलवार-गरारा हो या पैण्ट, कभी कील-कांटा-चिंगारी लग जाने पर नुच-फट-जल गया तो
बड़ा अफसोस होता था. तभी कोई कहता था- अरे, रफूगर सब ठीक कर
देगा और आप बड़ी राहत महसूस करते थे कि आपका पसंदीदा पहनावा बेकार नहीं हुआ. अच्छे
रफूगर की तलाश में ज्यादा भटकना नहीं पड़ता था. दो-चार रोज में रफूगर के यहाँ से
वापस आने पर आपके लिए यह ढूँढना मुश्किल हो जाता था कि कपड़ा कटा-फटा किस जगह था.
क्या महीन कारीगरी करते थे रफूगर.
बनारसी साड़ी के एक छोर से बारीक रेशा खींच कर कट गये हिस्से की ऐसी मरम्म्त कि
गोया उतना हिस्सा साड़ी के कारीगर ने ही दोबारा बुन दिया हो. एकदम महीन सुई साड़ी के
एक-एक रेशे में ऊपर-नीचे होती हुई इतनी कुशलता से गुजरती कि करघा भी दाद देता.
ट्वीड के कोट में वही काम थोड़ा मोटी सुई करती. रंगीन धारियां हों या कोई डिजाइन,
अनुभवी बूढ़ा रफूगर मोटा चश्मा लगाये धारी से धारी मिला देता. वह जमीन
में एक कोने में बैठा काम में इतना तल्लीन होता जैसा इबादत कर रहा हो. जब तक वह
सिर न उठाए, बोलने की भी हिम्मत न होती.
अब जमाना दूसरा है. कटा-फटा कपड़ा रफू
कराने की कोई सोचता ही नहीं. नई पीढ़ी ‘रफू’
शब्द से परिचित भी नहीं होगी. एक पीढ़ी से दूसरी-तीसरी पीढ़ी तक जाने
वाले नायाब पहनावे भी गायब हो रहे हैं. एक-दो बार पहनो और बदलो वाला दौर है. कट-फट
जाए तो कौन पूछे. रफूगरों की जरूरत भी इस बदलाव के साथ जाती रही. किसी-किसी
ड्राई-क्लीनर के यहाँ अब भी रफूगर दिख जाते हैं लेकिन उनके हाथ में वह हुनर नहीं.
कद्रदां नहीं रहे तो हुनर कहाँ-कैसे बचे. पुरानी पीढ़ी से कोई सीखना भी नहीं चाहता
क्योंकि वह हुनर अब पेट नहीं भर सकता.
चीजों के गायब होने की रफ्तार शहरों
में बहुत तेज है. यहाँ दुलाइयाँ और
रजाइयाँ नहीं ओढ़ी जातीं इसलिए धुनवे गायब हो गये हैं. लोहे के चाकू-छुरी की जगह
स्टेनलेस स्टील की छुरियों ने ले ली है जिसमें सान नहीं धरी जा सकती. चाकू-छुरी
तेज करा लो की आवाजें क्यों सुनाई देंगी. सिल-बट्टे बलेण्डरों ने खा लिये तो
उन्हें बनाने वाले क्यों देहरी से आवाज देंगे. ऐसी कितनी चीजें गायब हुई हैं,
याद करिए तो.
रफूगर की जगह इन सबमें निराली थी. इस
स्तम्भ में हमने कुछ दिन पहले एक जरदोजी कारीगर का जिक्र किया था जो काम न मिलने
के कारण रंगाई-पुताई का काम करने लगा है. पुराने हुनरमंद रफूगरों की अगली पीढ़ियाँ
पता नहीं किस रोजगार में लगी होंगी.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 03 फरवरी, 2019)
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