राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के
बड़े-बड़े नेता जब किसी दलित के घर खाना खाने बैठते हैं और मीडिया में उसका खूब
प्रचार भी होता है, तब समाज में
क्या संदेश जाता है? क्या समाज यह संदेश ग्रहण करता है कि कोई भी निम्न जाति का
नहीं होता, सभी इनसान बराबर होते हैं और सदियों से
दबाई-कुचली गई आबादी को बराबरी का पूरा अवसर देना होगा? क्या
सचमुच?
राष्ट्रीय स्तर के नामी-गिरामी नेता किसी दलित की झोपड़ी में
बैठकर भोजन करते हुए बड़े प्रसन्न दिखाई देते हैं। इन नेताओं का विशाल अनुयायी वर्ग
होता है। इसलिए अपेक्षा की जाती है कि उनके आचरण का जनता पर प्रभाव पड़ेगा। वे भी
उसी तरह का आचरण करने लगेंगे। कम से कम, दलित-गैर दलित का भेदभाव बरतना कम होगा।
समाज में समानता बढ़ेगी। या उनके इस भोज का कोई और संदेश होता है?
वंदना कटारिया का नाम इन दिनों सबकी जुबान पर है। ओलम्पिक
में शानदार प्रदर्शन करने और पहली बार सेमीफाइनल तक पहुंचने वाली भारतीय हॉकी टीम
की वह स्टार-स्ट्राइकर है। एक मैच में तो उसने गोलों की हैट्रिक लगाई। कांस्य पदक
की भिड़ंत में भी एक गोल किया। इससे पहले किसी महिला खिलाड़ी ने ओलम्पिक हॉकी में हैट्रिक
नहीं लगाई थी। वंदना की लगभग पूरे देश ने तारीफ की। ‘लगभग’
इसलिए कहा कि जिस दिन हमारी टीम सेमीफाइनल में अर्जेण्टीना से हारी,
उस दिन हरद्वार में वंदना के घर के बाहर कुछ युवकों ने जातीय घृणा से
भरे नारे लगाए और नंग नाच किया।
वे भले ही चंद युवक थे लेकिन क्या उनका यह कृत्य राष्ट्रीय
शर्म का विषय नहीं है? व्यापक निंदा भी हो रही है। सवाल यह है कि
क्या हमारा समाज बिल्कुल नहीं बदला है? जातीय भेदभाव और घृणा
पहले की तरह मौजूद है? वंदना कटारिया जब देश की तरफ से
ओलम्पिक खेलती है तब भी वह ‘दलित’ बनी
रहती है जिसके कारण देश मैच हार जाता है? महत्वपूर्ण मैच में
पराजय का कारण वही क्यों बतायी जाती है? उसके बहाने सारे
दलित खिलाड़ियों को क्यों निशाने पर रखा जाता है?
कुछ दिन पहले गोरखपुर में एक ग्राम पंचायत अधिकारी की इसलिए
हत्या कर दी गई क्योंकि उसने ‘निम्न जाति’ का होते
हुए अपनी ‘उच्च जातीय’ सहकर्मी से
विवाह किया। लड़की के घरवालों और रिश्तेदारों को यह विवाह स्वीकार्य नहीं हुआ। इक्कीसवीं
सदी के ‘विश्व गुरु’ भारत के माथे पर
कलंक का टीका लगाने वाली ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। दलित, पिछड़ी जातियों और सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी समाजों से उभरी विभिन्न
क्षेत्रों की कई प्रतिभाएं राष्ट्रीय स्तर पर चमक रही हैं। खेलों में ही कई
आदिवासी, दलित एवं पिछड़ी जातियों की प्रतिभाओं ने देश का नाम
रोशन किया है। क्या उन्हें बराबर का सम्मान और गौरव दिया जाता है?
तो, दलितों के घर नेताओं के बहु-प्रचारित
भोज-आयोजनों का कुछ प्रभाव क्यों नहीं पड़ता? क्या ये
कार्यक्रम मात्र दिखावे के लिए होते हैं और इनका उद्देश्य वास्तव में कुछ और होता
है? ये आयोजन चुनाव के समय ही क्यों दिखाई देते हैं? आज देश की राजनीति मुख्यत: दलित और पिछड़ी जातियों के वोट हासिल करने पर
केंद्रित हो गई है। क्या इस राजनीति का कोई सम्बंध दलित-पिछड़ा सामाजिक-राजनैतिक
उत्थान और बराबरी से नहीं है?
दलित, पिछड़ी और आदिवासी विशाल आबादी नई करवट ले
रही है। राजनैतिक-सामाजिक चेतना का प्रभाव दिखाई दे रहा है। वंदना का ओलम्पिक
खेलना और बेहतरीन प्रदर्शन करना उस समाज को बड़ी ताकत और आगे निकलने की प्रेरणा
देता है। अपनी मिथ्या जातीय श्रेष्ठता का दम्भ करने वाले और घृणा से भरे लोग इसे
सहन क्यों नहीं कर पाते? उनके दिमाग कब साफ होंगे?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 07 अगस्त, 2021)
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