Friday, February 07, 2020

कस्बों की छाप अब भी बाकी लेकिन कब तक?

फिलहाल तो चारों तरफ डिफेंस एक्स्पो’ की चर्चा है और स्वाभाविक है. भारतीय सेना के शौर्य-प्रदर्शन के साथ प्रतिरक्षा उद्योग के लिए अपनी सम्भावनाओं और क्षमताओं को दिखाने का यह सर्वोत्तम अवसर है. बहुत महत्त्वाकांक्षी और अंतराष्ट्रीय स्तर का बड़ा आयोजन. इसकी गूंज दूर तक सुनाई देनी है.
पिछले सप्ताह राजधानी में बिल्कुल दूसरी तरह का एक आयोजन हुआ जिसने हमें धीरे-धीरे हमसे छूट रहे जीवनपरम्परा और सांस्कृतिक विरासत के अंतरंगता के साथ दर्शन कराए. सनतकदा के पांच दिनी महोत्सव का विषय इस बार अवध के कस्बाती रंग’ था. अवध के कस्बों का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है जिसने यहां की गंगा-जमुनी तहज़ीब को रचा-पोषा और दूर-दूर तक फैलाया. उस परम्परा के प्रदर्शन को देखना-महसूस करना गर्व करने के साथ भावुक बना देना वाला भी रहा.
आम तौर पर लखनऊ और उसकी विरासत की चर्चा में उसके चौरतरफा कस्बों का ज़िक्र नहीं आया करता. लखनऊ के नवाबी इतिहासब्रिटिश काल और आधुनिक स्वरूप की चर्चा बहुत होती है. उस बारे में देसी-विदेशी इतिहासकारों ने कई किताबें लिखीं लेकिन उन कस्बों पर कम ही ध्यान गया है जो लखनऊ के बनने से पहले से अस्तित्व में थे और जिनके होने से लखनऊ वह लखनऊ’ बना जिसे अंतराष्ट्रीय ख्याति मिली.
लखनऊ के चारों तरफ के उन शांत मगर जीवन से धड़कते कस्बों में सूफी संत हुएलौकिक और पारलौकिक प्रेम की शायरी रची गईनाच-नौटंकी और रंगमंच विकसित हुआमोहर्रमताजियों और रामलीलाओं में भागीदारी पनपीविविध स्वादिष्ट खान-पान निकले और चर्चित हुएप्रेम-प्रसंगों ने तमाम दीवारें तोड़ींअजूबा-सी इमारतें बनींकिस्से गढ़े गए और मेले लगे. वहीं किसानों ने जमीदारों के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया तो अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत के बीज भी पड़े. अनन्त कथाएं हैं कस्बों की.
आज कहां और किस हाल में हैं अवध के ये ऐतिहासिक कस्बे? जिनका जिक्र बड़े गर्व से वहां के वाशिंदे अपने नाम में किया करते थे (जैसे-बिलग्रामीमलिहाबादीकाकोरवीआदि) वे कस्बे तथाकथित विकास की धारा में धीरे-धीरे गुम होते गए. शहर फैलाकस्बे सिकुड़ेजमीनें और बाग बिकेनई पीढ़ी नई शिक्षा और जीवन-शैली की तरफ दौड़ीगीत-संगीत-साहित्य-नाट्य-रहन-सहन-खान-पानहर क्षेत्र में हर नए ने हर पुराने को पीछे धकेल दिया.
लखौरी ईटों से बनी इमारतों से झड़ते सुर्खी-चूने की तरह धीरे-धीरे कस्बों का समृद्ध जीवन-वैविध्य छीज गया. सण्डीला के लड्डू का नाम आज भी है लेकिन खान-पान के नए बाजार ने उसकी आत्मा और स्वाद दोनों निचोड़ लिए. कस्बों के साथ ऐसा हर क्षेत्र में हुआ. कस्बों से आगे गांवों के साथ भी ऐसा ही हुआ और हो रहा है.
कस्बों-गांवों को वैसा ही नहीं रह जाना था. उन्हें बदलना था और आगे बढ़ना था लेकिन अपनापन और विरासत नहीं खोनी थी. नया सीखना और करना था लेकिन अपनी जड़ें बचा कर रखनी थीं ताकि नया भी उनसे महके और वह खास पहचान ग्रहण करे जो स्थानीय कहलाती है. भाषा-बोलियों और उनके सृजन-संसार के साथ भी यही होना था. किंतुविकास की जो धारा चली कि उसने पूरे देश में ही ऐसा नहीं होने दिया तो अवध के कस्बों-गांवों में क्या होता.
सनतकदा के इस महोत्सव ने दिखाया कि खण्डहरों की तरह या जतन से बचाई गई कुछेक पुश्तैनी इमारतों की तरह अवध के कस्बों का कुछ जीवनरंग और स्वाद अब भी बचा है. कुछ झलकियां मिलीं और जी जुड़ा गया. लेकिन कब तकस्थानीय विशिष्टताओं को बहुत तेजी से निगलते हुए जो नव-उदारवादी अजगर बढ़ा चला आ रहा हैउसके सामने छोटी-छोटी व्यक्तिगत कोशिशें कितनी देर तक टिक सकती हैं.    
(सिटी तमाशा, नभाटा, 8 फरवरी, 2020)

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