Wednesday, August 25, 2021

'विलम्ब' -चंद्र प्रकाश देवल की कविता

 

अब तो हम सभी ने देख लिया
राजधानी की परिक्रमा में
फलदार पेड़ आए हैं
फूलों वाले गाछ आए हैं  अपना हरा बागा पहने
जैसे आई हो ऋतुराज की ऋतु

खेत पीले होने से इनकार कर गए लगते हैं
राई सरसूं का क्या होगा, छोड़कर
इस देश की फिक्र से दूर
वसंत इतना बदरंग कभी न था
और गाछ बिरछों को कभी बोलते सुना नहीं था

सभी कान सुन रहे हैं साफ-साफ उनकी फरियाद
साफ-साफ नज़र आ रहा है उनका हरियल रंग
सत्ता के ऊंचे तख्त पर बैठा आदमी ऊंचा सुनता है
क्या करेंं?
सत्ता की आंखों में जाला है
क्या करें?

बाजरा अपने ऊंचे सिट्टे के साथ आया है
सत्ता उसे पगड़ी वाला सिक्ख गिनती है
क्या करें?
गेहूँ अपनी बालियों के साथ आए हैं
सत्ता उसे जाट गिनती है
क्या करें?

राजधानी की परिक्रमा में
जो कभी नहीं आई
वे फसलें आई हैं
वे फसलें धरती की बेटियाँ हैं
और अपनी माँ धरती से अलग होने से इनकार करती हैं
ये फसलें इतिहास की साक्षी बनने को
भाग रही हैं नंगे पाँव
इनकी गति अब रुकने वाली नहीं

इन फसलों के हाथ भी हैं
पर इनकी आत्मा पर जनतंत्र की रस्सी है
उसे तुम जनेऊ बताकर जनता को गुमराह मत करो
जाओ जाओ चलकर सामने जाओ
इनका स्वागत करो
कुछ भी करो उन्हें मनाओ

कल कपास ने मना कर दिया धागा बनने से
कल अनाज ने मना कर दिया खाना बनने से
कल दूध ने मना कर दिया दही बनने से
फिर जगत का क्या होगा?

ये फसलें जो आई हैं
आवारा मवेशी नहीं हैं
जिन्हें तुम कांजी हाउस में रोक दोगे
ये फसलें हैं जो उमड़ पड़ीं
तो तुम्हारा देश जितना वेयरहाउस छोटा पड़ जाएगा
इनके लिए खाली स्थान मत ढूंढो
इन्हें खुशी-खुशी खलिहान में जाने दो
आग और पानी की तरह तुमसे नहीं रुकेंगी
मालदारों के कोठार फाड़कर निकल आएंगी
इन्हें सीलन भरे अंंधेरे कोठारों से घृणा है

फसलों वाले हाथ खेत में बीज बोते हैं
तुम फसलों के गिर्द कीलें मत बोओ
अगर एक भी फसल रोती हुई चीखी
तो सारी वनस्पति में कोहराम मच जाएगा
जिसे सुन पूरा जंगल दौड़ा चला आएगा
तब राजधानी से उसका बोझ नहीं सहा जाएगा
फिर सत्ता को हजार आंखों जितना नजर आएगा
पर अफसोस कि विलम्ब हो जाएगा

('अकार-57' से साभार। राज्स्थानी से स्वयं  कवि चंद्र प्रकाश देवल  द्वारा अनूदित)

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