Wednesday, May 15, 2019

क्यों मर्यादा में रहे नहीं?


चुनाव-दर-चुनाव हमारी राजनीति का विमर्श नैतिकता और मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाता जा रहा है. सत्रह मई 2019 की शाम लोक सभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के लिए प्रचार समाप्त होने के साथ ही आशा की जानी चाहिए कि मर्यादा की सीमा लांघ कर अब तक के निम्नतम स्तर तक पहुँच गये आरोप-प्रत्यारोपों के सिलसिले पर विराम लग जाएगा.

हमारे नेता अक्सर गर्व से देश को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रबताते नहीं थकते, लेकिन जिस चुनाव से वह कायम रहता है, क्या उसकी बदहाली पर भी उनकी दृष्टि जाती है? चुनाव आचार संहिता का जैसा बेशर्म उल्लंघन इस बार किया गया और भाषा की मर्यादा ध्वस्त की गयी, क्या उस पर किसी पार्टी या नेता को शर्म आएगी?

हमारी लोक परम्परा में होली खेलने के दौरान मर्यादा के सीमोल्लंघन की कुछ छूट लेने का चलन है तो रंग-पर्व के समापन के समय माफी माँगने का रिवाज भी कि कहे-अनकहे की माफी देना.क्या हमारे नेता चुनाव बाद ही सही अपनी कहनी-नकहनी पर खेद जताते हुए एक-दूसरे से और जनता से भी क्षमा माँगने का बड़प्पन दिखाएंगे? इसकी आशा करना व्यर्थ होगा क्योंकि जो न कहने लायक कहा गया वह इरादतन बोला गया. उनके पास उसकी सफाई तो है, क्षमा-याचना नहीं.

बड़े से बड़े संवैधानिक व सम्मानित पदों पर बैठे हुए नेता भी चुनाव में क्यों करते हैं ऐसा आचरण? अपेक्षा तो यह की जाती है कि सत्तारूढ़ दल के नेता अपने कार्यकाल की उपलब्धियों, जनहित की योकनाओं और भविष्य के कार्यक्रमों के आधार पर जनता के पास जाएंगे. विपक्षी दल सरकार की असफलताओं, अधूरे या भूले वादों, भ्रष्टाचार, जनविरोधी कार्यों और देश के सामने उपस्थित चुनौतियों से निपटने के लिए अपने वैकल्पिक कार्यक्रमों, नीतियों, आदि के आधार पर सत्तारूढ़ दल को चुनौती देंगे.

स्वाभाविक है कि इस संग्राम में आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला भी चलेगा. आशा यही की जाती है कि आरोप-प्रत्यारोप अपने-अपने तथ्यों के आधार पर उपलब्धियों या काम-काज  के दावों और उन्हें नकारने तक सीमित रहेंगे. आक्रामकता स्वाभाविक है कि होगी लेकिन व्यक्तिगत लांछनों और चरित्र-हनन से बचा जाएगा. व्यवहार में ऐसी आदर्श स्थिति शायद ही होती हो. आरोप-प्रत्यारोप कई बार बहुत कटु भी हुए हैं और व्यक्तिगत स्तर तक भी लेकिन शालीनता और नैतिकता की सीमा नहीं टूटा करती थी.

याद कीजिए 1963 में नेहरू सरकार पर लोहिया के आरोप. लोक सभा की वह लम्बी बहस आज और भी प्रासंगिक हो गयी है. वह चुनाव का समय नहीं था. तब भी लोहिया ने तथ्यों , आंकड़ों, अपने अध्ययन एवं अनुभव के बूते नेहरू सरकार की धज्जियाँ उड़ा दी थीं. उन्होंने यहां तक कहा था कि जब देश की गरीब जनता औसत तीन आने पर गुजारा कर रही है तब आप पर पचीस हजार रु खर्च किया जा रहा है.’ तत्कालीन प्रधानमंत्री पर यह आरोप लगाने वाले लोहिया स्वयं बहुत सादगीपूर्ण जीवन जीते थे और गरीब जनता के लिए जमीनी संघर्ष करते थे.

आज कांग्रेसी या भाजपाई नेताओं की क्या कहें, लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाले भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं और ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं. इसलिए सरकार में रहते हुए अपने बचाव या विपक्षी नेता के तौर पर सरकार पर हमले करते हुए उनके आरोपों में कोई विश्वसनीयता नहीं होती. उलटे, वे हास्यास्पद लगते हैं.
इसी बात से हमें आज की मर्यादा-विहीन एवं चरित्र-हनन की राजनीति के कारणों का एक सूत्र भी मिलता है. आज की राजनीति जन-सेवा का पर्याय नहीं है. विचार और सिद्धांतों की राजनीति भी कबके विदा हो चुकी. यह येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने और सत्ता हथियाने का दौर है. इसके लिए चुनाव में ऐसे वादे भी खूब कर दिये जाते हैं, जिन्हें पूरा करना लगभग असम्भव होता है या जिन्हें अमल में लाने पर देश और समाज की तरक्की के रास्ते बंद अथवा संकुचित हो जाते हैं.  

वर्तमान समय में किसी पार्टी अथवा नेता में यह नैतिक बल नहीं है कि वह, उदाहरण के लिए, यह कह सके कि किसानों की कर्ज-माफी अर्थव्यवस्था के लिए घातक कदम होगा और न ही इससे कृषि और किसानों का दीर्घकालीन लाभ होगा. उलटे, वे एक-दूसरे से बढ़कर कर्ज-माफी का वादा करते हैं. इसी तरह गरीब जनता के खाते में रकम डालने या किसानों की आय बढ़ाने जैसे वादे करने में एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं. विभिन्न दलों के चुनाव घोषणा-पत्रों में हम ऐसे कई उदाहरण देख सकते हैं. वे शायद ही इसकी चिंता करते हों कि चुनाव जीत जाने पर ये वादे पूरे नहीं किये जा सके तो जनता उन्हें वादाखिलाफ समझेगी. पिछले वर्ष इस बारे में भाजपा नेता और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी का एक बयान विवादित हो चुका है.

बड़बोले एवं अव्यावहारिक वादों से जनता की उम्मीदें बहुत बढ़ जाती हैं. चुनाव जीतकर सत्ता में आने के बाद ऐसी चुनावी घोषणाएं पूरा करना सम्भव नहीं होता या उन्हें आधा-अधूरा पूरा करके खानापूरी की जाती है. अगले चुनाव में स्वाभाविक है कि यह वादाखिलाफीमुद्दा बनेगी. जनता नहीं तो विरोधी दल निश्चय ही पूछेंगे कि अमुक वादों का क्या हुआ? सत्तारूढ़ दल इस अप्रिय स्थिति से बचना चाहेगा. उसे कोई आड़ चाहिए.

यह आड़ पूरे न हुए वादों पर सवालों से बचने के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि कई और अप्रियस्थितियों एवं  मुद्दों को दबाने के लिए भी जरूरी लगती है. हमारे विविध और विशाल देश में समय-समय पर अनेक चुनौतियाँ सिर उठाती रहती हैं. भूख-गरीबी, बेरोजगारी, खेती-किसानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, साम्प्रदायिक तनाव-फसाद, आतंकवाद, अंतरराज्यीय विवाद, जैसे कई मुद्दे कमोबेस स्थाई समस्या बने रहते हैं. इनमें से चंद कुछेक समस्याएँ विकराल हो जाती हैं.

जवलंत समस्याओं का चुनावों में मुद्दा बनना स्वाभाविक है. सत्ता में कोई भी पार्टी हो वह कतई नहीं चाहेगी कि ऐसे मुद्दे चुनाव में जनता के सिर चढ़ कर बोलें. इसलिए उसकी हरचंद कोशिश होती है कि चुनावी विमर्श में कुछ और ही विषय छा जाएं ताकि असल मुद्दे दबे रहें. इसलिए व्यक्तिगत आरोपों से लेकर अनर्गल बातें तक चुनाव मंचों से सुनाई देने लगती है.

शुरू में विरोधी दल ज्वलंत मुद्दे उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन धीरे-धीरे वे भी व्यक्तिगत आरोपों का जवाब अमर्यादित भाषा में देने लगते हैं. वास्तव में विपक्ष के पास भी जनता की समस्याओं के समाधान के लिए कोई विश्वसनीय वैकल्पिक कार्यक्रम या योजनाएं नहीं होतीं. तब हम पाते हैं कि बंदर, राक्षस, दुर्योधन-अर्जुन, पिल्ले की दुम, अली-बजरंगबली, जूते-चप्पल, चड्ढी, पप्पू-पप्पी जैसी अनर्गल टिप्पणियों से लेकर व्यक्तिगत लांछन और तीस-चालीस साल पुरानी अप्रासंगिक बातें चुनाव-सभाओं से उठकर मीडिया की सुर्खियाँ बनने लगती हैं.

इसका चेन-रिएक्शन होता है और आचार संहिता ही नहीं मर्यादा भी तार-तार होती रहती है.       
     
    

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