राज्य
सभा में सत्तारूढ़ गठबंधन के अल्पमत में होने के बावज़ूद सूचना का अधिकार कानून में
संशोधन और तीन तलाक विरोधी विधेयकों का राज्य सभा में पारित हो जाना, भाजपा के रणनीतिकारों की विजय
बताई जा रही है. इसे गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन इसे विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस की बड़ी पराजय के रूप में क्यों नहीं देखा जाना
चाहिए? कांग्रेस के लिए ‘पराजय’
शब्द अब हलका लगने लगा है. जो हम देख रहे हैं वह उस पार्टी का के
लड़ने और खड़े होने की अंतर्निहित क्षमता का पराभव है.
कांग्रेस चुनाव में हार गई. यह कोई बड़ी या नई बात
नहीं है. चुनाव में छोटी-बड़ी पराजय लगी रहती है. क्या वह मानसिक रूप से भी पराजित
हो गई है?
यह सवाल सिर्फ राज्य सभा में विवादास्पद विधेयकों के पारित हो जाने
से ही नहीं उठ रहा. कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) की सरकार गिराने का बड़ा कारण
कांग्रेस विधायकों का खुद को निराश्रित अनुभव करना था. भाजपा विधायकों की
खरीद-फरोख्त में लगी थी तो कांग्रेस नेतृत्व क्या कर रहा था? अपने विधायकों-कार्यकर्ताओं की बात सुनने-समझने वाला नेतृत्व कहाँ था?
केंद्रीय अध्यक्ष नहीं है तो राज्य इकाई के नेता क्या कर रहे थे?
उन्होंने अपने निर्वाचित विधायकों को क्यों निकल जाने दिया, जबकि पार्टी वह सरकार में शामिल थी? हालात तो ऐसे थे
कि उन्हें विधायकों के चले जाने की आहट तक नहीं सुनाई दी या वे सब जानते-बूझते भी
असहाय-से थे.
सिर्फ कर्नाटक ही क्यों, देश भर में उसके विधायक, सांसद भाजपा की ओर भाग रहे
हैं. राहुल की ‘भूतपूर्व’ अमेठी के जो
संजय सिंह परसों ही राज्यसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए हैं, उन्होंने साल-डेढ़ेक पहले भी पाला बदलने के संकेत दिए थे. तब
कांग्रेस-नेतृत्व ने उन्हें असम से राज्य सभा में भेजकर मना लिया था. सही-गलत किसी भी कारण से आज खिन्न
कांग्रेसियों की सुनने वाला, उन्हें को मनाने-समझाने वाला है
कोई? भाजपा कुछ राज्यों में अल्पमत में होने के बावज़ूद
सरकार-बचा ले जा रही है लेकिन कांग्रेस अपनी बनी-बनाई सरकार भी गँवा दे रही है.
कांग्रेस की तुलना ग्रीक पुरा-कथाओं के उस
चमत्कारिक पक्षी से की जाती रही है जो कहते हैं कि अपनी राख से पुनर्जीवित हो कर
फिर आसमान में ऊंची उड़ान भरने लगता है. ऐसी तुलना करने के कारण हैं. साठ-सत्तर के
दशक के बाद जब-जब ऐसा लगा कि कांग्रेस अब समाप्तप्राय है या जब भी उसके अन्त की
भविष्यवाणियाँ की गईं, वह सभी को चौंकाते हुए नया जीवन
पाकर, और ताकतवर होकर राजनैतिक परिदृश्य पर छा गई.
2014 की सबसे बुरी पराजय के बाद भी कहा जा रहा था
कि यह कांग्रेस के एक और पुनर्जीवन का अवसर है. 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों के चुनावों में उसकी विजय के बाद यह
सम्भावना बलवती होती दिख रही थी. राहुल में भी नेतृत्व क्षमता की चमक दिखाई दे रही
थी किंतु 2019 के चुनाव ने उस सम्भावना को क्रूर ढंग से नकार दिया.
ऐसा नहीं कि चुनावों में विजय से ही किसी पार्टी के
पुनर्जीवन की राह खुलती हो. देश के आम जन के सुख-दुख से जुड़कर, उनकी आवाज बनने की कोशिश करते हुए अपने संगठन में प्राण फूंकने से कोई
पार्टी अपनी धड़कनें बेहतर लौटा ला सकती है. 2019 की करारी हार के बाद तो कांग्रेस
से ऐसी अपेक्षा की ही जानी चाहिए थी. राहुल गांधी स्वयं इस ज़िम्मेदारी से भाग खड़े
हुए तो नेतृत्व की नई सम्भावनाएं बननी चाहिए थीं. बल्कि, नेहरू-गांधी
वंश के बाहर से नया नेता चुनने का यह स्वर्णिम अवसर कांग्रेस को मिला है. ‘वंशवाद’ के उस दाग को धोने का इससे अच्छा मौका और
क्या हो सकता जो कई दशक से विरोधी दलों के पास उसके खिलाफ सबसे बड़ा हथियार रहा है.
कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाने की बजाय हताश-निराश
दिखाई दे रही है. अब तक नेता-चयन की कोई प्रक्रिया ही शुरू नहीं हुई है. कांग्रेस
कार्यसमिति, जिसे यह दायित्व उठाना है, गुम-सुम पड़ी है. अपने राजनैतिक भविष्य के लिए चिंतित कई कांग्रेसी भाजपा
की ओर सहज ही खिंचे चले जा रहे हों तो क्या आश्चर्य? ऐसे में
भाजपा पर विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त का दोष क्या मँढ़ना?
राहुल ने इस्तीफा वापस लेने से अंतिम रूप से मन
करते हुए साफ कह दिया था कि कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का ही कोई
नेता चुनना होगा लेकिन देखिए कि पूर्णकालिक अध्यक्ष के चयन तक के लिए किसे
कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया. कभी रहे होंगे मोतीलाल बोरा जनता
से जुड़े तेज-तर्रार नेता, आज तो उनकी उम्र ने ही उन्हें
राजनीति के नेपथ्य में धकेल रखा है. नब्बे वर्षीय बोरा को जनता की क्या कहें,
कांग्रेस की नई पीढ़ी ही ठीक से जानती नहीं होगी. यदि उनके अंतरिम
अध्यक्ष बनने की एकमात्र योग्यता 10-जनपथ के प्रति उनकी असंदिग्ध वफादारी है तो
पूछना होगा कि आखिर देश की यह सबसे पुरानी और गहरी जड़ों वाली पार्टी नेहरू-गांधी
परिवार के वर्चस्व से मुक्त कैसे हो पाएगी? या कि वह मुक्त
होना भी चाहती है?
यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि जब भाजपा 75-पार
के अपने दिग्गज नेताओं को भी किनारे कर दे रही है तब कांग्रेस लाचार और बूढ़े
नेताओं के सहारे नया अवतार तलाशने की कोशिश में है. अपने युवा, ऊर्जावान और सक्षम नेताओं की ओर वह देख ही नहीं रही. मध्य प्रदेश और
राजस्थान में मुख्यमंत्री के चयन के समय भी युवा नेताओं की उपेक्षा की गई, हालांकि उस समय पार्टी का नेतृत्व पूरी तरह युवा राहुल के हाथों में
था.
नेतृत्वहीनता की इस स्थिति में इधर कई कांग्रेसी
कोनों से यह सुनाई देने लगा है कि प्रियंका गांधी को पार्टी अध्यक्ष बना दिया जाए, या कम से कम अंतरिम अध्यक्ष का कार्यभार ही उन्हें सौंप दिया जाए. जाहिर
है कि पुराने कांग्रेसी नेता हों या बचे-खुचे कार्यकर्ता, वे
इस परिवार के मोह या जादू से मुक्त हो नहीं पा रहे. युवा नेतृत्व के नाम पर राहुल
के बाद प्रियंका ही याद आ रही हैं. यह आशंका भी पुराने और बूढ़े कांग्रेसी ही जता
रहे हैं कि यदि परिवार से बाहर का कोई नेता अध्यक्ष बनता है तो कांग्रेस टूट
जाएगी.
इस पार्टी का इतिहास बताता है कि टूटने-फूटने से
कांग्रेस खत्म नहीं होगी. वह अपने जन्म से अब तक कई विभाजन देख चुकी है. कांग्रेस
का मूल विचार बचा रहेगा और देश की विविधता की रक्षा के लिए लड़ने संकल्प बना रहेगा तो
कांग्रेस किसी भी छोटे धड़े से पुनर्जीवित हो उठेगी. पार्टी में टूटन से डरकर ही उस
परिवार की छत्र-छाया में पड़े-पड़े तो पार्टी बचने से रही.
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