Tuesday, August 17, 2021

लोग जानते ही नहीं कि यहूदी कौन हैं- शीला रोहेकर

शीला रोहेकर वर्तमान में हिंदी की एकमात्र यहूदी लेखिका हैं। उनका उपन्यास ‘मिस सैम्युएल:एक यहूदी गाथाभारत के यहूदियों की मार्मिक कथा है। यहूदी भारत में बहुत ही कम संख्या में है, इस समय मुश्किल से पांच-छह हजार। भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह घुल मिल जाने के बावजूद उनकी पहचान एवं उपेक्षा के बहुस्तरीय संकट हैं। अधिकतर जनता तो यह भी नहीं जानती कि यहूदी कौन होते हैं।

अक्टूबर 1942 में जन्मी शीला रोहेकर (कोंकण, महाराष्ट्र के रोहा नामक जगह में बसे होने से रोहेकर कहलाए) ने 1960 के दशक से लिखना शुरू किया। पहले गुजराती में कहानी-कविताएं और फिर हिंदी में। मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ (2013) से पहले उनके दो उपन्यास, ‘दिनांतऔर ताबीज़प्रकाशित हैं। एक कथा संकलन गुजराती में लाइफ लाइन नी बहारऔर एक हिंदी में चौथी दीवारभी प्रकाशित हुए। ताबीज़ उपन्यास बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बाद के भारतीय समाज में बढ़ती साम्प्रदायिकता से मुठभेड़ करता है। भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों का निरंतर हाशिए पर धकेला जाना उनकी रचनाओं का एक केंद्रीय तत्व रहा है। 

शीला जी को उपन्यास दिनांतके लिए यशपाल पुरस्कार और यहूदी गाथाके लिए उ प्र हिंदी संस्थान का प्रेमचंद पुरस्कार, एवं हिंद्स्तान टाइम्स का पेन ऑफ द इयरसम्मान प्राप्त है। उनकी कुछ कहानियां देसी-विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। यहूदी गाथाउपन्यास शीघ्र ही अंग्रेजी में प्रकाशित हो रहा है। वे अपने पति रवींद्र वर्मा (हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार और छोटी कहानियां लिखने के लिए चर्चित) के साथ लखनऊ में रहती हैं। प्रस्तुत है उनसे संक्षिप्त बातचीत-

* शीला जी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताइए।

- मेरे पिता आइजेक जेकब रोहेकर गुजरात में प्रशासनिक सेवा में थे। उन्हें अपनी यहूदी जड़ों से बहुत प्यार था। मां, एलिजाबेथ गृहिणी थीं। हम दो बहनें और दो भाई हैं। मैं सबसे बड़ी हूं। छोटी बहन बाद में इसराइल जाकर बस गई। एक भाई भी वहां गया लेकिन एडजस्ट नहीं कर पाया तो लौट आया।

* साहित्य की ओर रुझान कैसे हुआ?

- स्कूली दिनों से ही मैं बहुत पढ़ाकू थी। लाइब्रेरी बंद होने तक बैठी पढ़ती रहती थी। गुजराती, हिंदी अंग्रेजी की साहित्यिक पुस्तकें, पत्रिकाएं, सब। कुछ-कुछ विद्रोही-सा स्वभाव भी था। चीजों को अलग नजरिए से देखने वाला। इसी से पहले गुजराती में लिखना शुरू किया। बीएससी करने के समय से हिंदी में भी लिखने लगी। पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी तो हौसला बढ़ता गया।

* रवींद्र जी से कैसे मुलाकात हुई?

- धर्मयुगमें मेरी कहानी छपी थी- चौथी दीवार। उस पर बहुत से पत्र आए थे। रवींद्र जी ने भी प्रशंसा में पत्र लिखा। तब वे मुम्बई में थे। पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। काम के सिलसिले में अमदाबाद आए तो मिलने आए। बस, ऐसे ही...। फिर हमने विवाह कर लिया, दिसम्बर 1969 में।

* यहूदी गाथालिखने के पीछे क्या विचार था? इसमें आपकी अपनी कहानी कितनी है?

- असल में भारत में इतने कम यहूदी हैं कि लोग जानते ही नहीं कि वे कौन हैं, क्या हैं। उन्हें कभी मुसलमान समझ लिया जाता है, कभी ईसाई। उनके लिए किराए का मकान ढूंढना भी मुश्किल होता है। हमारे सेनेगॉग’ (पूजा स्थल) को भी रहस्य की तरह देखते हैं। यहूदियों में अपने मूल स्थान से  स्वाभाविक ही बड़ा लगाव होता है लेकिन वे लम्बे समय से यहां रहते-रहते भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए हैं। भारतीय हैं मगर बहुत उपेक्षित। यह सब हमने बचपन से देखा-भोगा। अपने अनुभव तो रचनाओं में आते ही हैं।

* यहूदी भारत में कैसे पहुंचे?

- करीब दो हजार साल पहले यहूदियों का एक जहाज कोंकण तट पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। उसमें चंद ही यहूदी बच पाए जो महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा में बस गए। दूसरे विश्व युद्ध के समय, हिटलर के आतंक से भाग कर भी कुछ यहूदी यहां आए। कुछ लोग बाद में वतन लौटे भी लेकिन बाकी यहीं के होकर रहे।

* यहूदी होने के नाते कभी आपको उपेक्षा या डर जैसा अनुभव हुआ?

- हां। कैसा लगता है और कब, इसे वही महसूस कर सकते हैं जो इस स्थिति में होते हैं। समझा पाना मुश्किल है। 

* हिंदी साहित्य में और कोई यहूदी लेखक हुआ?

-जी, मीरा महादेवन ने मुझसे पहले भारतीय यहूदियों पर हिंदी में एक उपन्यास लिखा था- अपना घर’, जो 1961 में अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। मीरा का मूल नाम मरियम जेकब मेंड्रेकर था। शादी के बाद उन्होंने नाम बदला। उनका कम उम्र में देहांत हो गया था। उसके बाद मैंने ही लिखा। अंग्रेजी में एस्थर डेविड खूब लिखते हैं। एक और हैं कोलकाता में, नाम अभी याद नहीं आ रहा।

* आप कभी इसराइल गईं?

- हां, तीन-चार वर्ष पहले। वहां की साहित्य अकादमी के निमंत्रण पर भारत से लेखकों का एक प्रतिनिधिमण्डल गया था। यहूदी गाथाके कारण मुझे भी उसमें शामिल किया गया।

* कैसी अनुभूति हुई थी वहां, अपने मूल वतन आने जैसा कुछ?

-नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं लगा। वहां इतने धार्मिक टकराव हैं, दमन हैं और लड़ाइयां हैं कि उनकी ओर अधिक ध्यान गया। वंचित समुदायों की तरफ मेरा ध्यान ज़्यादा जाता है।  

* इन दिनों आप क्या लिख रही हैं?

- अभी एक उपन्यास पूरा किया है, पल्ली पारनाम से। सेतु प्रकाशन को दिया है। भारतीय समाज के गरीब, पिछड़ी और दलित जातियां, अल्पसंख्यक, वगैरह, जो पल्ली पार यानी हाशिए पर धकेले जाते समाज हैं, राजनीति और रिश्तों का क्षरण, इसके विषय हैं।

(samalochan.com dated Aug 16, 2021)

   

    

  

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