Tuesday, February 11, 2020

अमित शाह को लगा करण्ट और योगी के हिस्से बिरयानी



दिल्ली के मतदाताओं ने भारी बहुमत से फिर ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार चुनी है. भाजपा की घोर साम्प्रदायिक राजनीति खारिज हुई लेकिन उसने कुछ असर अवश्य डाला है.  इसी कारण उसका मत-प्रतिशत अच्छा बढ़ा हालांकि सीटें चंद ही बढ़ पाईं. केजरीवाल सरकार के स्कूल,  अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी और अन्य जन हितैषी काम भाजपा की नफरत की राजनीति पर खूब भारी पड़े. कांग्रेस का फिर सफाया हुआ है. उसके लिए फिलहाल यही संतोष है कि भाजपा नहीं जीती.

झारखण्ड के बाद दिल्ली की करारी हार मोदी और शाह के लिए सबक है. यह इस देश के बहुलतावादी चरित्र के लिए आशा की किरण है. सीएए के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों को भी यह ताकत देगा. आपका यह बयान महत्वपूर्ण है कि यह जीत देशभक्ति की है. भाजपा ने केजरीवाल को पाकिस्तान समर्थक से लेकर आतंकवादी तक बताया था.          

दिल्ली का किला फतह करने के लिए भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. चुनाव जिताने के माहिर अमित शाह ने खुद मोर्चा सम्भाला और रात तक गली-मोहल्लों में उन्होंने पर्चे बांटे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सीधे मैदान में उतारा और नारा दिया- “दिल्ली चले मोदी के साथ.”

दिल्ली मोदी के साथ नहीं चली. वह केजरीवाल के पीछे मजबूती से खड़ी है.  

अमित शाह ने अपने 200 सांसदों, और पचास वर्तमान या पूर्व मंत्रियों को दिल्ली की सड़कों-गली-मुहल्लों में उतार रखा था कि दिल्ली का चुनाव हर हाल में जीतना है. उसके नेताओं ने 5677 आम सभाएं और रोड शो किए. 52 सभाएं और और रोड शो अकेले अमित शाह ने किए. 41 सभाएं राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने और 12 रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कीं. इसी ताकत के दम पर अमित शाह ने अपील की थी –गुस्से में इस तरह बटन दबाना कि शाहीनबाग वालों को करण्ट लगे.

दिल्ली वालों ने शाहीनबाग को नहीं, फिलहाल अमित शाह को ही करण्ट लगाया है.   

भाजपा को लगता था कि केजरीवाल का पलड़ा भारी है. इसलिए उसने केजरीवाल को बदनाम करने के लिए हर चाल चली. शाहीनबाग के सीएए विरोधी प्रदर्शन को केजरीवाल से जोड़ा ही नहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा के स्टार प्रचारक आदित्यनाथ योगी ने रहस्योद्घाटनकिया कि केजरीवाल शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को बिरयानी खिलाता है. केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने तो यहां तक कह दिया कि केजरीवाल आतंकवादी है.

दिल्ली के नतीजे वास्तव में योगी को बिरयानी परोसने  और जावड़ेकर को आईना दिखाने वाले हैं.

भाजपा नेताओं ने पूरे चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाने की हर साजिश की. इस प्रयास में उसके नेताओं ने नैतिकता और शालीनता की सभी सीमाएं पार कीं. दिल्ली से उसके सांसद परवेश शर्मा ने दिल्ली की जनता से यह तक कहा कि शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी आपके घरों में घुसकर आपकी बहन-बेटियों से बलात्कार करेंगे और उन्हें मार डालेंगे. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने अपनी सभा में नारे लगवाए थे- देश के गद्दारों को... गोली मारों सालों को.

दिल्ली वालों ने इन कुवचनों पर ध्यान नहीं दिया.

भाजपा ने नए नागरिकता कानून को उसने हिंदू हितों का रखवाला और ’70 सालों का अन्यायदूर करने वाला बताया. इसी तरह कश्नीर से अनुच्छेद 370 हटाने के मोदी सरकार के फैसले को दिल्ली चुनाव में भुनाने की कोशिश की.

दिल्ली की जनता ने राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं, स्थानीय मुद्दों पर फैसला सुनाया. सीएए मुद्दा था भी तो बहुमत ने उसका साथ नहीं दिया.

जामिया विश्वविद्यालय में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी छात्र-छात्राओं पर पुलिस ने जुल्म ढाया. जेएनयू में पुलिस संरक्षण में गुण्डों ने प्राध्यापकों और विद्यार्थियों को लहू-लुहान किया. जामिया और जेएनयू को भाजपा ने राष्ट्रविरोधी तत्वों का अड्डा बताया. हर तरह से उन्हें बदनाम करने की कोशिश की.

दिल्ली के मतदाताओं ने अयह कुपाठ पढ़ने से मना कर दिया.  

भाजपा ने जिस तरह अपनी पूरी ताकत झोंकी, नफरत की जैसी राजनीति की, जिस तरह हिंदू-मुसलमान को मुद्दा बनाया और खुद प्रधानमंत्री ने यह कहकर कि संविधान और तिरंगे की आड़ लेकर देश को तोड़ने का प्रयोग हो रहा है, जिस तरह लोकतांत्रिक और संवैधानिक विरोध को गलत रंग देने की की कोशिश की, उसने कुछ तो असर दिखाया है. उसके वोट प्रतिशत में अच्छी वृद्धि हुई है. कुछ सीटें वह बहुत कम अन्तर से हारी. एक बार तो वह 21 सीटों पर बढ़त में थी. 

राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को अभी खारिज करना इतना आसान नहीं. विधान सभा के साथ दिल्ली में लोक सभा चुनाव भी हुए होते तो क्या परिणाम इसी के आनुपातिक होते? क्या केंद्रीय स्तर पर केजरीवाल मोदी को चुनौती दे सकते हैं? कहना बहुत कठिन है. कुछ महीने पहले हुए चुनाव में आप दिल्ली में तीसरे स्थान पर रही थी. एक भी विधान सभा सीट पर उसे बढ़त नहीं मिली थी.

बहरहाल, ‘आपकी दिल्ली-विजय में केजरीवाल की इस समझदारी का भी बड़ा हाथ रहा कि उन्होंने भाजपा के साम्प्रदायिक प्रचार के जाल में फंसने की बजाय अपनी सरकार की उपलब्धियों पर ही चुनाव लड़ा. केजरीवाल ने शाहीनबाग से भी दूरी बनाए रखी. न वे भाजपा के उकसावे में आए, न ही उसके आरोपों की काट करने में उलझे. उन्होंने यह कुश्ती अपने ही अखाड़े में लड़ी.         

कांग्रेस का सूपड़ा फिर साफ है. यह इस राष्ट्रीय पार्टी और उसके नेतृत्व के लिए गम्भीर चिंतन का मुद्दा होना चाहिए. उसने दिल्ली का चुनाव पूरी ताकत से लड़ा भी नहीं. क्या वह आपके लिए रास्ता आसान कर रही थी? या, कांग्रेस के आधार वोटर ने भाजपा का साथ देकर उसे मजबूत बनाया? यह विश्लेषण और अटकलबाजी होते रहेंगे.

फिलहाल, भाजपा की राज्यों में पराजय का सिलसिला और आगे बढ़ा है. और, मोदी और शाह की आंखों में केजरीवाल खटकते रहेंगे.   
     


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