Friday, December 10, 2021

चुनावी राजनीति का नया शब्दकोश जारी

वैसे तो अब सरकारें और राजनैतिक दल हमेशा ही चुनावी भाषा बोलते हैं और प्रत्येक भी निर्णय इसी तराजू में तोला जाता है कि वह वोटों में कितना लाभ देगा, लेकिन चुनाव बिलकुल करीब देख राजनीति की शब्दावली ही पूरी बदल जाती है। इन दिनों हम यही देख-सुन रहे हैं। एक नया शब्दकोश बांचा जा रहा है। टोपियों के रंगों के नए-नए मायने बताए जा रहे हैं। नए मुहावरे, नारे और जुमलेगढ़े जा रहे हैं। इतिहास की कब्र से हतप्रभ करने वाली नित नई खोजें निकाली जा रही हैं। मीडिया का चेहरा नई शब्दावली से दमक रहा है। जुमले गढ़ने में मीडिया भी पीछे नहीं।

चुनाव देहरी पर खड़ा है। जनता की पूछ एकाएक बढ़ गई है। एक साल से अधिक समय तक चला किसान आंदोलन समाप्त हो गया है। उनकी लगभग सभी मांगें मान ली गई हैं। यह जनता का समय है, उसे प्रसन्न करने का। जो मांगें कल तक देश एवं विकास विरोधी थीं, वे सहज ही स्वीकार कर ली जाती हैं। चुनाव के समय आंदोलन यानी जनता का आक्रोश नहीं चाहिए। जय-जय होनी चाहिए। नेताओं के सम्बोधन विपक्षियों के लिए जितने पैने और मारक हैं, जनता के लिए उतने ही मधुर। जनता, तेरा ही सहारा!

समाज के संगठित वर्ग इस मौसम को खूब अच्छी तरह पहचानते हैं। विभिन्न संगठन इस नाजुक अवसर पर अपनी मांगें जोर-शोर से उठाने लगे हैं। किसानों की अप्रत्याशित विजय देख श्रमिक संगठन भी बाहें चढ़ाने लगे हैं। राज्य कर्मचारियों से लेकर बैंक कर्मियों के संगठन तक चेतावनी उछाल रहे हैं। आंदोलन  की रणनीति बना रहे हैं। चुनाव का समय अपनी आवाज सुनवाने का सबसे उपयुक्त समय माना जाता  है। जिन गांवों की पुल, बिजली, सड़क, आदि की मांग कबसे अनसुनी होती आ रही है, वे गांव के बाहर काम नहीं तो वोट नहींके बैनर इसी समय लगाते हैं।

सरकारी दफ्तरों में फाइलें पलटी या तैयार की जा रही हैं कि कहां, कैसी-कैसी घोषणाएं की जा सकती हैं। जनता को क्या-क्या उपलब्धियां बताई जा सकती हैं। यूं, इतनी कवायद की भी आवश्यकता नहीं। मौके पर जो मुफीद लगे, वैसी घोषणा कर दी जाती है। आश्वासन दे दिए जाते हैं। इतनी घोषणाएं, इतने शिलान्यास, उद्घाटन-पुनरुद्घाटन, वादे और दावे गूंजते हैं कि हिसाब रखना सचमुच कठिन हो जाता है। जनता को खुश करने के उद्देश्य से नई-नई बातें, कैसे-कैसे आश्वासन! इन वादों और आश्वासनों का हिसाब रखने की चिंता नहीं जाती। जनता याद रखे तो रखे।   

वैसे, जनता भी खूब समझती है। वह जानती है- अच्छा, चुनाव हैं! लोकतंत्र, जिसमें जनता की सुनी जानी चाहिए, इसी समय जीवित दिखाई देता है। चुनाव समीप देख लोकतंत्र सांसें लेना लगता है। जैसे, उसे ऑक्सीजन लग जाती हो! राजनैतिक दल जैसा विष-वमन कर रहे हैं, उससे भी यही लगता है कि अपना महिमा-मण्डित लोकतंत्र आईसीयू में ही है। मर्यादा और नैतिकता तो चुनावी शब्दकोश से कबके गायब हो चुके शब्द है। अब प्रतिद्वंद्विता इसमें है कि कौन कितना नीचे गिर सकता हैं। नई शब्दावली में इसे ऊपर उठना माना जाता है। कोई बिल्कुल नया जुमला, नई खोज’, नई गाली, नई चुनौती छोटे नेता को बड़ा या स्टार नेता बना देती है।

चुनावों की घोषणा नहीं हुई है लेकिन अखाड़े गरम हो चुके हैं। सभाओं में उछाले जा रहे जुमलों की तत्काल काट करने की होड़ मची है। लाल रंगकी इतनी अद्भुत परिभाषाएं सामने आ चुकी हैं कि भाषा शास्त्री पानी भर रहे हैं। इतिहास शरम के मारे गहरे धंसा जा रहा है। भविष्य की खतरनाक जिह्वा लपलपा रही है। और, अभी तो खेलाहोना बाकी है!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 दिसम्बर, 2021)    

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