Saturday, October 17, 2020

लॉकडाउन, अदृश्य भारत और कृष्णजित के रेखांकन



दो-तीन दिन से सोशल मीडिया में कोलकाता की एक पूजा समिति (बारिशा क्लब, बेहला) की दुर्गा-मूर्ति की फोटो वायरल हो रही है। मूर्तिकार पल्लव भौमिक की बनाई यह मूर्ति अद्भुत और बंगाल की राजनैतिक-सामाजिक चेतना की गवाह है। मई-जून के देशव्यापी लॉकडाउन में करोड़ों कामगार भूखे और नंंगे पांव सैकड़ों-हजारों मील दूर अपने घरों को जिन हालात में लौटने को मजबूर हुए थे, उसने सम्वेदनशील वर्ग को गहरे प्रभावित किया। उन श्रमिकों के चित्र अब भी दिल-दिमाग में ताज़ा हैं और मन में कसक पैदा करते हैं। पल्लव भौमिक ने कामगार मजदूरिन को, जिसकी गोद में एक नन्हा नंग-धड़ंग शिशु है, दुर्गा बना दिया है। एक बेहाल मजदूरिन में दुर्गा का रूप देखना बंगाल की धड़कती सामाजिक -राजनैतिक चेतना और कलात्मक अभिव्यक्ति का शानदार प्रतीक है। सत्यानंद निरुपम ने फेसबुक पर इस तस्वीर को साझा करते हुए टिप्पणी की- 'कोलकाता, ओह कोलकाता/ रचनात्मकता की धरती कोलकाता..।'

जब मैं इस तस्वीर को देखकर अभिभूत हो रहा था, तभी मेरे हाथ में 'नवारुण प्रकाशन' से सद्य: प्रकाशित एक छोटी-सी पुस्तिका पहुंची और उसके पन्ने पलटते हुए मुझे बंगाल की रचनात्मकता और सम्वेदनशीलता को सलाम कहने का मन हो आया। बरहमपुर, मुर्शिदाबाद के कलाकार कृष्णजित सेनगुप्ता के बनाए करीब चालीस रेखांंकनों की यह किताब देशव्यापी बंदी से बेहाल, भुखमरी की कगार पर पहुंचे उस भारत का चेहरा है जिस पर सरकारों, राजनैतिक दलों, योजनाकारोंं, प्रशासकों से लेकर उच्च और मध्य वर्ग की दृष्टि नहीं जाती। इसी गणतंत्र में वह भारत है और विशाल रूप में है, जिसकी एक झलक भर शेष भारत ने मई-जून की तपती दोपहरियों में सड़कों पर या थोड़ा-बहुत मीडिया में देखी। 

'प्रवासी मजदूर' कहे गए इस भारत पर काफी कुछ लिखा गया, सोशल मीडिया की टिप्पणियों से लेकर लेख, कविताएं, कहानियां और विरोधी दलों की टीका टिप्पणियां भी, लेकिन कलाकार कृष्णजित सेनगुप्ता ने अभिनव काम किया है। इस सचेत कलाकार ने कागज पर कलम से सिर्फ रेखाओं के माध्यम से पत्थर तराशने वालोंं, रिक्शा चालकों, सायकिल-ठेले वालों, नाई, बढ़ई, घरेलू कामगारों, फेरी वालों, आदि-आदि का  वह भारत रचा है जो आज के भारत में लगभग अदृश्य रहता है। इन चेहरों में सैकड़ों मील पैदल चल चुकने की टूटन है, भूख से पिचके गाल और उभरी हड्डियां हैंं, टकटकी लगाए गड्ढे में धंसी आंखें हैं, जिजीविषा है, संघर्ष है और हताशा भी। कृष्णजित की रेखाएं वह सब कह देती हैं जो शब्दों से नहीं कहा जा पाता, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 

कृष्णजित की रेखाएं बहुत सम्वेदनशीलता से सब कुछ सम्प्रेषित कर देती हैं। छोटी-सी भूमिका में वे पूछते हैं- 'बीमारी के संक्रमण से डरकर सरकार ने सबके मुंह में चीथड़े (मास्क) बांध दिए हैं। अनगिनत लोगों के मुंह और नाक अब निगाहों से ओझल हो गए हैं। पर क्या कपड़ों के इन चीथड़ों से अनगिनत लोगों के बेकाम और बिन पैसे के जीवन की अनिश्चितताओं को ढका जा सकता है?' यही चुभता सवाल उनके बिना चीथड़े वाले इन रखांकनों से चीत्कार की तरह उछलता है। प्रत्येक रेखा चित्र में एक चेहरा है, एक नाम है और उसके नीचे एक-दो लाइनें। जैसे, मिंटू शेख के चेहरे के नीचे दर्ज है- 'ईंट भट्टे में करते थे मजूरी/ मालिक ने कहा- आओ मत/ नहीं आई मजूरी भी इसलिए।'  

यह वास्तव मेंं मिंटू शेख का चेहरा नहीं है। कृष्णजित लिखते हैं - 'एक भी चेहरा वैसा नहीं उकेरा गया है जैसा वह है। मैंने  'क' की आंखें 'ख' के ललाट के नीचे लगा दी हैं। 'ग' के होठों' के दोनों तरफ बना दिए हैं 'घ' के गाल..।' ऐसा क्यों किया? 'क्योंकि इन भूखे और बेरोजगार लोगों का अपमान न हो। इसीलिए नाम भी बदल दिए हैं। हालांकि जांता हूं, ज्यों ही आप इन चेहरों को देखेंगे, इनमें देखेंगे आपके पहचाने हुए चेहरे।'

हिंदी में इस तरह का काम नहीं दिखाई देता लेकिन सुना है बंगाल में होता रहता है। यह पुस्तिका बांग्ला में छपी तो 'ऑल इण्डिया पीपुल्स फोरम' और 'ऐक्टू' ने इसे हिंदी में लाने की पहल की और 'नवारुण प्रकाशन' ने बहुत अच्छे तरीके से प्रकाशित किया है। पुस्तिका का शीर्षक है- 'लॉकडाउन में मज़दूर, भूखा, बेरोजगार।' हिंदी में अनुवाद मृत्युंजय ने किया है। छप्पन पेज की पुस्तिका एक सौ रु में नवारुण प्रकाशन (सम्पर्क- 9811577426) से मंगाई जा सकती है। शायद flipkart पर भी उपलब्ध है।           

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