‘काला महीना’ बीत गया। आज से नवरात्र शुरू हो गए हैं। हवा में शारदीय त्योहारों की गमक है लेकिन इस बार वह धमक नहीं है जो इस ऋतु की बहुत जानी पहचानी है। कोरोना का संक्रमण आंकड़ों में कम हो गया दीखता है और बाजारों में भी कुछ चहल-पहल लौटी है लेकिन आशंकाएं कम नहीं हुईं। बल्कि खतरा बढ़ गया है कि इस त्योहारी मौसम की लापरवाहियां और हवा में बढ़ते प्रदूषण-कणों के कारण वायरस फिर बेकाबू न हो जाए। यूरोप के देश संक्रमण के दूसरे दौर से हलकान हैं।
अप्रैल-मई की देशव्यापी बंदी ने कामगार
तबके का बहुत नुकसान किया। करोड़ों की संख्या में दिहाड़ी श्रमिक, ठेले-खोंचे
वाले, छोटे-छोटे दुकानदार, वगैरह भुखमरी
की कगार पर आ गए थे जिससे उबरना अब तक हो नहीं पाया। यह त्योहारी मौसम इस असंगठित क्षेत्र
की कमाई का बड़ा जरिया होता था। मकानों की रंगाई-पुताई से लेकर पण्डाल बनाने-सजाने,
साज-सज्जा का सामान, खेल-खिलौने, कुम्हार-कलाओं, गुब्बारों से लेकर धनुष-बाण, पिपहरी, चाट, आदि-आदि। यह असंगठित
क्षेत्र इतना विशाल है कि गिनाना मुश्किल। उसकी लगभग आधे साल की और किसी-किसी की तो
पूरे साल की कमाई इसी त्योहारी मौसम में होती थी। उस पर दूसरी आफत टूट रही है।
सरकार ने रामलीलाओं और पूजा-पण्डालों को सीमित अनुमति दी है।
इससे भक्ति-भाव तो शायद पूरा हो जाए, इनसे जुड़े आम जन की आर्थिकी को कोई सहारा नहीं
मिलने वाला। इन दिनों घर-घर रंगाई-पुताई-सफाई का काम चलता था। कारीगर ढूंढे नहीं मिलते
थे और दिन-रात दो-दो पालियों में काम करते थे। आप अपने आस-पास देख सकते हैं कि यह धंधा
किस कदर प्रभावित हुआ है। कोरोना की चिंता किए बगैर श्रमिक काम करने के लिए तैयार हैं
लेकिन काम कराने वाले बेहद सतर्क हैं। किसी-किसी घर में ही काम लगा दिख रहा है।
नवरात्र, दशहरा-दीवाली से लेकर नव वर्ष तक के बेशुमार
आयोजन बड़े व्यापारियों को ही नहीं, असंगठित क्षेत्र का बड़ा सहारा
बनते थे। इस बार ईद भी इसी बीच पड़ने वाली है यानी त्योहारों की चांदी। चूड़ी-बिंदी वाले
हों, पटाखे वाले या दर्जीया बिसातखाने वाले, ऐसे बहुतेरे काम-धंधे ‘व्यवसाय’ में नहीं गिने जाते और अपने देश में ऐसे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी का कोई
हिसाब ही नहीं दर्ज होता। विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत का असंगठित क्षेत्र उसकी आर्थिक
रीढ़ का सबसे बड़ा सहारा है। मई-जून में जब करोड़ों की संख्या में कामगार अपने-अपने घरों
को लौट रहे थे तब इस भारत को देखकर शेष भारत कितना अचम्भित हुआ था!
यह विशाल भारत, जिसके पास न खेती है न नियमित नौकरी,
अपना पेट भरने के जतन स्वयं करता है। उसकी तरफ सरकारों का ध्यान नहीं
होता। किसी औद्योगिक घराने के डूबते कारोबार का खूब हल्ला मचता है और उसे सहारा देने
के लिए सरकारें आगे आती हैं, मंदी से उबरने के लिए अरबों-खरबों
के सरकारी पैकेज घोषित होते हैं, लेकिन इस असंगठित क्षेत्र की
मंदी, बल्कि पूरी बंदी पर कहीं कोई पत्ता नहीं हिलता। बांस की
पतली खपच्ची को धनुष की तरह मोड़, उसमें तार बांध कर जो इकतारा
बजाता-बेचता इन दिनों दिन भर मुहल्लों में घूमता था या जो पूरा परिवार महीनों बैठकर
धनुष-बाण-गदा बनाता था कि दशहरे में धंधा चोखा होगा, ऐसी ही अनगिनी
मेहनतों पर जिनका जीवन टिका रहता है, उसके लिए कहां कोई पैकेज
कभी आया!
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