Friday, September 27, 2019

शरद ऋतु का यह झमाझम वर्षा-राग




ऋतु-चक्र के हिसाब से शरद ऋतु का आगमन हो चुका है लेकिन आसमान ऐसे बरस रहा है जैसे वर्षा ऋतु से मनमौजी होली खेलने को वह अचानक आतुर हुआ हो. सावन-भादौ में ऐसी झड़ी नहीं लगी जैसी पिछले छत्तीस घण्टे (इन पंक्तियों को लिखे जाते समय तक) से निरंतर लगी हुई है. जब बरसना था तब बादलों को जाने क्यों संकोच हुआ. रह-रह कर बूंदें गिराकर भूल जाते रहे. अब लगता है कि बरसना शुरू करके बंद होना भूल गए हैं.

आकाश में उमड़-घुमड़ नहीं है. बादलों के बीच गर्जन-तर्जन और कड़कती बिजली की चमकी नहीं है. बादलों के यूथ भांति-भांति के रंगों में इधर से उधर नहीं उड़ रहे. बराबर सघन और समान रूप से भूरे बादलों की एक मोटी परत आसमान में जमी हुई दिखती है. जैसे एक इकरंगी विशाल सिल्ली कहीं से आकर ऊपर टिक गई हो. बादलों की वह मोटी सिल्ली पिघल रही है. पिघलते-पिघलते और सघन होती जा रही है. इस बारिश में इसीलिए एक लय है.

लखनऊ का आसमान आम तौर पर सितम्बर में ही टूटता रहा है. अब तक यहां जितना बाढ़ें आई, इसी मास आईं. इस बार सितम्बर को भी जैसे देर से ही लगा कि अवध की धरती को तर-बतर करना था. मूसलधार नहीं है लेकिन खूब मज़े की झड़ी है. धरती की छाती खुली होती तो भीतरी परतों तक पानी समाने के लिए ऐसी वर्षा उत्तम होती है. मूसलधार तो टिकती-रिसती नहीं, सब कुछ बहा ले जाती है. मगर कंक्रीट के शहर में यह पानी धरती के भीतर जाए कैसे. सो, निचले इलाकों में पानी ही पानी दिख रहा. अखबार लिख रहे हैं कि शहर पानी-पानी हो गया. हमें लगता है कि 'पानी-पानी' तो विकास का यह पैमाना हुआ है जो इतनी शालीन बारिश को भी सम्भाल नहीं पा रहा. बरसे तो आफत, न बरसे तो हा-हाकर.

शहर वाले जल-भराव से परेशान हैं तो गांवों में किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गई हैं. खेतों में लगभग तैयार धान बारिश के बोझ से जमीन में बिछा जा रहा है. यह बालियों के भीतर दूधिया दानों के पकने और मजबूत होने का समय है. उसे धूप चाहिए थी लेकिन बादलों ने डटे रहने की कसम-सी खा रखी है. सरकार की नीतियों से परेशान किसान को मौसमों के बिगड़े तेवर भी हैरान किए रहते हैं.

शरद की वर्षा ठण्ड लाती है. दिन का तापमान एकाएक सात-आठ डिग्री कम हो गया है. इस समय भीगना आनंद नहीं, खतरा है. खतरे और भी हैं. बादलों की घनी परत के हटते ही क्वार की तीखी धूप चटखेगी तो जीवाणु-विषाणु सक्रिय हो उठेंगे. डेंगू जैसे रोगों के साथ वायरस जनित बीमारियां तेजी से फैलेंगी. क्या विडम्बना है कि मौसम अब अपनी रंगतों, स्वादों, पर्व-त्योहारों, पकवानों-पहनावों आदि से नहीं, बीमारियों के नाम से पहचाने जाने लगे हैं. बरसात में डेंगू-चिकुनगुनिया, जाड़ों में स्वाइन फ्लू, गर्मियों में वायरल बुखार आतंक मचाने लगे हैं.

बरसात की इस झड़ी के कई चेहरे हैं. एक शहरी समाज समस्याओं के बावजूद आनंद मना रहा है. कई चिह्नित ठिकानों में युवाओं की मस्त टोलियां बाहर-भीतर से भीग रही हैं. घरों की रसोई से लेकर ढाबों तक कढ़ाहियों में पकौड़ियां तली जा रही हैं. उधर, टपकती झुग्गियों में गृहस्थी बचाने की कवायद है. पेड़ों पर लटकते बोरों में बंधी दिहाड़ी मजदूरों की गृहस्थी उदास है. दिहाड़ी बंद है और चूल्हा गीला. शहर में कितनों ही की रोजी-रोटी पर संकट बन कर आई है यह झड़ी.

यह 'आवारा बादलों' का शायराना किस्सा नहीं है कि वाह-वाह ही की जाए. शिकायत करिएगा भी तो किससे! 


(सिटी तमाशा, 28 सितम्बर, 2019)

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