Friday, May 24, 2019

नयी पीढी, नयी राजनीति और लापता विरासत



नरेंद्र मोदी की प्रचण्ड विजय की कई व्याख्याएँ हैं. अभी कई दिन तक उन पर विभिन्न कोणों से चर्चा होती रहेगी. एक व्याख्या यह भी है कि कांग्रेस मोदी के हिंदुत्व-राष्ट्रवाद-विकास एजेण्डे के मुकाबिल अपने राजनैतिक मूल्य, जिसे वह 'आयडिया ऑफ इण्डिया' कहती है, कतई खड़े नहीं कर सकी. 

कांग्रेस क्या थी, भारत के बारे में उसका क्या विचार था, यह आज की पीढ़ी को पता ही नहीं और आज की कांग्रेस उसे समझा पाने में पूर्णत: विफल है. बल्कि, यह संदेह होता है कि क्या कांग्रेस का नया नेतृत्व स्वयं कांग्रेसियत को समझता है? इस संदेह के पर्याप्त कारण हैं.

1980-90 के दशकों से जो पीढ़ी बड़ी हुई उसने शाहबानो प्रकरण और अयोध्या में राम मंदिर अभियान के दौरान कांग्रेस को पथ-विचलित होते और समर्पण करते देखा. उसके बाद से कांग्रेस मूल्यों की भटकन का ही शिकार होती चली गयी. हिंदुत्व की राजनीति उसी दौरान विकसित हो रही थी. नयी पीढ़ियों ने राजनीति के इसी बदले माहौल में आँखें खोलीं. उन्हें इस नयी राजनीति और कांग्रेस की विरासत का अन्तर बताने-समझाने वाला नेतृत्व नदारद रहा.

राजनैतिक परिदृश्य में जो निर्वात पैदा हुआ उसे हिंदुत्व की राजनीति के नये और आक्रामक पैरोकारों ने बहुत तेजी से भर लिया. नरेंद्र मोदी की 2104 की जीत भ्रष्ट यूपीए शासन से परेशान जनता की नयी उम्मीदों का परिणाम था, जिसे नयी राजनीति में पलती पीढ़ियों ने पूर्ण बहुमत भी दिलवाया.  सन 2019 की प्रचण्ड विजय उस नयी हिंदुत्त्ववादी राजनीति का अखिल भारतीय विस्तार है, जिसमें विकास के नारे और गरीबों के लिए कार्यक्रमों की चाशनी बड़ी खूबी से घोली गयी है.

देश के राजनैतिक मंच पर प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव हो चला था.  कांग्रेस इस मामले में भी गरीब साबित हुई. उस जगह को नरेंद्र मोदी ने बखूबी भर लिया. उन्होंने न केवल अपनी पार्टी में बल्कि, पूरी राजनीति पर मजबूत पकड़ बनायी. पिछले पाँच वर्षों में उनकी छवि शक्तिशाली और निडर नेता की बनती गयी. पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक ने उस पर पक्की मोहर लगा दी. पार्टी पीछे और नेता कहीं आगे हो गया. चुनाव भाजपा नहीं, मोदी जीते हैं.

मोदी-राज के पाँच साल की कुछ बड़ी नकारात्मक बातें थीं. नोटबंदी, बेरोजगारी और किसानों का असंतोष कम से कम ऐसे मुद्दे थे जो आम जनता के मन में आक्रोश पैदा कर सकते थे. विपक्ष इन्हें बड़े चुनावी मुद्दों में तब्दील नहीं कर सका और मोदी ने प्रखर राष्ट्रवाद, मजबूत नेता की छवि एवं कतिपय विकास कार्यक्रमों के जरिए अपनी विफलताओं को ढकने में कामयाबी पा ली.

क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि इतने विशाल और विविधताओं वाले देश में 'सेकुलरिज्म' इस चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं था? हिंदुत्त्व की राजनीति इतनी प्रबल हो गयी है कि राजनैतिक दलों को इस शब्द से डर लगने लगा है. कांग्रेस नेता भी हिंदू बाना धारण करने लगें तो फिर क्या कहा जाए? इसीलिए कहा कि शायद कांग्रेस का नया नेतृत्व 'आयडिया ऑफ इण्डिया' के बारे में स्वयं ही स्पष्ट नहीं है.

नयी पीढ़ी यदि मोदी की दीवानी हो गयी है तो इसलिए कि उसे अपनी बहुलतावादी राजनीतिक विरासत की खूबियों के बारे में कुछ पता ही नहीं और बताने वाले नेता हैं नहीं. नेहरू की 'गलतियों' को भाजपा ने खूब प्रचारित किया लेकिन नेहरू के ऐतिहासिक योगदान को नयी पीढ़ी तक पहुँचाने में कांग्रेस क्यों मौन रही?

भाजपा की राजनीति की उदार नकल से उसकी राजनीति का मुकाबला नहीं किया जा सकता.  उसके सामने वैकल्पिक और बेहतर राजनीति खड़ी करनी होगी. जिस पार्टी के पास यह सब विरासत के रूप में मौजूद है, वही नाकारा हो जाए तो नतीजा और क्या हो सकता था!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 मई, 2019)       
   


No comments: