Tuesday, February 05, 2019

बिना गठबंधन की एकता



बीती 19 जनवरी को ही वे सब कोलकाता में एक मंच पर इकट्ठा हुए थे. ममता बनर्जी की बुलाई रैली के मंच से उन सबने मोदी के नेतृत्त्व वाले एनडीए को केंद्र की सत्ता से उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था. बीते रविवार को कोलकाता में बड़े नाटकीय घटनाक्रम के बाद एक बार फिर वे सुर में सुर मिलाकर मोदी सरकार को कोसने,  उसे लोकतंत्र, संघीय स्वरूप और संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने वाला बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. वे सब ममता बनर्जी के पीछे खड़े होकर मोदी के खिलाफ एकजुट दिखने की कोशिश कर रहे हैं.

पिछले डेढ़-दो साल से ऐसी ही स्थिति बनी हुई है. कांग्रेस समेत भाजपा विरोधी कई क्षेत्रीय दल 2019 के आम चुनाव में मोदी को परास्त करने के लिए एकजुट होने की कोशिश करते रहे हैं. महागठबंधन बनाने की चर्चाएं जब-तब होती रहीं. विपक्षी नेताओं के दिल्ली डेरों से लेकर प्रांतीय राजधानियों के सरकारी बंगलों तक बैठकों के दौर चलते रहे. महागठबंधन बनाने की पहली बड़ी कोशिश लालू यादव की पहल पर डेढ़ साल पहले पटना रैली में हुई थी. उत्तर प्रदेश के दो धुर विरोधी दलों, सपा और बसपा के एक साथ आने की जमीन उसी पहल से बननी शुरू हुई थी. पटना रैली से बड़े-बड़े ऐलान हुए थे. उसके बाद से महागठबंधन बनने की चर्चाओं को गति मिली थी, हालांकि क्षेत्रीय दलों के अन्तर्विरोधों ने उसकी सम्भावनाओं पर सवाल भी खूब लगा दिये थे.

उसके बाद विपक्षी दलों को एक और बड़ा अवसर मई 2018 में मिला जब कर्नाटक चुनाव में भाजपा की सत्ता कब्जाने की कोशिश नाकाम हुई और कुमारस्वामी के नेतृत्त्व में कांग्रेस-जनता दल (सेकुलर) की सरकार बनी. कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों की सबसे बड़ी जुटान बना. वह मंच विपक्षी नेताओं के लिए न केवल अत्यंत उत्साहवर्धक था, बल्कि एकता के प्रतीक रूप में कुछ अद्भुत दृश्य  बहुत दिनों तक मीडिया में छाये रहे थे.

सोनिया और मायावती की स्नेहिल आलिंगन वाली बहुप्रचारित तस्वीर बंगलूर के उसी मंच की है. लग रहा था कि मायावती का पुराना कांग्रेस विरोध अब तिरोहित हो जाएगा. उसी मंच पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा नेता मायावती का बड़े आदर से स्वागत किया था. पटना से सांकेतिक रूप में शुरू हुई उनकी दोस्ती उसी दिन सार्वजनिक और व्यवहार में आयी थी. बंगलूर के उसी मंच पर बंगाल के पुराने राजनैतिक शत्रु माकपा नेता सीताराम येचुरी और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी भी मौजूद थीं. एक-दूसरे को फूटी आंख न देखने वाले ये नेता उस दिन मुस्कराते हुए कुछ पल को आमने-सामने भी हुए. वहाँ और भी क्षेत्रीय नेता थे जिनका जोश बता रहा था कि उन्हें भाजपा को सताच्युत करने के लिए एकता का सूत्र मिल गया है.

जिस तरह पटना की रैली के बाद महागठबंधन की सम्भावना धूमिल होती गयी उसी तरह बंगलूर के विपक्षी जमावड़े से निकले एकजुटता के संदेश भी जल्दी से उलटे संकेत देने लगे. सोनिया गांधी के गलबहियाँ डालने वाली मायावती कांग्रेस पर हमलावर होती गईं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में तालमेल न हो पाने के बाद मायावती के लिए कांग्रेस साँपनाथहो गयी, भाजपा से कतई कम बुरी नहीं. माकपा और तृणमूल को तो खैर साथ आना ही नहीं था, सोनिया से ममता की बाद की मुलाकातें भी सुनिश्चित नहीं कर सकीं कि उनकी पार्टियों में तालमेल होगा.

इन रैलियों, मुलाकातों का विपक्ष की नजर से एक ही सुखद परिणाम निकला कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का गठबन्धन हो गया. भाजपा को हराने की दिशा में यही एक महत्त्वपूर्ण बात हुई. इसके अलावा टीआरएस के नेता चंद्रशेखर राव और तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू ने विपक्षी एकता की जो पहल की वह किसी नतीजे तक नहीं पहुँची. तेलंगाना में तेलुगु देशम, कांग्रेस और वाम दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन बुरी तरह नाकामयाब रहे. इस प्रयोग की विफलता के बाद कांग्रेस तेलुगु देशम से दूरी बनाने में लगी है. संकेत हैं कि वह आंध्र में उसके साथ मिलकर लोक सभा चुनाव नहीं लड़ेगी.

अपने अंतर्विरोधों, क्षेत्रीय समीकरणों और कांग्रेस से पुराने बैर के कारण अब तक भाजपा विरोधी दल राष्ट्रीय स्तर किसी एकता का आधार तैयार नहीं कर सके. आम चुनाव सामने हैं. अब कोई गठबन्धन बन पाएगा , इसके आसार नहीं दीखते. इसके बावजूद इन दलों में  2019 के चुनाव में भाजपा को धूल चटाने की तीव्र लालसा दिखाई देती है. भाजपा सभी को अपने राजनैतिक अस्तित्त्व के लिए बड़ा खतरा दिख रही है. इसलिए वे एकजुटता दिखाने, एक मंच पर आने और भाजपा के विरोध के लिए सामूहिक मुद्दा तलाशने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते.

ममता बनर्जी की विपक्षी रैली को एक महीना भी नहीं हुआ कि कोलकाता विपक्षी दलों के लिए फिर एक ऐसा अवसर ले आया जब वे मिलकर केंद की मोदी सरकार के खिलाफ अपनी मुद्दा आधारित एकजुटत दिखा सकते थे. शारदा घोटाले के सिलसिले में वहाँ के पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने सीबीआई क्या पहुँची कि ममता बनर्जी ने मोदी सरकार के खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया. वे संघीय ढाँचे को ध्वस्त करनेका आरोप लगा कर धरने पर क्या बैठीं कि पूरा विपक्ष ममता के समर्थन में और मोदी सरकार के विरुद्ध एक सुर में बोलने लगा. कई दलों के बड़े नेता कोलकाता जाकर ममता के धरना-मंच में शरीक हो आये. कई ने अपने-अपने गढ़ों से मोदी सरकार के खिलाफ हुंकार भरी.     

करीब बाईस राजनैतिक पार्टियाँ मोदी सरकार के खिलाफ और ममता बनर्जी के समर्थन में इस समय बयान दे रही हैं. इनमें कांग्रेस समेत विभिन्न राज्यों के महत्त्वपूर्ण और बड़े दल शामिल हैं. ममता के मामले में बीजू जनता दल ने भी भाजपा विरोधी तेवर दिखाये हैं. लगता है कि भाजपा के विरुद्ध व्यापक मोर्चा तैयार है लेकिन वास्तव में कोई मोर्चा तैयार नहीं है. ममता के पक्ष में खड़े सारे नेता उन्हें अपना नेता मानने को कतई तैयार नहीं होंगे.

इस तथ्य के बावजूद भाजपा के लिए 2019 का संग्राम आसान नहीं है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अलग मैदान में उतरने के बावजूद सपा-बसपा के गठबन्धन से लड़ाई बहुत कठिन हो चुकी है. बिहार में नीतीश के कारण एनडीए मजबूत भले दिखता हो, विरोधी गठबन्धन को कमजोर नहीं आंकना चाहिए. इसके अलावा कुछ राज्यों में भाजपा की कांग्रेस से सीधी लड़ाई है और उन राज्यों में 2014 के बाद से कांग्रेस मजबूत हुई है.

किसी संयुक्त मोर्चे या गठबंधन के बिना भी भाजपा विरोध के स्वर तीव्र हो रहे हैं. विपक्ष इन विरोधी सुरों को तेज से तेज बनाये रखना चाहता है. फिलहाल यही स्वर उनकी एकजुटता है.  


(प्रभात खबर, 6 फरवरी, 2019)

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