बरसात में
टपकती किसी सरकारी दफ्तर या स्कूल की टपकती छत के नीचे छाता लिए बैठे कर्माचारियों
या विद्यार्थियों के किस्से पहले कोई अफसर स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था. अब
सोशल साइटों में वायरल होते वीडियो को झूठा साबित करना मुश्किल होता है. मिर्ज़ापुर
के एक स्कूल में मिड डे मील में नमक-रोटी खाते बच्चों की फोटो को प्रशासन झुठला
नहीं पाया. उसने वीडियो को सरकार के खिलाफ साजिश मानकर पत्रकार के खिलाफ मुकदमा
दर्ज़ कर दिया लेकिन दूसरे दिन से बच्चों को ठीक-ठाक खाना मिलने लगा. स्कूल की भी
हालत सुधर गई.
इसी तरह
पहले पुलिस अधिकारी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते थे कि उनके कर्तव्य-परायण
दारोगा-सिपाही किसी नागरिक का सत्कार लात-जूतों और गालियों से करते हैं. अब नए-नए वीडियो
सामने आने पर कभी उन्हें जांच बैठानी पड़ रही है, कभी
सीधे निलम्बन की कार्रवाई करनी पड़ रही है.
अभी चंद दिन
पहले एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की एक बस में एक यात्री
छाता ओढ़े बैठा था. वह खस्ताहाल बस अम्बेडकर नगर डिपो की थी जिसकी छत छू रही थी. खिड़कियों
के शीशों और सीट की गद्दियों का क्या पूछना. इसके बावज़ूद बस यात्रियों को ढो रही
थी. ऐसी खबरों पर आम तौर पर अधिकारी खण्डन भेज देते हैं. चलती बस में छाता ओढ़कर
बैठे यात्री का वीडियो देख कर अधिकारियों को मज़बूरन एक जूनियर फोरमैन को निलम्बित
करना पड़ा और जांच भी बैठा दी.
जूनियर
फोरमैन से भी जूनियर कोई कर्मचारी होगा नहीं, इसलिए
उसी को निलम्बित कर दिया गया. किसी अधिकारी की इसमें कोई ज़िम्मेदारी कहां बनती है!
राजधानी से जितनी दूर जाएंगे, उतनी ही
ज़्यादा खटारा बसें सड़कों पर चलती दिखाई देती हैं. अक्सर होने वाली बस-दुर्घटनाओं
के पीछे भी बसों का खस्ताहाल होना पाया जाता है. जूनियर फोरमैन ही गड़बड़ करते होंगे.
कुछ महीने
पहले की बात है. सरकार के नोडल अधिकारी ने
फतेहगढ़ डिपो के दौरे में पाया था कि कई खटारा बसें चलाई जा रही थीं. उन्होंने वहां
के ज़िम्मेदार अधिकारियों से जवाब भी तलब किया था कि ऐसी बसें मरम्मत के लिए क्यों
नहीं भेजी जा रहीं जिनकी बॉडी बहुत खराब हालत में है और खिड़कियों में शीशे नहीं
हैं. पिछले साल की एक खबर अब तक याद है जो
एक दुर्घटना के बाद आकस्मिक छापे में सामने आई थी. दस लाख किमी से ज़्यादा चल चुकी
नौ बसें खस्ताहाल होने के बावजूद चलाई जा रही थीं. उनका हाल में कोई रख-रखाव नहीं
हुआ था. यह काम किसी जूनियर फोरमैन का तो नहीं ही होगा.
परिवहन निगम
के बेड़े में तीन हज़ार से कुछ ही कम बसें
अनुबंधित श्रेणी की भी हैं. यानी निजी बसें जो परिवहन निगम अनुबंध पर चलवाता है.
इन अनुबंधित बसों की अराजकता के अनगिन किस्से कबसे चले आ रहे हैं. रख-रखाव पर न्यूनतम
व्यय करके अधिकाधिक कमाई करने के उद्देश्य से चलने वाली इन अनुबंधित बसों के लिए
यात्रियों की सुरक्षा या सुविधा का कोई अर्थ नहीं होता. ग्रामीण-कस्बाई मार्गों पर
और अनेक बार राजमार्गों पर भी इनकी मनमानी के चरचे सुनाई देते हैं. परिवहन निगम
इनकी ओर शायद ही ध्यान देता हो
कुछ समय
पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश से एक और गज़ब मामला सामने आया था. ‘उत्तर
प्रदेश परिवर्तन निगम’
नाम से हू-ब-हू परिवहन
निगम जैसी बसें चलती पाई गईं. ‘परिवहन’ का
यह ‘परिवर्तन’ अद्भुत ही
रहा. उसका क्या हुआ,
पता नहीं चला.
कुछ न कुछ अज़ूब चलता रहता है. वीडियो से कभी-कभार कुछ सच सामने आ जाते हैं. इसीलिए वीडियो बनाने वाले और जूनियर फोरमैन अब पकड़े जाने लगे हैं!
(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 सितम्बर, 2019)
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