कोरोना हमें किस कदर असामाजिक प्राणी बना दिया है!
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी
है, बचपन से यही पढ़ते आ
रहे थे। कोरोना महामारी ने यह पाठ बदल दिया है। जीवित रहना है तो असामाजिक प्राणी
बनकर रहो!
कोरोना वायरस का आक्रमण
होते ही सबको सचेत किया गया था कि ‘सामाजिक दूरी’ (सोशल डिस्टेंसिंग) बनाकर रखें। आपत्ति की गई थी कि इसे ‘सामाजिक
दूरी’ क्यों कहा जा रहा है। वायरस तो शारीरिक नजदीकी होने पर संक्रमित होता है। शारीरिक दूरी
कहिए या भौतिक दूरी। सामाजिक दूरी बनाकर मनुष्य कैसे रह पाएगा? धीरे-धीरे ‘सामाजिक दूरी’ को ‘शारीरिक दूरी’ कहा जाने लगा लेकिन हुआ वही जो
पहले-पहल मुंह से निकला था- पिछले छह महीनों में हम एक-दूजे से, अपने करीबियों से, समाज से कट गए। असामाजिक हो गए!
कुछ समय पहले अम्बेडकर नगर के जिलाधिकारी राकेश मिश्र की
फेसबुक पोस्ट के अंश दिमाग से निकलते ही नहीं। अपने जिले के मुख्य चिकित्सा
अधीक्षक डॉ एस पी गौतम की कोरोना संक्रमण से हुई मौत पर उन्होंने लिखा था- ‘’आज हर उम्मीद को तोड़ती खबर आई। हम लखनऊ भागे... अंतिम
विदाई... पूरा परिवार था, पर बॉडी-बैग
में सील्ड देह थी... अंतिम दर्शन, मुख देखना भी न हो सका... विद्युत शवदाह
गृह के कर्मचारी अपने विशेष वस्त्र पहनने लगे। हमें भी अपने पांव, सर, हाथ, मुंह सब ढकना था..
वहां सबकी पहचान खो गई...।‘’
एक तस्वीर देखी थी जो भूलती ही नहीं। रह-रह कर सिहरन से भर
देती है। एक युवक की कोरोना संक्रमण से मौत हो गई। दूर रहने वाले माता पिता रोते-रोते
भागे आए लेकिन बेटे का अंतिम संस्कार करना तो दूर, उसे देख भी नहीं पाए।
अस्पताल कक्ष के खुले दरवाजे के बाहर खड़े होकर जिसे वे देख पा रहे थे वह सिर्फ
प्लास्टिक का पूरी तरह बंद लम्बा बंडल था वहां न किसी का चेहरा था, न हाथ-पांव। एक प्रतीति भर थी कि उसमें उनके जाये बेटे की ठंडी देह है। यह
अहसास भी अस्पताल के कर्मचारियों के बताने से हुआ था।
अपने जाये बेटे का चेहरा भी अंतिम बार नहीं देख पाने की यह
कसक कोरोना-काल की नई दारुण कथा है। प्रतिदिन ऐसे मार्मिक प्रसंग सुनने में आ रहे
हैं। पत्नी, पति का चेहरा नहीं देख सकती, छूना तो
दूर की बात है। बॉडी-बैग़ में सील बंद देह को बेटे-बेटी या सगे सम्बंधी कंधा नहीं
दे पा रहे। पुलिस ले जा रही गाड़ी में और अंत्येष्टि कर दे रही। शोक व्यक्त करने भी
कोई नहीं आ सकता।
सुख में न जा पाते किसी के, कोई बात नहीं थी।
हारी-बीमारी में, दु:ख-तकलीफ में तो अपनों की सहायता चाहिए,
सहारा चाहिए, सांत्वना देने वाला चाहिए। वह भी
नहीं हो पा रहा। गमी में जाना किसी के शोक में शामिल होना ही नहीं होता, पुण्य का काम भी माना जाता है। इजा कहती थी- ‘किसी
के अच्छे में शामिल भले न हो पाओ, दु:ख-परेशानी और शोक में
अवश्य शरीक हो आना चाहिए। मित्र तो मित्र, शत्रु की गमी में
भी जाना चाहिए।‘ पिछले दिनों इजा नहीं रही। वह अपनी पूरी
उम्र काटकर गई। शोक तो शोक है। मित्र-सम्बंधी, पड़ोसी और
परिचित, इजा का सम्मान करने वाले कई लोग आना चाह कर भी नहीं
आ पाए। हमने ही कई लोगों को मना कर दिया। कहा कि जहां हैं वहीं से उनकी आत्मा की
शांति के लिए प्रार्थना कर लीजिए।
यह कैसा समय आया! यह तो सचमुच ‘सामाजिक
दूरी’ हो गई! कौन नामुराद था जिसने ‘सोशल
डिस्टेंसिंग’ कहा था?
एक सुबह अचानक ध्यान गया कि कब से जूता नहीं पहना है।
कोरोना-बंदी घोषित होने के बाद से उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। रैक में पड़ा-पड़ा वह
धूल खा रहा है। उसके अंदर पड़े मुड़े-तुड़े जुराबों के ऊपर मकड़ियों ने जाला बना लिया।
फिर कपड़ों की अल्मारी की याद आई। धुले-इस्तरी किए कई जोड़े कपड़े हैंगर में लटक रहे
हैं। दो-चार घरेलू कपड़ों के अलावा छह महीने से बाहरी कपड़े पहने ही नहीं। घर में
क्या पैण्ट-कमीज पहनकर बैठें! पास की बाजार से कभी-कभार अत्यावश्यक चीजों की खरीद
घरेलू कपड़ों में हो जाती है। कुछ ‘वेबिनार’ और ‘लाइव’ में हिस्सेदारी करनी पड़ी तो कुर्ते से ही काम
चल गया या पाजामे के ऊपर कमीज डाल ली, बस!
ठीक-ठाक कपड़े-जूते सामाजिक प्राणी को चाहिए जो इन दिनों हम
रहे नहीं। शादी-ब्याह में हजारों मित्रों-सम्बंधियों का आतिथ्य सत्कार करने वाले
चंद परिवारी जनों के बीच रश्में निभा ले रहे हैं। न बैण्ड-बाजा-बारात, न
भव्य दावतें। जन्म दिन की अंतरंग पार्टियां तो भूल ही गए। गंजिंग किसे कहते थे?
मॉल-मल्टीप्लेक्स भी हुआ करते थे? किसलिए
पहनें धुले-साफ कपड़े, चमचमाते जूते? कई
पुरुषों-महिलाओं को जानता हूं जिन्हें नई-नई काट के अच्छे से अच्छे कपड़े पहनने का
शौक है। हर महीने उनकी वार्डरोब में नई आवक होती थी। वे इन दिनों क्या कर रहे
होंगे? सजने-संवरने का चाव घर में या ‘ऑनलाइन’
कितना पूरा होता होगा? फेसबुक में फोटो डालकर
वह प्रशंशा कहां पाई जा सकती है जो हर निगाह अपनी ओर उठते देखकर होती थी! खुद ही
सजो, खुद ही आईने के सामने खड़े होकर तारीफ करो, ऐसा भी कहीं होता है?
इधर आपने घर के कूड़ेदान पर
गौर किया? हमने तो पाया कि आजकल वह भरता ही नहीं। दूध के खाली पैकेटों
के अलावा उसमें कोई पॉलीथीन नहीं फेंकी जा रही। कुछ सब्जी-फलों के छिक्कल, कुछ
बिस्कुट, दवाइयों, आदि के रैपर,
बस! बाजार ही जाना नहीं होता। डरते-डरते गए भी
तो सिर्फ अत्यावश्यक खरीदारी हो रही। ‘शॉपिंग’ कहते थे जिसे, जरूरत हो न हो, बाजार
निकले, घूमे-टहले और कुछ खरीद लाए, वह
सब नहीं हो रहा। इसलिए इन दिनों घर से बहुत कम कचरा निकल रहा है। पहले हर रोज
कूड़ेदान भर जाता था। कई दिन कचरा कूड़ेदान के बाहर भी फैल जाता था।
इस कोरोना-काल में मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना सिर्फ तब
दिखाई दिया था जब चालीस दिन के लॉकडाउन के बाद दारू की दुकानें खुली थीं। लोग
संक्रमण के डर से घरों में दुबके थे। जिन्होंने अपने सेवकों-सहायकों तक को घर में
आने से रोक दिया था और खुद बर्तन मांजना-झाड़ू-पोछा करना मंज़ूर किया, वे अचानक
मदिरा की दुकानों पर टूट पड़े थे। क्या अद्भुत दृश्य था! उस दिन सचमुच ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ को धूल चटा दी गई थी। साबित कर
दिया गया था कि मनुष्य अंतत: एक सामाजिक प्राणी है। किंतु यह एक असामाजिकता के सतत
सिलसिले में एक क्षेपक ही साबित हुआ।
आजकल सब कुछ डिजिटल है, वर्चुअल। सामाजिक कुछ भी
नहीं। ऑफिस का काम ऑनलाइन। स्कूल ऑनलाइन। मीटिंग-सेमीनार का नाम ही बदल गया है-
वेबीनार, वर्चुअल मीटिंग्।। शॉपिंग ऑनलाइन हो रही। पड़ोसियों
की कुशल-क्षेम ऑनलाइन। मुहल्ले का निंदा-पुराण व्हाट्सऐप पर। कुछ भी आमने-सामने नहीं।
डॉक्टर भी मरीज को ऑनलाइन देख रहे। कभी-कभी सोचता हूं, सूचना
क्रांति न हुई होती, कम्प्यूटर-मोबाइल-इण्टरनेट नहीं होते तो
इस कोरोना –काल में काम कैसे चलता? कनेक्टिविटी ही है जो
थोड़ा-बहुत सामाजिक बनाए हुए है- वर्चुअल सामाजिक!
कोई आशा भी नहीं दिखाई देती कि इस असामाजिकता पर शीघ्र
विराम लगेगा। वैक्सीन पर ट्रायल चल रहे हैं लेकिन शोध-विशेषज्ञ भी नहीं बता पा रहे
कि कब तक बनेगी और बन भी गई तो उसका असर कितने दिन रहेगा। विज्ञान ने बहुत तरक्की
की है लेकिन एक वायरस ने दुनिया हलकान कर रखी है। हारना तो कोरोना को है ही लेकिन
जब तक हमारी विजय सुनिश्चित नहीं हो जाती असामाजिक प्राणी के रूप में रहना
है।
यही ‘न्यू नॉर्मल’ है।
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