Wednesday, May 29, 2019

वंशवाद खत्म नहीं हुआ, बढ़ा है


एक कार्टून इन दिनों सोशल साइटों में वायरल हो रहा है. राहुल गांधी अपनी माँ सोनिया गांधी की गोद में बैठ कर अशोक गहलौत, पी चिदम्बरम और कमलनाथ की ओर अंगुली उठाकर कह रहे हैं कि इन्होंने अपने बेटों को टिकट देने की ज़िद की. इस्तीफे तक की धमकी दी. बताते हैं कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल ने क्षोभ के साथ यह बात कही थी. कार्टूनिस्ट का तंज स्वाभाविक ही यह है कि राजनीति में वंशवाद के सबसे बड़े प्रतीक तो स्वयं राहुल गांधी हैं.

बहरहाल, राहुल अमेठी की अपनी पारिवारिक सीट से चुनाव हार गये. चुनाव हारने वालों में कुछ बड़े चर्चित परिवारवादी भी हैं. अपनी पत्नी, बेटों और बेटी को राजनीति में स्थापित करने वाले लालू यादव के परिवार का इस बार एक भी सदस्य नहीं जीता. बहुचर्चित परिवारवादी मुलायम सिंह यादव और उनके बड़े बेटे अखिलेश चुनाव जीतने में कामयाब रहे लेकिन उनकी बहू और भतीजे पराजित हो गये. अजित सिंह और उनके बेटे जयंत हारे. कर्नाटक में देवेगौड़ा स्वयं और उनके परिवारीजन खेत रहे. राजनीति में स्थापित एक और बड़े परिवार के उत्तराधिकारी ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस बार अपनी सीट नहीं बचा पाये.

परिवारवादी राजनीति की पराजय के ऐसे कुछ अन्य उदाहरणों के आधार पर कहा जा रहा है कि इस बार की मोदी लहर ने राजनीति से वंशवाद का सफाया कर दिया. क्या वास्तव में ऐसा हुआ है?

पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का और तमिलनाडु में करुणानिधि का परिवार जीत गया. मोदी लहर में भी कमलनाथ छिंदवाड़ा की अपनी पुरानी सीट से बेटे को जिता ले गये. सोनिया गांधी जीतीं और अमेठी से हारने वाले उनके बेटे राहुल वायनाड सीट से लोक सभा पहुंचने में कामयाब रहे. धमाके से जीतने वाले आंध्र के जगनमोहन रेड्डी और उड़ीसा के नवीन पटनायक लोकप्रिय नेताओं के वंशज ही हैं. एक-एक कर गिनाने से सूची लम्बी होती जाएगी.

इण्डियन एक्सप्रेसमें तीन दिन पहले प्रकाशित एक शोध-रपट के अनुसार सत्रहवीं लोक सभा में पहुँचे सांसदों में 30 प्रतिशत राजनैतिक परिवारों के हैं. यह नया कीर्तिमान है. 2004 से 2014 तक यह करीब 25 फीसदी था. राजनैतिक दलों में सर्वाधिक वंशवादी कांग्रेस ही है जिसके इस बार 31 प्रतिशत उम्मीदवार राजनैतिक परिवारों के थे. आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस पर परिवारवाद का तीखा आरोप लगाने वाली भाजपा स्वयं इस मामले में कांग्रेस का मुकाबला करने की तरफ बढ़ रही है. इस बार इसके 22 फीसदी उम्मीदवार परिवारवादी थे. उसका यह आंकड़ा हर चुनाव में बढ़ रहा है.

राजनीति में परिवारवाद पनपने के कारण हैं. आजादी के बाद राजे-रजवाड़ों ने चुनावी राजनीति में शामिल होकर अपनी सत्ता बचाने की कोशिश की. उनकी लोकप्रियता और भारतीय समाज की संरचना ने उन्हें राजनीति में स्थापित कर दिया. उनके वंश राजनीति में  फले-फूले. राजनैतिक दलों ने उनके जीतने की बेहतर सम्भावना के कारण उन्हें आगे बढ़ाया. आजादी के इतने वर्ष बाद भी रजवाड़ों की सन्ततियाँ राजनीति में सक्रिय हैं.

कांग्रेस थोड़ा अलग तरह का उदाहरण है. नेहरू पर सीधे यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने अपनी बेटी को कांग्रेस का उत्तराधिकार सौंपा. इंदिरा गांधी पार्टी के भीतर ओल्ड गार्डसे लड़कर कांग्रेस पर काबिज हुईं. हाँ, खुद उन्होंने कांग्रेस को इतना बौना बना दिया कि बेटे संजय की मृत्यु के बाद अपना उत्तराधिकारी तैयार करने के लिए वे बड़े बेटे राजीव को उनकी अनिच्छा और बहू सोनिया के विरोध के बावज़ूद विमान के कॉकपिट से उठा लाईं. वह शायद सबसे बढ़िया अवसर था जब कांग्रेस अपना गैर-नेहरू-गांधी उत्तराधिकारी चुन सकती थी. लेकिन तब तक कांग्रेस में इतना ताब ही नहीं बचा था. अब तो कांग्रेस इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती, राहुल चाहे सचमुच में ही पद-त्याग क्यों न करना चाहें.

परिवारवाद का एक नया संस्करण मण्डल-राजनीति से उभरे मध्य जातियों के ताकतवर क्षेत्रीय  क्षत्रपों ने स्थापित किया. विशेष रूप से मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ने अपनी पार्टियों को प्राइवेट कम्पनियों की तरह चलाया. कर्नाटक और तमिलनाडु में भी ऐसा ही दौर आया. उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा, यानी लगभग सभी राज्यों में बड़े नेताओं के परिवारी जन पार्टी में ऊपर से थोपे  जाते रहे. सिर्फ वाम दल इसके अपवाद हैं.

जेल में बंद सजायाफ्ता बाहुबली कनूनन  चुनाव न लड़ पाने पर अपनी पत्नियों को मैदान में उतार देते हैं. चारा घोटाले में अदालत में आरोपित किये जाने के बाद 1997 में लालू यादव ने रातोंरात मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी पर पत्नी राबड़ी देवी को बैठा दिया था.

कुछ राजनैतिक परिवारों में उत्तराधिकार को लेकर लड़ाइयाँ भी हुईं. शिव सेना, द्रमुक, सपा और राजद में ऐसे झगड़े हो चुके या हो रहे हैं जो पारिवारिक सम्पत्ति के लिए होने वालो संघर्षों की याद दिलाते हैं.

लोकतंत्र में परिवारवाद की जगह नहीं होनी चाहिए. पार्टी संगठन के चुनाव लोकतांत्रिक तरीकों से हों तो परिवारवाद का बोलबाला कम होगा और सक्षम व सम्भावनाशील नेतृत्व उभरेगा. पार्टियों पर परिवारवाद के कब्जे ने अनेक प्रतिभाशाली नेताओं को  दबाया और कुण्ठित किया है. ऐसी पार्टियों में कोई बाहरीसक्षम नेता संगठन के चुनाव लड़ने की कल्पना नहीं कर सकता. अगर कोई पार्टी अपने भीतर ही लोकतंत्र का सम्मान नहीं करती तो देश की लोकतानत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उसके आदर पर स्वाभाविक ही संदेह होगा.

कांग्रेस का नेतृत्व पर दशकों से नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में है. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अभी परिवारवादी नहीं हुआ है लेकिन उसके कई नेता अपने बेटे बेटियों को आगे बढ़ा रहे हैं. दोनों ही राष्ट्रीय दल परिवारवादियों को चुनाव लड़ाने में आगे हैं. ऊपर जिस शोध-रपट का उल्लेख किया गया है उसके निष्कर्षों ने इस भ्रांति को तोड़ा है कि क्षेत्रीय दल राजनीति में परिवाद को बढ़ावा देने में सबसे आगे हैं. यह धारणा शायद मुलायम, लालू, बादल, करुणानिधि जैसे परिवारों के कारण बनी होगी. सच्चाई यह है कि इस मामले में राष्ट्रीय दल ही अग्रणी हैं. इस बार क्षेत्रीय पार्टियों के 12 प्रतिशत उम्मीदवार परिवारवादी थे, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों का यही आंकड़ा 27 फीसदी ठहरता है.  

एक तथ्य यह भी है कि राजनैतिक परिवारों के वंशजों का चुनाव जीतने का औसत सामान्य प्रत्याशियों के विजयी होने के औसत से कहीं अधिक है. उसी रिपोर्ट के अनुसार इस बार चुनाव में 2189 उम्मीदवारों में  389 यानी 18 प्रतिशत राजनैतिक परिवारों के थे जबकि जीतकर लोकसभा पहुँचने वालों का प्रतिशत 30 (542 में 162) है. यह तथ्य स्पष्ट करता है कि सभी दल वंशवाद का पोषण क्यों करते हैं और क्यों इसकी सार्वजनिक निंदा करने वाली भाजपा भी इसी राह पर है.

अर्थात, यह कहना सही नहीं होगा कि भारतीय राजनीति में वंशवाद समाप्ति की ओर है.
         
(प्रभात खबर, 30 मई, 2019)

 



No comments: