Monday, August 16, 2021

यहूदियोंं की व्यथा-कथा के बहाने हिंदुस्तानियत की चुनौतियां

 

हिंदी साहित्य की आलोचना-दरिद्रता या सेलेक्टिव-चर्चाऔर विचारधारा के नाम पर खेमेबाजी का परिणाम है कि कई अच्छी रचनाएं अलक्षित या अल्प-चर्चित रह जाती हैंया कर दी जाती हैं। यह अलग बात है कि सशक्त रचना देर सबेर अपनी जगह बना ही लेती है। अपने समय में ही उसकी खूबियों की चर्चा न हो, विश्लेषण और कमियों की चीर-फाड़ न हो तो समकालीन लेखन और लेखकों के लिए वह नई और आगे ले जाने वाली रचनात्मक लहरें कैसे पैदा करे? उसके रचनाकार को और बेहतर लेखन के लिए उत्प्रेरित कैसे करे?    

मेरे पठन-पाठन की एक सीमा है तो भी सन 2013 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित शीला रोहेकर का उपन्यास मिस सैम्युएल : एक यहूदी गाथा2021 में पढ़ते हुए ये सवाल बार-बार मन में उठते रहे। यह सिर्फ एक यहूदी गाथा नहीं है, जैसा कि इसके नाम से आभास होता है।

प्रमुखत: अत्यंत अल्पसंख्यक एवं उपेक्षित भारतीय यहूदियों की मार्मिक गाथा होने के बावजूद यह उपन्यास हमारे समकाल की चुनौतियों से रचनात्मक मुठभेड़ करता है। वह एक साथ कई धरातलों पर कई कथा-व्यथाओं को साथ लिए चलता है और अत्यंत संवेदनशीलता, गहन पीड़ा और आवेशित अंतरंगता के साथ लिखा गया है। उसमें विभिन्न धार्मिक समाजों और भिन्न-भिन्न आर्थिक पृष्ठभूमि वाली स्त्रियों के गहन जीवनानुभव हैं, उनके पारिवारिक ही नहीं, भीषण आंतरिक संघर्ष भी हैं और समाज में बढ़ते साम्प्रदायिक अलगाव एवं नफरत की उघड़ती हुई परतें हैं।    

शीला रोहेकर वर्तमान में हिंदी की अकेली लेखिका हैं जो यहूदी हैं। भारत में निरंतर हाशिए पर धकेले जाते और सीमित संख्या में बचे यहूदियों की दिल को मथने देने वाली गाथा के साथ-साथ इस उपन्यास में गुजरात के दंगे हैं, वली दकनी की मज़ार का मिटाया जाना है तथा उससे उपजी पीड़ा और क्षोभ है, ‘गुजराती बेन छे कहकर अमीना का बचना है जबकि उसके सामने उसका पूरा परिवार मार दिया गया।

पगलाई साम्प्रदायिक भीड़ ने उस बॉबी को भी मार दिया जो मैं यहूदी हूं कहता रहा लेकिन किसने सुना! उसकी पैंट उतारी गई थी (यहूदी मुसलमानों की तरह लड़कों का खतना करते हैं, हालांकि उनका धर्म ग्रंथ बाइबिल है) जबकि उसका मुस्लिम साथी हिंदू छू, पटेलकहकर बच निकला। लेकिन कितने दिन? एक दिन वह भी रेल पटरी पर मरा पाया गया। बॉबी की मां अपनी मृत्यु के दिन तक कलपती रही कि लेकिन मेरा बॉबी तो इस्राइल था न!

एक सैम्युएल डेविड है, अंडर सेक्रेट्री, बेटी की सहेलियों को गुदगुदी करने वाला’, अपने बाप डीविड रूबेन से बहुत भिन्न नहीं, जो बेटी समान विधवा लक्ष्मीसे रातों को दरवाजा खुलवाता था, यहूदी गौरव-बोध  से भरा लेकिन इस देश में अत्यंत उपेक्षित अल्पसंख्यक होने की निरुपायता से लाचार। उनकी दो ही तमन्नाएं हैं कि वंश को आगे बढ़ाने वाला एक बेटा पैदा हो परिवार में, और लौट सकें उस पवित्र धरती पर जिसे उनके पुरखों ने दो हजार साल पहले छोड़ा था।

वह अपनी बेटियों के गैर यहूदी से प्रेम करने का सख्त विरोधी है, अपने पिता डेविड रूबेन की तरह जिसने अपनी बेटी लिली को दूध में जहर पिला दिया था क्योंकि कि वह किसी गैर यहूदी से गर्भवती हो गई थी। सैम्युएल डेविड ने अपनी बेटी रेचल के गर्भवती हो जाने पर उसे किसी वहशी यहूदी से ब्याह दिया जो प्रसव में मर गई, एक मंदबुद्धि राफू को जन्म देकर।

इस राफू को मां की तरह पालती रेचल की बड़ी बहन, सीमा उर्फ मिस सेम्युएल, नायिका है उपन्यास की जो 63 साल की उम्र में वृद्धाश्रम में पड़े-पड़े चार पीढ़ियों में फैली इस यहूदी गाथा को पल-पल जीती है, परदादा के समय से अपने वर्तमान तक झूले की पेंगों की तरह डोलती हुई। कहानी सीमा की यादों में किसी मोंताज़ की तरह चलती है, अतीत और वर्तमान के बीच बराबर अवाजाही करती हुई, कभी एक प्रलाप की तरह और कभी दिमाग में गूंजते संवादों के रूप में।

वृद्धाश्रम की रहवासियों के बहाने इसमें स्त्रियों के जीवन, दमन, उपेक्षा और परिवार-समर की बहुरेखीय कथाएं हैं, उनके प्रेम की और सपनों के कत्ल होने की, रिश्तों के मायाजाल और उसके विध्वंस की, स्त्री के विश्वासों के उजालों और धोखों के अंधेरों की।

‘‘स्त्रियां अपनी भरी-पूरी गृहस्थी, कुशलता, बुद्धिमत्ता और समर्पण भूल जाने का ढोंग करती, स्वजनों द्वारा छोड़े जाने के अपमान को मन ही मन जायज ठहराती रमा आज्जी, सुधा आक्का, या आशालता घोरपड़े हो जाती हैं। कुछ मिसेज चिटनीस या मैडम मैरी बनी रहती हैं जो न बीते दिनों को भूल पाती हैं न अपने बिखरे मान-सम्मान को,  और जो टूट जाती हैं वे विमला शिंदे बन जाती हैं।’’

 ये कहानियां दहलाती हैं और बताती हैं कि यहूदी हो या इसाई, पारसी या मुसलमान, इस पुरुष-शासित समाज में स्त्री तरह-तरह से छली जाती है, प्रताड़ित होती रहती है। वृद्धाश्रम में रमा आज्जी साथी रहवासियों से कहती है-

‘‘मनुष्य योनि छोड़ दो, संसार की कौन-सी मादा याद रखती है ताउम्र अपने जायों को और झूरती है? फिर अपनों ने याद रखा या भुला दिया, इसे लेकर ऐसा बावेला क्यों? संताप किसलिए?’’ लेकिन वहां सब जानती हैं कि उनके कमरे में ‘‘छूटे हुओं की जतन से सम्भाली गई तस्वीरें हैंयह मेरा बड़ा बेटा है और उसका यह बेटा विकास.... विसू तो मेरे बिना खाना तक नहीं खाता और... निपट खालीपन...।’’

यह रमा आज्जी एक रात इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर जाती हैं। उनकी कोठरी में जो अमीना आती है, वह कभी स्कूल में सीमा की चुलबुली और जीवन से लबालब दोस्त रही थी लेकिन अब डरावनी चुप्पी से इस कदर घिरी थी कि पहचानी नहीं गई। जब पहचानी गई तो अपना अकथ दुख साझा करती है –

‘‘पता है सीमा, सो नहीं पाती हूं। अब्बा, इकबाल, दोनों जवान बेटे, बहू, बेटी गजल और पोती सना... किसी को नहीं बचा पाई। बस, अपने खुद को बचते हुए देखती रही...। तुम या मैं, क्या कभी लगे हैं यहूदी या मुसलमान?.... पॉलिटिकल साइंस की लेक्चरर मैं कहां बता पाई उनको कि इस देश में कोई भी संस्कृति साबुत नहीं बची है, कि कोई भी चेहरा व धर्म खालिस नहीं रह गया है। पांच हजार साल पुरानी हमारी धरोहर साझी है। हम मात्र प्रवाह के बुलबुले हैं, धारा नहीं... कहां बता पाई सीमा? पांच हजार साल पुरानी इस धारा को उन्होंने पचास मिनट में मटियामेट कर दिया। सना, गजल और आयशा के नग्न, उघड़े जिस्म व मर्दों के कटे टुकड़े ही पड़े थे वहां..... गुजराती साड़ी पहने हुए थी मैं.. और गुजराती जुबान बोलती यह अमीना गुजराती बेन छे...एमने जवादोकहते उस भीड़ के सिरों से बाहर कर दी गई थी... बचे रह जाने के लिए....।’’

अमीना की यह पीड़ा उसकी अकेली नहीं है। यह नफरत की वह बारूद है जिसके धमाकों में समय-समय पर परिवार के परिवार उड़ा दिए गए। नफरत की यह राजनैतिक फसल इन दिनों और भी बोई-काटी जा रही है। शीला जी के उपन्यास में सन 2002 के गुजरात की काली छायाएं बार-बार उमड़-घुमड़ आती हैं। वह मार-काट अमीना की डरावनी चुप्पी और अनुत्तरित सवाल बनकर यहूदी गाथा में चीखती है-

‘‘अमीना की चुप्पी, उसका एकालाप, उसका अजीब असंतुलन मुझे आशंकित करता है। वह बाहर की खुली हवा में आने से डरती है। वह चाहती है कि सब कुछ भ्रम बना रहे किंतु ऐसा होता नहीं.... वली दकनी की कब्र का ढांचा ढाई सौ वर्ष तक भ्रम में रहता है। गंगा जमनी संस्कृति....। औलिया होने का फक्र...  और फिर भ्रम रात के घटाटोप अंधेरे में डामर की सड़क बन चलने लगता है। पतझड़ की पीली, मुरझाई पत्तियां पक्की सड़क पर खड़खड़ बजती उड़ती हैं...।’’

इस यहूदी परिवार के भ्रम भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी तरह-तरह से टूटते रहे और सीमा की छाती में अमीना की चुप्पी की तरह गड़ते रहे। सैम्युएल डेविड को अमदाबाद में किसी सस्ती लेकिन स्थाई जगह की तलाश थी लेकिन किसी मुसलमान को किराए पर मकान देने से भी इनकार करने वाले लोग एक यहूदी को अपने बीच बसने देते? बड़ा-सा सवाल मुंह बाए खड़ा हो जाता- ‘‘जैन, ब्राह्मण, बनियों, पटेलों, इसाइयों, शाहों के बीच वे ठौर पाएंगे?’’ हालांकि यहूदी के माने भी लोगों को ठीक से पता नहीं होता।

फिर एक दिन शहर में दंगा भड़क गया। परिवार का मंझला बेटा, इतिहास का अध्येता और नई दृष्टि वाला मेखाएल सैम्युएल उर्फ बॉबी अपने दोस्त जावेद कुरैशी के साथ घर लौट रहा होता है कि दंगाई घेर लेते हैं। ‘‘हिंदू छुं भाई.. विजय नाम छे मारू, विजय पटेल...” कहकर जावेद बच निकलता है लेकिन बॉबी की पैण्ट उतरवा ली जाती है। बॉबी फिर कभी घर नहीं लौटता। टूटते भ्रम के साथ मां जीवन भर यही पूछते रह गई कि मेरा बॉबी तो इस्राइल था न! आठवें दिन बच्चे की सुन्नत करने वाले लेकिन बाइबिल को धर्मग्रंथ मानने वाले यहूदी किस-किस से और कहां-कहां चीखते फिरें कि हम यहूदी है, इस्राइल हैं, बिल्कुल अलग पहचान है हमारी। और, यहां सुनने वाला कौन है?  

सैम्युएल डेविड के दादा रुबेन ने एक दिन अपने बेटे डेविड रुबेन को समझाया था- ‘’..और डेविड, तुम सुनो, धर्म का मतलब कट्टरता बिल्कुल नहीं होता बेटे। बड़े होने पर इस बात का फर्क समझोगे या हो सकता है कि न समझते इसमें बह जाओगे.... मेरी यह बात याद रखना कि इन दोनों के बीच पड़ा पर्दा बहुत झीना है, इसलिए इस फर्क को देखने के लिए भीतरी सजगता और धैर्य की जरूरत रहती है।’’  यहां किसके पास बचा रहने दिया गया है धैर्य? भीतरी सजगता?              

किंवदंती है कि करीब दो हाजार वर्ष पूर्व सुदूर इसराइल से चलकर कुछ यहूदियों का एक जहाज कोंकण के तट पर पहुंचकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। जो बच रहे थे चंद स्त्री-पुरूष वे भारतीय यहूदियों के पुरखे बने। इस विशाल देश की आबादी में अपनी जगह बनाते और अपनी विशिष्ट पहचान बचाए रखने का जतन करते ये यहूदी अपना इतिहास, संघर्ष और भटकन कभी नहीं भूल पाते। वापसी का स्वप्न पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी आंखों में दिपदिपाता रहता है-

“बॉम्बे आर्मी के रिटायर सूबेदार ईसाजी एलोजी ने अपने कुछ ख्वाब पोते डेविड रूबेन की आंखों में आंज दिए थे- बेटे डेविड, इच्छा ही रही कि अपनी मातृभूमि में हमारी देह दफन हो.. कि उस सुदूर देश कभी लौट सकें... लेकिन तुम और तुम्हारी पीढ़ी जरूर लौटना ताकि दो हजार सालों के विस्थापन का दंश कुछ कम हो। हम इस्राइल हैं... बेने इस्राइल यानी कि जैकब जिसे ईश्वर ने ‘इस्राइल’ नाम से नवाजा था... उसकी संतानें पता नहीं कितने छिन्न रूपों के साथ... कितनी ही तकलीफों और अवहेलनाओं के साथ इस धरती के भिन्न-भिन्न कोनों में दफन हैं।”

सपना आंखों में ही अंजा रह जाता है। बाद की पीढ़ियों को यह सच भी स्वीकार करना पड़ता है कि अब वहां लौटना शायद कभी नहीं होने वाला है।

ईसाजी एलोजी के वंशजों के यहीं मर-खप जाने और अन्य समाजों में विलीन होकर खोते जाने की  मार्मिक कहानी कहता यह उपन्यास मौजूदा भारतीय समाज के बहुस्तरीय संकटों को भी उतनी ही संवदेनशीलता से मुख्य कथानक में समेटता-उकेरता चलता है। विभिन्न समाजों से आने वाले इसके महिला पात्र अपनी-अपनी कहानियों से गम्भीर स्त्री विमर्श रचते हैं।  

यहूदी पहचान बचाए रखने और कभी अपने देश लौट जाने के लिए व्याकुल रहे ईसा जी की नई पीढ़ी का यह सोचना साझी धरोहर वाली हिंदुस्तानियत की जबर्दस्त पैरवी करना है-

“प्रकृति की पूरी छह ऋतुओं वाला, हरा-भरा, स्नेह का स्पर्श करवाता, विविध त्योहारों, उत्सवों, बोलियों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, साधु-संतों, बाबाओं, गुरुओं को सिमटाता, काली विद्या से अध्यात्म को छूता, अनेक संस्कृतियों के रस में दूबा यही देश उनकी मायभूमि (मातृभूमि) है। सदियों से साथ-साथ चलते इसी देश से उनकी पहचान जुड़ी है।”

लेकिन यह इतनी सरल रेखीय बात नहीं है। होता यह है कि सीमा यानी मिस सैम्युएल तो एक दिन पहुंच गई वृद्धाश्रम और गीतांजलि सोसायटी के उनके घर में शुक्रवार शाम को की जाने वाली शब्बाथ की प्रार्थना के लिए मुकर्रर दीपों की जगह संतोषी माता की तस्वीर रख दी गई। घर के दरवाजे पर जय माता दीके लाल अक्षर उकेर दिए गए। तब कीर्तन के लिए आई महिलाओं ने खुशी जताई-

“हवे लागे छे के आ आपणा हिंदुओंनु घर छे। आ मिया भाई कोण जाणे क्यांथी आवी गया हतां (अब यह हिंदुओं का घर लग रहा है। पता नहीं ये मियां भाई कैसे आ गए थे)”

यह गोधरा, गुजरात के नरसंहार के कुछ ही पहले की कहानी थी। अब गुजरात का प्रयोग पूरे देश में दोहराने का अभियान चल रहा है। शीला रोहेकर ने इस यहूदी कथा में हमारे आज की गम्भीर चुनौतियों को बड़ी सम्वेदनशीलता के साथ गूंथा है।       

यहूदी गाथासाफ चेतावनी है कि वास्तव में, जिसके खत्म हो जाने का खतरा है वह यहूदी पहचान नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियत है, इस देश की सदियों पुरानी पहचान, जिस पर आज सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

अच्छी खबर यह है कि इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद शीघ्र ही स्पीकिंग टाइगर पब्लिकेशंस से प्रकाशित होने वाला है। तब शायद इसकी व्यापक चर्चा हो।  शीला जी बताती हैं कि ज्ञानरंजन जी ने अवश्य पहलमें इसकी विस्तार से समीक्षा करवाई थी।  

samalochan.com   dated Aug 16, 2021

               

 

No comments: