एक सप्ताह के लिए दो शहरों की यात्रा करनी थी। एक हलका जैकेट खरीदने पास के मॉलनुमा ‘स्टोर’ (दुकान नहीं!) में चला गया। एक जैकेट मन आ गई तो खरीद ली। भुगतान वाले काउण्टर पर तैनात लड़की ने कहा- ‘अंकल, सिर्फ दो सौ रु का कुछ और ले लीजिए तो फ्री गिफ्ट आपका हो जाएगा।’ मैंने मना किया- ‘नहीं-नहीं, सिर्फ इसे ही दे दीजिए।’ लड़की ने आश्चर्य से कहा- ‘सिर्फ दो सौ रु के लिए आप डेढ़ हजार रु का गिफ्ट छोड़ रहे हैं! देखिए, ये रहा टी-कप और कॉफी मग सेट, डबल गिफ्ट!’ उसने काउण्टर के पीछे सजे गिफ्ट सेट की ओर इशारा किया। वहां, सचमुच आकर्षक पैकिंग के भीतर से लुभावने डिजायन में कप और मग झांक रहे थे।
‘लेकिन दो सौ रु में मिलेगा क्या?’ मैंने संकोच
व्यक्त किया। वह तत्काल दो ‘डिओडरेण्ट’
ले आई। प्रत्येक एक सौ निनानब्बे का था।’ यानी चार सौ और खर्च
करने थे। मैंने इधर-उधर देखकर कहा- ‘एक अंडरशर्ट न ले लूं?’
उसने कहा- ‘सॉरी अंकल, वह
गिफ्ट स्कीम में नहीं है।’ फ्री गिफ्ट की लालच में खुशबू वाले
दो फुर्र-फुर्र लेने पड़े। बिल बनाते समय उसने रहस्य खोला कि ‘फ्री गिफ्ट’ के मात्र दो सौ रु देने होंगे। तो ‘फ्री कैसे’ हुआ? वह मुस्कराई- ‘सिर्फ दो सौ में पंद्रह सौ का गिफ्ट फ्री नहीं हुआ? आप
भी अंकल! और, इसके साथ आपको मिल रहे हैं इत्ते सारे डिस्काउण्ट
कूपन!’
‘एक थैला भी तो चाहिए होगा। कैसे ले जाएंगे?’ बात ठीक थी। ‘फ्री गिफ्ट’ का पैकेट
बड़ा था। सो, सात रु का एक थैला लेना पड़ा। बिल के साथ उसने अलग-अलग
रंगों में छपे खूबसूरत डिस्काउण्ट कूपन पकड़ाए। प्रत्येक कूपन पांच सौ रु का था। मुझे
मिले सारे कूपनों का जोड़ नौ हजार रु निकला। वाह, साढ़े चार हजार
रु की खरीदारी पर नौ हजार रु के गिफ्ट कूपन। हमने तो बाजार लूट लिया था! कूपनों को
नोटों की तरह सम्भाले खुशी-खुशी घर लौट आए।
डिस्काउण्ट कूपनों की ललचाती
तस्वीरों के पीछे बारीक अक्षरों में बहुत कुछ छपा था। उसे पढ़ने के वास्ते आतिशी शीशा
चाहिए। चश्मे से जो कुछ वाक्य पढ़े जा सके, उससे समझ में आया कि कोई कूपन डेढ़ हजार से ऊपर की खरीदारी पर मान्य होगा, कोई दो
हजार से ऊपर का सामान लेने पर। कोई सिर्फ गरम कपड़े खरीदने पर लागू होगा, कोई जूते (लिखा तो ‘फुटवियर’ है)
लेने पर। कुछ कूपन सिर्फ महिलाओं और बच्चों की खरीदारी पर छूट दिला सकते हैं। इनसे
हर तरह के और हर ब्राण्ड के सामान पर छूट नहीं मिलेगी। कूपन भुनाने की भी तारीखें हैं।
सभी कूपन चौदह से सत्ताईस दिसम्बर के बीच खरीदारी करने पर मान्य होंगे। अर्थात नौ हाजर
के डिस्काउण्ट कूपन भुनाने के लिए कई हजार रु की और ऐसी-ऐसी खरीदारी करनी होगी जिसकी
फिलहाल कोई अवश्यकता ही हमें नहीं है।
तब भी डिस्काउण्ट कूपन मुझे बार-बार ललचा रहे हैं कि फिर से
उस ‘स्टोर’ में जाया जाए। बच्चे कह रहे हैं कि जाइए,
कुछ ले आइए। न लेना हो तो हमें दे दीजिए। उनके पास भी ढेर सारे कूपन
हैं। वे आए दिन कूपनों की ‘एक्सपायरी डेट’ देखते हैं। उससे पहले उनका इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं। जब भी वे बाजार से
लौटते हैं उनके हाथ में ढेर सारे कूपन और ‘मेम्बरशिप कार्ड’
होते हैं जिन्हें लेकर वे फिर बाजार जाने का प्लान बनाते रहते हैं। खरीदारी
अब आवश्यकता के लिए नहीं होती। बाजार हमें अपनी तरफ खींचता और जबरन खरीदवाता है। हम
सब बाजार की गिरफ्त में हैं। इसी तरह देश की अर्थव्यस्था चलती है।
हम बेजरूरत, बेहिसाब खरीदेंगे नहीं करेंगे तो जीडीपी कैसे
बढ़ेगी? सभ्यता कचरे में कैसे डूबेगी?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 दिसम्बर, 2021)
1 comment:
आज के बाजारीकरण एवं उपभोक्तावाद की वास्तविकता और आकर्षक खरीद की द्वंद पर बड़ा ही सटीक लेख है। धन्यवाद
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