Friday, February 21, 2020

बहुत कुछ मिट गया, कॉफी हाउस कैसे बचेगा


साहित्यकारों , पत्रकारों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, राजनेताओं, समाजसेवियों आदि का लोकप्रिय और पुराना अड्डा, लखनऊ का कॉफी हाउस एक बार फिर खतरे में है. पिछले दिनों किसी ने उस पर अपना हक जताते हुए ताला डाल दिया जिसे उच्च स्तर पर हस्तक्षेप के बाद खोल तो दिया गया लेकिन विवाद बना हुआ है. कॉफी हाउस से मुहब्बत करने वाले सरकार और राज्यपाल से अपील कर रहे हैं कि इस ऐतिहासिक अड्डे को बचा लिया जाए.

यह खतरा पहली बार नहीं आया है. पहले भी वह कई बार बंद हो चुका है. कभी उसे बेचने की तो कभी उस पर कब्जे की कोशिशें हुई हैं. भावनात्मक जुड़ाव और इतिहास का गवाह होने के बावज़ूद कॉफी हाउस ऐसे दौर से भी गुजरता है जब उसके पास बिजली का बिल जमा करने के लिए धन नहीं होता. बार-बार उसे जिला लिया गया तो सिर्फ इसलिए कि अभी इस शहर में ऐसे लोग हैं जो उसके लिए आवाज़ उठाते रहते हैं.

इस बार भी शायद उसे बचा लिया जाए लेकिन इन हालात में कब तक उसकी खैर मनाई जा सकती है? लखनऊ की कितनी पहचानें धीरे-धीरे गायब हो गईं. हो गईं या कर दी गईं. इतिहास और सांस्कृतिक पहचानों को बनाए रखने में हम विफल रहे हैं. भू-माफिया ही नहीं, सरकारें, प्राधिकरण और निगम तक विरासतों को लील जाते रहे और हम सिर्फ अपील या स्यापा करते रहे.

इसी लखनऊ में मुंशी नवलकिशोर का छापाखाना था जो 1858 में स्थापित हुआ था और जिसने 1861 में मिर्ज़ा गालिब के दीवान से लेकर उर्दू-फारसी की ऐसी-ऐसी किताबें छापीं जिनके बारे में सोच-सोच कर आश्चर्य होता है. नवलकिशोर प्रेस लखनऊ की  शान और पहचान दोनों था, जहां से न केवल सालों-साल चलने वाला अवध अखबारनिकला बल्कि मुंशी जी के वंशज विशन नारायण भार्गव और दुलारेलाल भार्गव ने माधुरी’ (1922) और सुधा’ (1927) जैसी साहित्यिक पत्रिकाएं भी निकालीं. प्रेमचंद, निराला और उस समय के कई जाने-माने साहित्यकार इन पत्रिकाओं और नवलकिशोर प्रेस से जुड़े थे. आज कहां है वह समृद्ध विरासत और कितनों को उसकी जानकारी है?

जिन यशपाल, अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा की साहित्यकार तिकड़ी की बैठकी के लिए कॉफी हाउस को कुछ लोग आज भी याद करते हैं, उन्हीं में से यशपाल जी के विप्लव प्रेस की क्या आज कोई निशानी बची है? हीवेट रोड की वह ऐतिहासिक इमारत जहां से यशपाल जी ने विप्लवके कई अंक निकाले, उसे बचाने के किसने और कितने प्रयास किए? एक दिन कुछ लोगों ने उस कोठी पर कब्जा किया और फिर वहां व्यावसायिक प्रतिष्ठान खड़े हो गए.

चौक की जिस शाहजी की कोठी में नागर जी बरसों बरस रहे, जिस बैठक में उन्होंने बोल-बोल कर कई बड़े उपन्यास लिखवाए, जहां लखनऊ की विरासत सहेजी और जिस विशाल आंगन में महत्त्वपूर्ण आयोजन हुए, वह कोठी आज ढहने को है? नागर जी की स्मृति में वहां संग्रहालय बनने की बातें कहां खो गईं? लालजी टंडन जैसे नागर जी के और कॉफी हाउस के भी प्रेमी कुछ कर पाए क्या? भगवती बाबू की अपनी कोठी परिवारी जनों के कारण सुरक्षित तो है लेकिन क्या उस चित्रलेखाको आज कोई याद करता है, गर्व करना तो दूर?

मीर से लेकर मज़ाज़ और बेगम अख्तर की यादें ही यहां कितनी बची हैं और किस हाल में हैं? कॉफी हाउस भी एक दिन ऐसी ही याद बन कर रह जाएगा. वहां कोई बड़ा शो-रूम दिखाई देगा. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक पहचान और विरासत को खो देने वाला समाज बिना जड़ के पेड़ जैसा ढह पड़ता है.

ढह नहींं रहे क्या हम?
    
('सिटी तमाशा' नभाटा, 22 फरवरी, 2020)

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