Friday, May 17, 2019

तो, एक और चुनाव निपट चला



चुनाव की गर्मी अब समाप्त होने वाली है. बड़े-बड़े मंचों और रोड-शो से उगली जाने वाले आरोप-प्रत्यारोपों के थपेड़े बंद हो चुके हैं. नतीजों के इंतजार में जुबानी हमले चंद रोज़ और होंगे, हालांकि उनकी तेजी नर्म पड़ जाएगी. 23 मई को चुनाव परिणाम आने के साथ राजनीति का मौसम बदल जाएगा.

चुनावी मौसम इस बार खूब लम्बा चला. 11 अप्रैल को पहले चरण का मतदान हुआ था. 19 मई को अंतिम चरण के वोट पड़ेंगे. चालीस दिन का यह दौर बहुत लम्बा है. 10 मार्च को चुनाव तिथियों की घोषणा हुई थी. देश उससे काफी पहले से चुनावी मोड में था.

पिछले वर्ष पांच राज्य विधान सभाओं के चुनाव हुए थे. तभी से लोक सभा चुनाव की गर्मी शुरू हो गयी थी. कह सकते हैं कि वर्ष 2019 ने चुनावी गर्मी में ही आँखें खोलीं. आधा साल चुनाव में ही निकला जा रहा है. लगता है यह देश हर समय चुनाव लड़ता रहता है.
सरकारों के फैसले चुनाव में नफा-नुकसान का आकलन करके होते हैं. विपक्ष की प्रतिक्रियाएं भी इसी तराजू पर तुलकर आती हैं. ऐसे कड़े फैसले जो देश की सेहत के लिए भले होते हैं लेकिन जिनसे जनता या उसका कोई वर्ग नाराज़ हो सकता है, नहीं ही लिए जाते. कोई फैसला इस लिहाज़ से उलटा पड़े तो उस पर खूब पैंतरेबाजी की जाती है.

याद करना कठिन होता है कि हाल के वर्षों में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष किस एक मुद्दे पर वास्तव में एक राय हुए. कुछ छिट-पुट सहमतियाँ बनी भी तो चुनावी लाभ का हिसाब लगाकर ही. सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाते समय अवश्य सब दिल से एक हो जाते हैं.

यह चुनाव इसलिए भी याद किया जाएगा सारी नैतिकता और मर्यादाएं ध्वस्त हुईं. वह सब कहा गया जो नहीं कहा जाना चाहिए था. क्या किसी को भी इसका पश्चाताप होगा कि वह सब नहीं बोला जाना चाहिए था? अंतिम चरण से पहले पश्चिम बंगाल में जो हुआ उसे कैसे उचित ठहराया जा सकता है लेकिन देखिए कि दोनों ही पक्षों ने अफसोस जताने की बजाय अपना दामन पाक-साफ बताया. दूसरा ही पूरी तरह दोषी है, हम तो निपट निर्दोष हैं. सभी यही मानते हैं.

इस साल देश गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है लेकिन उन पर लानत भी भेजी जा रही है. चुनाव में बापू की खूब दुर्गति की गयी. यह हमारी चुनावी राजनीति का ही कमाल है कि यहां किसी महान व्यक्ति की पूर्जा और दुर्गति एक साथ की जाती है. आम्बेडकर का भी यही हाल किया जाता रहा है. इस बार भूले-बिसरे महानायक ईश्वर चंद विद्यासागर भी राजनीति की सूली पर चढ़ा दिये गये, जिनका दलीय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था. यह उनकी मूर्ति का तोड़ा जाना ही नहीं, कई मूल्यों का जमीदोज़ किया जाना भी है.

वैसे भी जैसा समाज बनाया जा रहा है उसमें न ग़ांधी की ज़रूरत है न आम्बेडकर की. हाँ, दोनों के नाम पर वोट की राजनीति की बड़ी जरूरत है. बेचारे ईश्वर चंद्र विद्यासागर पता नहीं कैसे लपेटे में आ गये. खैर, बांग्ला-अस्मिता के नाम पर वे भी राजनीति के काम आ ही रहे हैं. 

आम जन की समस्याएं सुलझने की बजाय उलझ रही हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों का हाल बहुत दयनीय है. किसान राजनीति के केंद्र में हैं लेकिन कृषि का हाल बेहाल है. भौतिक तरक्की चंद परिवारों में सिमट गई है. हर चुनाव में बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं लेकिन हालात सुधरते नहीं. आंकड़ों से तरक्की के जो दावे किए जाते हैं वे जमीन पर दिखाई नहीं देते.

बहरहाल, एक और आम चुनाव निपट रहा है.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 मई, 2019)         

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