चंद रोज़ पहले कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के इस निर्देश पर ध्यान गया कि स्वागत और सम्मान समारोहों में गुलदस्तों और फूलमालाओं का उपयोग न किया जाए। उसकी जगह कन्नड़ भाषा में पुस्तकें सम्मान स्वरूप दी जाएं। यह सलाह, जिसे बाद में मुख्य सचिव ने निर्देश के रूप में जारी कर दिया, उन्होंने अपने एक अभिनंदन समारोह में दी, जहां उन्हें फूलमालाओं से लाद दिया गया था।
अच्छा लगा। ज़नाब बोम्मई के बारे में हमें अधिक नहीं मालूम
कि कितना पढ़ते-लिखते हैं और क्या उनकी विशेषताएं हैं लेकिन आज यह सवाल बड़ा मौजू है
कि आजकल के नेताओं की किताबों कितनी रुचि होती है। विमोचन समारोहों में वे खूब
बुलाए जाते हैं जहां खूबसूरत पन्नी में कसकर लपेटी गई किताबों को आज़ाद करते हुए
फोटो खिंचाते हैं और भाषण भी दे लेते हैं लेकिन पढ़ते कितना हैं?
चुनाव लड़ते समय निर्वाचन आयोग के कड़े नियम के अनुसार जो शपथ
पत्र वे दाखिल करते हैं, उसमें उनकी चल-अचल सम्पत्तियों, गाड़ियों, हथियारों, आदि का
ब्योरा रहता है। कभी सुना नहीं कि किसी नेता ने अपने पुस्तक-संग्रह का विवरण उसमें
दिया हो। खैर, बात को ज़्यादा खींचने से क्या फायदा। वह ज़माना
कबके बीत गया जब नेताओं के हाथों में किताबें होती थीं और वे उनके उद्धरण अपने
भाषणों में दिया करते थे। कई नेता किताबें खुद लिखते थे। ‘आत्मकथाएं’
आज के नेता भी ‘लिखते’
हैं लेकिन कलम किसी और की होती है।
नेताओं को हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों और नारे लगाती भीड़ के
अलावा अगर किसी और से चीज से प्यार होता है तो वह फूलमालाओं से। जब तक नेता जी की
गर्दन फूलमालाओं से लदकर चेहरा छुप नहीं जाता, उन्हें लगता ही नहीं कि
स्वागत हुआ है। मंच पर गुलदस्ते सजे होने चाहिए। सभागार के गलियारे में पुष्पों की
वंदनवार होनी चाहिए। इतनी मालाएं होनी चाहिए कि गर्दन से उतार-उतार कर वे समर्थकों
पर फेंकते रह सकें।
अभिनंदन समारोह से लौटते नेताजी के काफिले की कारों की छत
पर फूलमालाओं का ढेर राजधानी तक आता है। रास्ते भर जनता देखती है कि कोई बड़ा नेता
जा रहा है। इस देश में पुष्प-व्यवसाय नेताओं और देवताओं के कारण ही फल-फूल रहा है।
अगर अभिनन्दन और स्वागत समारोहों में नेताओं को किताबें दी जाने लगीं तो उनका होगा
क्या?
राजधानी लखनऊ के विधान भवन में एक 'विधान
पुस्तकालय' है। जब हम सम्पादक होते थे तब उसके रुतबे में
हमें भी उसकी सदस्यता मिल गई थी। तब देखा था कि वह कितना विशाल और समृद्ध
पुस्तकालय है। बहुत दुर्लभ सामग्री वहां है। इस पुस्तकालय की स्थापना सन 1921 में
"काउंसिल (विधान सभा/ विधान परिषद नाम बाद में आए) के माननीय सदस्यों की
बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए" की गई थी। विधान पुस्तकालय के बारे में
यह ध्येय वाक्य आज भी लिखा हुआ है। एक बार हमने जिज्ञासावश पुस्तकालय के प्रभारी
से जानना चाहा था कि आज के माननीय विधायकों-मंत्रियों की बौद्धिक आवश्यकता कैसी एवं
कितनी है, तो जवाब में बड़ी अर्थपूर्ण हंसी हमारे सामने बिखर
गई थी।
उन्होंने बताया था कि पुस्तकालय में उन्हें किसी विधायक के
दर्शन नहीं होते। किसी विधान सभा में कोई ऐसा विधायक आ जाए जिसकी रुचि किताबों में
हो तो यह दुर्लभ संयोग होता है। हां, कोई-कोई माननीय उन्हें अपने पास तलब करके
कुछ तथ्य मांग लेते हैं जिसकी आवश्यकता उन्हें सदन में होती है। यहां आता कोई नहीं।
तो, यह इच्छा करने का क्या अर्थ कि बोम्मई का
सुझाव यूपी में भी अमल में आए? यहां फूलों के व्यापारियों को
ही रोजगार करने दीजिए। हां, यह मात्र संयोग है कि अभी-अभी 'पुस्तकालय दिवस' बीता है, जिसकी
ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 अगस्त, 2021)
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