उत्तर
प्रदेश की आदियनाथ योगी सरकार ने दो वर्ष पूर्व सत्ता सम्भालने के कुछ समय बाद ही
2019 में इलाहाबाद (तब उसका नया नामकरण प्रयागराज नहीं हुआ था) में लगने वाले अर्द्धकुम्भ
को ‘कुम्भ’ और कुम्भ को
‘महाकुम्भ’ घोषित किया
था तभी संकेत मिल गये थे कि आम चुनाव के ठीक पहले पड़ने वाले इस विशाल आध्यात्मिक-धार्मिक-सांस्कृतिक
जुटान का इस्तेमाल वह राजनैतिक, बल्कि
चुनावी लाभ लेने के लिए करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी. .
प्रयाग और
हरिद्वार में प्रत्येक बारह वर्ष बाद पड़ने वाले कुम्भ पर्वों के बीच, छह
साल के अंतराल पर अर्द्धकुम्भ का भी आयोजन होता रहा है. माना जाता है कि माघ मास
के कुम्भ योग के विशेष स्नान पर्वों पर प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम और विलुप्त
कही जाने वाली सरस्वती की त्रिवेणी में डुबकी लगाना मोक्ष दिलाता है. अर्धकुम्भ की
भी अपनी महिमा है लेकिन उसका महात्म्य (पूर्ण) कुम्भ जितना नहीं है.
योगी सरकार
ने जैसे ही अर्द्ध कुम्भ को ‘कुम्भ’ बनाया
वैसे ही उसका बजट भी कई गुना बढ़ा दिया. सन 2013 के पूर्ण कुम्भ के लिए प्रदेश
सरकार का बजट दो सौ करोड़ रुपये था. तब राज्य में अखिलेश यादव के नेतृत्त्व में समाजवादी
पार्टी की सरकार थी. केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने कुम्भ के लिए
341 करोड़ रु दिये थे. इसके अलावा 800 करोड़
रु का विशेष पैकेज भी स्वीकृत किया था. इकॉनॉमिक
टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार उस साल पूर्ण कुम्भ पर कुल मिलाकर करीब तेरह सौ
करोड़ रु का व्यय हुआ था.
सन 2019 के ‘कुम्भ’के
लिए योगी सरकार ने 2500 करोड़ रु के बजट की
घोषणा हुई की जो केंद्रीय अनुदान और विशेष पैकेज को मिलाकर, इकॉनॉमिक
टाइम्स के अनुसार, 4236 करोड़ रु हो जाता है. अनुमान है कि यह खर्च बढ़कर
पाँच हजार करोड़ रु तक जा सकता है. याने इस अर्द्ध कुम्भ की व्यवस्था पर पिछले पूर्ण
कुम्भ में हुए व्यय की तुलना में तीन से चार गुणा से ज्यादा खर्च किया जा रहा है.
इससे स्पष्ट
हो जाता है कि भाजपा सरकार प्रयाग के अर्द्धकुम्भ को जनता के धन से अत्यंत भव्य
बानाकर उसका राजनैतिक लाभ लेने के लिए कितनी कोशिश कर रही है. उसके प्रचार पर पानी
की तरह पैसा बहाया जा रहा है. यह प्रचार इतन सघन है कि आम जनता और विदेशी नागरिक
ही नहीं साधु-संत तक इसे अर्द्ध कुम्भ की बजाय कुम्भ कहने को विवश हो गये हैं. सरकार
की पूरी मशीनरी 192 देशों से प्रतिनिधियों को बुलाकर ‘कुम्भ’ के
सफल और भव्य आयोजन का श्रेय लूटने की कोशिश में है. प्रवासी भारतीय सम्मेलन का
आयोजन भी इसी दौरान वाराणसी में करके उसमें आये प्रतिनिधियों को ‘कुम्भ’
स्नान का पुण्य दिलाया गया.
ऊपरी तौर पर
इस भव्य ताम-झाम को ‘उत्तर प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए’ बताया
जा रहा है लेकिन भीतर-भीतर हिंदुत्त्व का संघी स्वरूप और उग्र राष्ट्रवाद का
एजेण्डा चलाया जा रहा है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और
छत्तीसगढ़ की सत्ता खोने और कांग्रेस का उभार शुरू होने के बाद से भाजपा फिर
अयोध्या में राम मंदिर के नारे की शरण में जा रही है. इसे कट्टर हिंदू ध्रुवीकरण
का मुद्दा बनाने के लिए वह साधु-संतों के प्रयाग जमावड़े को माध्यम बनाने की पूरी
कोशिश कर रही है.
यह अकारण
नहीं है कि योगी सरकार ने ‘प्रयागराज कुम्भ’ में
अपने मंत्रिमण्डल की बैठक विश्व हिंदू परिषद की ‘सनातन
धर्म संसद’ से ठीक पहले 29 जनवरी को की. 31 जनवरी और एक फरवरी को
होने वाली इस ‘धर्म संसद’ में भाजपा सरकार
से राम मंदिर निर्माण की मांग जोर-शोर से उठने वाली है. भाजपा की केंद्र और राज्य
सरकार उसके निशाने पर काफी समय से है कि पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बाद उसने
मंदिर बनाने की गम्भीर पहल क्यों नहीं की. इस नाराजगी से बचने के लिए भाजपा सरकार
सुप्रीम कोर्ट में मामला लम्बित होने की आड़ लेती रही है. इसी कारण साधु-संतों की
ओर से अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण शुरू करने का दवाब बन रहा है.
यह भी संयोग
नहीं है कि उसी दिन यानी 29 जनवरी को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपील दायर
की कि अयोध्या में राम जन्म भूमि न्यास के लिए जिस 67 एकड़ जमीन को अधिग्रहीत किया
गया थ उसमें सिर्फ 0.313 एकड़ भूमि ही विवादित है. इसलिए 0.313
एकड़ भूमि को छोड़ कर बाकी भूमि न्यास को सौंप दी जाए. ‘प्रयागराज’ में
बैठी योगी सरकार ने केंद्र की इस पहल का स्वागत करने में तबिक देर नहीं लगाई.
कुल मिलाकर
मोदी-योगी सरकारों की कोशिश है कि हिंदू धर्मावलम्बियों की इस सबसे बड़ी जुटान में
भाजपा की ऐसी छवि पेश की जाए कि हिंदुओं की सबसे बड़ी हितैषी वही है. वर्ना पूरी
कैबिनेट और बाकी मंत्रियों के साथ प्रयाग में डुबकी लगाने और ‘प्रयागराज’ के
विकास के लिए फैसले लेने का क्या अर्थ था. अकबर के किले के भीतर अक्षयवट के दर्शन ‘साढ़े
चार सौ साल बाद’
जनता के लिए
खोलने का प्रचार भी जोरों से किया जा रहा है.
हर कुम्भ पर गंगा में अतिरिक्त पानी छोड़ा जाता रहा है ताकि संगम पर वह कुछ
साफ दिखाई दे लेकिन योगी सरकार का प्रचार है कि पिछले पांच साल में गंगा निर्मल
बना दी गई है.
सन 2019 का ‘कुम्भ मेला’ आध्यात्मिक
–सांस्कृतिक से कहीं अधिक भगवा राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है, इसका प्रमाण मेला-स्थल के सेक्टर चार में स्थित विश्व हिंदू परिषद का
शिविर है जो सबसे ज्यादा व्यस्त, सक्रिय और हिंदू संगठनों के
नेताओं का मिलन एवं विमर्श स्थल है. भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का
यहाँ लगातार आना और चर्चा करना जारी है. उनके दौरे ‘कुम्भ
स्नान’ के बहाने होते हैं लेकिन वास्तविक उद्देश्य आसन्न
चुनाव की रणनीतियों पर चर्चा करना होता है कि कैसे इस विशाल जुटान का राजनैतिक लाभ
ले सकते हैं.
सवाल यह है कि क्या ’कुम्भ’ मेले के ‘भव्य और सफल’
आयोजन से और इस अवसर का पूरा इस्तेमाल करके योगी सरकार या भाजपा इसका राजैतिक लाभ पा सकेगी?
पहली बात तो यह कि देश की धर्म-परायण जनता कुम्भ को कभी भी राजनैतिक अखाड़ा नहीं
मानती. संन्यासियों के विभिन्न अखाड़े और धार्मिक संस्थाएँ कुम्भ और अर्द्ध कुम्भ
के अवसर का प्रयोग धर्म-प्रचार के लिए पहले भी करती रही हैं. वहाँ लोग सांसारिक
माया-मोह त्याग कर साधु-संन्यासी बनने के लिए भी आते हैं. व्यापक जन समुदाय अपनी
मान्यताओं के अनुसार स्नान कर मोक्ष पाने की कामना लिये,
संन्यासियों की चरण-रज में लोट कर धन्य होने, और
चमत्कारी साधुओं से अपने कष्टों की मुक्ति की लालसा में आता रहा है. उसे कोई भ्रम
नहीं रहता कि संगम तट की विशाल भीड़ कोई राजनैतिक या चुनावी सभा है. ऐसी कोशिश उसके
लिए इस पावन अवसर की मर्यादा और गरिमा भंग करना है. कुम्भ को चुनावी लाभ की
राजनीति बनाने की कोशिश इसीलिए उलटी पड़ सकती है.
दूसरी बात यह कि कुम्भ में जुटने
वाला जन समुदाय अपने-अपने क्षेत्रों में गम्भीर समस्याओं से पीड़ित है. योगी राज
में उत्तर प्रदेश की विशाल ग्रामीण आबादी छुट्टा जानवरों से त्रस्त है और उनसे
अपनी फसलें बचाने के लिए सर्द रातों में पहरा देने को मजबूर है. ‘कुम्भ का सफल और भव्य आयोजन’’ ऐसे विकट समस्याओं पर
पर्दा नहीं डाल सकता. ‘कुम्भ’ नहा कर
पुण्य कमाने गई जनता का इंतजार उनके घर-गाँव में जो तकलीफें कर रही हैं, उससे मुक्ति कैसे मिलेगी?
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