Friday, October 23, 2020

नई तकनीक से वंचित वर्ग की नई समस्याएं

 


कोरोना ने किस-किस तरह और कैसी-कैसी मार मारी है! किसी को संक्रमण हो जाने पर तो अस्पताल जाने और भर्ती होने की सुविधा मिल सकती है लेकिन दूसरे किसी भी गम्भीर रोग में इलाज मिलना बहुत मुश्किल हो गया। जिनके ऑपरेशन तय थे या डायलिसिस हो रही थी या दिल की बीमारी नियमित जांच और डॉक्टरी सलाह मांगती थी, उन्हें बहुत परेशान होना पड़ा। दिल का दौरा पड़ने की स्थिति में जब तत्काल इलाज की जरूरत होती है, किसी भी अस्पताल में कोई डॉक्टर बिना कोरोना जांच कराए हाथ लगाने को तैयार नहीं। कोविड से मरने वालों के सही-गलत जैसे भी हैं, आंकड़े मिल जाएंगे लेकिन पिछले करीब नौ महीनों में इलाज नहीं मिल पाने के कारण कितनी मौतें हुईं, इसकी कोई गिनती नहीं मिलेगी।

बहरहाल, महीनों बाद पीजीआई और केजीएमयू की ओपीडी खुली है। यह राहत की सूचना है हालांकि इस राहत की भी टेढ़ी-मेढ़ी गलियां हैं जिनमें एक बड़ी आबादी को भटकना पड़ रहा है। बिना ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के ओपीडी में जाना समय बर्बाद करना और संक्रमण का खतरा मोल लेना होगा। दोनों ही संस्थानों ने सतर्कता वश यह व्यवस्था की है कि ओपीडी में आने से पहले ऑनलाइन समय लें या फोन करके नाम दर्ज कराएं। इस डिजिटल दौर में बड़े संस्थानों के लिए यह व्यवस्था बना देना आसान है लेकिन उस जनता का क्या करें जो अभी डिजिटल युग के दरवाजे तक भी नहीं पहुंची है?

रोजाना कई मरीज और तीमारदार वहां ऐसे पहुंच रहे हैं जिन्हें यह सब मालूम नहीं या ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना उनके बस की बात नहीं। उनके लिए इतना काफी है कि अस्पताल खुल गया है। पीजीआई की प्रक्रिया और भी जटिल है। इस संकट काल में ये सतर्कताएं आवश्यक होंगी लेकिन जो इस डिजिटल भारत से बाहर हैं और उनकी संख्या बहुत बड़ी है, उनके लिए कोई क्या कोई रास्ता है?

केवल अस्पतालों की बात नहीं है, सरकार गरीब कल्याण के बहुतेरे कार्यक्रम चलाती है। इनमें बहुत घपले होते हैं, जिन्हें दूर करने और पारदर्शिता लाने के लिए ऑनलाइन व्यवस्था लागू की गई। उज्जवला योजना हो या प्रधानमंत्री आवास योजना या शौचालय निर्माण अनुदान, रजिस्ट्रेशन और बैंक खाते अनिवार्य हैं। आम ग्रामीण और कामगार वर्ग के लिए बैंक से लेन-देन भी आसान नहीं है। पिछले छह सालों में बेहिसाब खाते खोले गए। उनमें से कितने खाते चालू हालत में हैं, यह किसी भी बैंक से पता किया जा सकता है।

बैंक हों या जिला-तहसील के कार्यालय, जनता के एक बड़े वर्ग के लिए आज भी बिना किसी की मदद के उन तक पहुंच मुश्किल है। जनता में आर्थिक खाई ही बड़ी नहीं है, सामाजिक हैसियत, शिक्षा और आत्मविश्वास के बीच भी भारी अंतर है। इसीलिए आधार कार्ड बनवाने से लेकर सरकारी कार्यक्रमों का लाभ दिलाने वाला दलाल वर्ग उभर आया है। ऑनलाइन व्य्वस्था में किसी बिचौलिए की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन वह और भी अधिक हो गई है क्योंकि जनता के बहुत बड़े वर्ग की न उस तक पहुंच है न समझ।

विडम्बना यह है कि जो वर्ग सबसे ज़्यादा जरूरतमंद है, उसी की पहुंच इस तंत्र के विविध माध्यमों तक नहीं है। सरकारी अस्पताल में पर्चा बनवाना भी जिसके लिए सबसे कठिन काम हो वह कैसे नहीं दलालों के चंगुल में आ जाया? पीजीआई, मेडिकल कॉलेज से लेकर सरकारी अस्पतालों तक गरीब मरीजों और तीमारदारों को बहकाकर निजी अस्पतालों में ले जाने वाले बिचौलिए इसीलिए फल-फूल रहे हैं।

भारत के इस विशाल वर्ग को सामाजिक-शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के ईमानदार प्रयास इसीलिए सर्वोच्च प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 24 अक्टूबर, 2020)                        

1 comment:

Unknown said...

मान्यवर, मानता हूं कि जो टिप्पणी मैं करने जा रहा हूं, शायद अब वह उतनी प्रासंगिक नहीं रही। फिर भी प्रश्न उचित ही जान पड़ता है। और आप जैसे वरिष्ठ संपादकों का ध्यान तो इस पर अवश्य गया होगा। वह यह कि, यदि कोरोना इतना ही जानलेवा था तो आखिर क्यों चौराहों, सड़कों पर घूमते सैकड़ों भिखारियों की मौत इससे नहीं हुई? अथवा हुई भी तो क्यों नहीं वह मीडिया की खबरों का हिस्सा बन सकीं? समाज के हर वर्ग का व्यक्ति इससे पीड़ित मिला, सिवाए इन्हीं भिखारी, कूड़ा बीनने वालों के।