कल रात इजा फिर सपने में दिखाई दी। रसोई में मोटी-मोटी रोटी पका रही थी।
‘इजा, इतनी रात में रोटी क्यों पका रही है?’ मैंने पूछा।
‘किलै, सीजर खाल (क्यों, सीजर
खाएगा)... भूखा मार दोगे उसे?’ रसोई की देहरी पर
सीजर पसरा था, वैसे ही जैसे बैठा
करता था। अगले पांव के पंजे भर रसोई के भीतर करके।
सुबह नींद खुली तो इतना ही याद रहा। सपने में आगे क्या हुआ, पता
नहीं। इजा को इस दुनिया से कूच किए हुए साल भर होने को है। सीजर को गए पांच साल हो
गए। इजा की फोटो उसके कमरे में टंगी है। सीजर की फोटो एक छोटे फ्रेम में लॉबी के
आले में रखी है। इजा तो कभी-कभार सपने में आती रहती है। सीजर कल पहली बार दिखा।
वैसे, फोटो देखकर उसकी अक्सर याद आती है। हम उसकी प्यारी
आदतों को याद करते रहते हैं- ‘सीजर ऐसा करता था, सीजर वैसा करता था। बहुत प्यारा था हमारा सीजर।’
वर्षों पुरानी बात। बड़े बेटे ने, जब वह
करीब आठ-दस साल का था, एक दिन अपनी मां से कहा था- ‘मां, सुकांत के यहां डॉगी ने पिल्ले दिए हैं। एक हम
पाल लें?’
‘आमा नहीं मानेगी, बेटा।’
‘मां, प्लीज! लाने दो न। बहुत प्यारे
पिल्ले हैं। प्लीज मां।’
तभी अपने कमरे से बाहर आती इजा की नड़क (डांट) सुनाई दी- ‘खबरदार
रे, कुकुर झन लाया घर में (कुत्ता मत लाना घर में)’
बेटा सहम गया और बड़ी याचना से अपनी मां को देखने लगा। लता
ने मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। बेटे की मनुहार उसका दिन पिघला रही थी लेकिन वह अपनी
सास से अच्छी तरह परिचित थी।
‘आमा, प्लीज! लाने दो न। मेरे दो दोस्त
एक-एक पिल्ला ले गए। अब एक ही बचा है।’
‘चुप रौ,’ इजा ने नाती को डपट दिया- ‘कुकुरै छूत हुंछि (कुत्ते की छूत होती है। कौन लाता
है उसे घर में)
बेटा रुंआसा होकर एक किनारे बैठ गया। दिन भर उसका मुंह फूला
रहा। लता ने मुश्किल से खाने के लिए मनाया। वह डबडबाई आंखों से ‘मां
प्लीज-मां प्लीज’ करता रहा।
एक दिन स्कूल से आते समय बेटा अपनी गोद में एक प्यारा-सा
नन्हा पिल्ला छुपाए हुए ले आया। उसे चुपचाप बेडरूम में बंद कर दिया।
‘आमा को नहीं बताएंगे। इसी कमरे में रखेंगे,’ शाम को उसने बताया। उसके धीमे स्वर में दृढ़ता थी। वह एक कटोरे में थोड़ा
दूध निकाल लाया- ‘ले सीजर, पी!’
पिल्ला नन्हीं जीभ से दूध चाटने लगा। उसकी नन्हीं दुम लगातार हिल
रही थी। दोनों बच्चों के लिए वह खिलौना जैसा हो गया। उससे लाड़ करते न अघाते।
‘इसका नाम सीजर रखा है मैंने,’ बेटे ने
जानकारी दी। हलके भूरे रंग के सीजर के पंजे सफेद थे। नाक के पास काला बूटा। वह
बहुत प्यारा लग रहा था। हमें भी उस पर लाड़ आने लगा लेकिन इजा का डर बना रहा। हमें
पता था कि वे इसे घर में कतई नहीं रहने देंगी।
इजा बहुत छुआ-छूत मानती थीं। पहाड़ की पुरानी आदत। रसोई में
सिर्फ एक धोती पहनकर जाती और अपना खाना खुद बनाती। बाबू के निधन के बाद वह और भी
परहेजी हो गई थी। हम लोगों का छुआ पानी भी नहीं पीती थी। सुबह हमारे उठने से पहले
उसके बहुत से इंतजाम हो जाते थे। एक जग और एक लोटे में फिल्टर से पानी भर कर रसोई
के एक कोने में ढक कर रख देती। वही पानी पीती, उसी से चाय बनाती और खाना
भी। लता के हाथ की पकाई पूरी, हलवा, वगैरह
खा लेती लेकिन आटा सानते समय ध्यान से देखती कि उसी का पानी इस्तेमाल हो रहा है।
स्वयं देखा न हो तो सुनिश्चित कर लेती- ‘तूने आटा किस पानी
से साना?’ रोटी पकाने का तवा उसका अलग था। उसमें हमने एक लाल
निशान बना रखा था, पहचान के लिए। खाना पकाने वाली सहयोगी कभी
भूल से हमारी रोटियां इजा के तवे पर पका लेती तो उस दिन हंगामा मच जाता। इजा
गुस्से में वह तवा पटक देती और खूब बड़बड़ाती। उस दिन अपनी कढ़ाई में रोटी
पकाती।
फ्रिज में सबसे ऊपर का खाना उसके नाम आरक्षित था। उसमें उसकी
चीजें रखी रहतीं- दूध, दही, सना आटा,
खाने की और चीजें। फ्रिज के नीचे के खाने हम लोगों के थे। हम अपना
सामान रखते-निकालते लेकिन उसके हिस्से को छूना नहीं होता था। दूध की छूत नहीं
मानती थी लेकिन जितनी बार दूध निकालना होता, कोशिश करती कि
वह स्वयं निकाल कर दे। बहाना यह होता कि मलाई गजबजी जाती है। मलाई जमा करके घी
बनाती थी और यथासम्भव वही इस्तेमाल करती।
हलद्वानी से रेखा-सतीश आते तो उन्हें याद दिलाना पड़ता कि
फ्रिज के ऊपर की सेल्फ इजा की है। कोई संबंधी आ आते तो उन्हें सावधान करना पड़ता कि
ऊपर रखी चीजें न छुएं।
हम हंसते- ‘तू ये क्या ड्रामा करती है इजा? हम दस बार फ्रिज खोलते हैं, सामान निकालते-रखते हैं।
उसमें नहीं होती छूत?’
‘चुप रौ,’ वह डपट देती या मुंह बनाकर अपने
कमरे में चली जाती। जाड़ों के दिनों में तो अपना दूध, दही,
पानी, वगैरह अपने कमरे में रख लेती थी।
गर्मियों में फ्रिज में रखना लाचारी होती। खाने में भी कई तरह के नियम थे। टमाटर,
गाजर यानी लाल रंग वाली सब्जियां नहीं खाती थी। प्याज-लहसुन भी
नहीं। दाल-सब्जी छौंकने के लिए एक गमले में ‘दुन’ लगा रखा था, वही तोड़ लाती। पहाड़ से ‘धुंगार’ भी लाती या मंगाती। जम्बू-गंदरैणी भी
इस्तेमाल करती। शिकार खाने का तो सवाल ही नहीं उठता था लेकिन हमारे खाने पर आपत्ति
नहीं करती थी। बस, इतना ध्यान रखती कि जिन बर्तनों में मांस
पकता, उन्हें बिल्कुल अलग रखा जाए।
तो, ऐसी परहेजी हमारी इजा कैसे अनुमति देती कि
घर में कुत्ता पाला जाए? बिल्ली होती तो अलग बात थी। वह आराम
से रसोई में जा सकती है। कुत्ता रसोई की तरफ कदम भी बढ़ा दे तो इजा मुंह का कौर भी
थूक दे!
बड़ी मुश्किल। एक रात किसी तरह नटखट सीजर को कमरे में बंद
रखा। दूसरी सुबह बेटे को मनाया- ‘एक दिन रख लिया, बहुत
हुआ। आज तू इसे वापस कर आना।’
‘बिल्कुल नहीं,’ बेटा अड़ गया- ‘मैं इसे पालूंगा। देखो तो कित्ता प्यारा है। आमा के पास नहीं जाना,
हां सीजर!’ वह उसे पुचकारने लगा।
लाड़ हमें भी उस पर आ रहा था। था भी बहुत ही मोहिला। रात उसे
एक मचिया पर दरी बिछाकर सुलाया। वह गुड़मुड़ी होकर सो गया। बेटा बीच-बीच में उठकर
उसे देखता तो सीजर फौरन उठकर पूंछ हिलाने लगता। बेटे के पास पहुंचने के लिए
कूं-कूं करने लगता। छोटा इतना था कि बिस्तर पर चढ़ नहीं सकता था। हम कमरे में जाते
तो छोटी-सी दुम हिलाते हुए पीछे-पीछे लग जाता, पैरों से उलझ पड़ता। बच्चों
से तो वह दूर ही नहीं होना चाहता था। नन्हीं कंजी आंखों से उसे देखता और तेज-तेज पूंछ
हिलाता रहता। उनके लिए वह प्यारा खिलौना बन गया था।
घर में तिनका भी हिले तो इजा को पता चल जाता था। यहां तो एक
नन्हा प्राणी अपनी मोहिली अदाओं से हम सबको रिझाए हुए था।
‘बाहर फेंक आ इसको,’ इजा गरजी। सीजर पता
नहीं कब कमरे से लॉबी में निकल आया था। लॉबी से ही लगी रसोई थी। इजा की चीख पर
सहमा सीजर उन्हें देखे जा रहा था। बेटा बड़ी मुश्किल से इस आश्वासन पर स्कूल गया कि
सीजर को बाहर नहीं किया जाएगा।
‘यहां आएगा तो तेरे खुट (पैर) टोड़ दूंगी,’ इजा ने सीजर को बड़े गुस्से में चिमटा दिखाया। वह पता नहीं क्या समझा,
पूंछ हिलाते हुए रसोई की तरफ बढ़ा। तत्काल उसे पकड़ कर कमरे में बंद
किया गया।
काफी सोच-विचार के बाद तय हुआ कि सीजर बाहर बरामदे में रहेगा।
घर के अंदर उसे नहीं आने देंगे। वहीं उसका बिस्तर, खाने और पानी का बर्तन रख
दिया गया। वह वहां रुकता तब न! जैसे ही उसे बरामदे में करके दरवाजा बंद किया,
वह जाली के दरवाजे से मुंह लगाकर कूं-कूं-कूं करने लगा। अपने नन्हे
पंजे से दरवाजा खुरचने लगा। जोर-जोर से पूंछ हिलाकर मनुहार करने लगा। था भी बहुत
छोटा और मां से पहली बार बिछुड़ा था। उस पर ममता आ गई। थोड़ी देर बाद ही उसे भीतर ले
आया गया।
उसे कमरे में बंद रखना सम्भव न था। वह घर भर में घूमता।
जहां से किसी की आवाज सुनता, पूंछ हिलाते हुए उधर ही भागता। इजा ने एक
तरह से समझौता कर लिया था। वे जान गईं थीं कि वह इसी घर में रह जाने वाला है। सीजर
और उनके बीच एक तनातनी बनी रहती जिसे दूर करने के लिए सीजर पूंछ हिलाने और उनके
पीछे-पीछे दौड़ने में कोई कसर न छोड़ता। वे ‘हड़ि” कहकर उसे
घुड़क देतीं। हम यह ध्यान रखते कि जब इजा रसोई में हो तो सीजर उस तरफ न जाने पाए।
इजा भी उसे चिमटा दिखाकर डराती- ‘यां मत आना हां, खबरदार!’ इतने दिनों में सीजर भी समझ गया था कि उसे
रसोई में नहीं जाना है। वह ज़ल्दी-ज़ल्दी बड़ा होने लगा था।
‘सीजर, हट वहां से,’ एक दिन मैंने उसे रसोई के दरवाजे पर खड़े देखा तो डपटा। इजा अपना खाना पका
रही थी।
‘रूंण दे (रहने दे,) नहीं आता रसोई में,’
इजा ने कहा तो सुखद आश्चर्य से मेरे चेहरे पर हंसी खिल गई। एक और
सुबह देखा कि इजा रसोई में है और सीजर रसोई के दरवाजे पर बैठा है। दोनों पंजे आगे
करके उस पर अपनी थूथन टिकाए वह लगातार इजा को देखे जा रहा था।
‘बैठे रहना हां, अभी दूंगी!’ इस बार इजा सीजर से संबोधित थीं और प्यार से। सीजर ने इजा का दिल जीत लिया
था। खा चुकने के बाद उन्होंने उसे उसका हिस्सा दिया। फिर यह रोज का नियम बन गया।
जब तक इजा रसोई में रहती वह द्वार पर बैठा रहता। कभी अंदर जाने की कोशिश उसने नहीं
की। उस समय हमारे बुलाने-पुचकारने पर भी वह न हिलता।
कुछ दिन बाद वह इजा के कमरे की देहरी पर भी ऐसे ही बैठने
लगा। कमरे के एक कोने में मंदिर था। इजा सुबह-शाम दिया जलाती, आरती
करती और घण्टी बजाती। घण्टी की आवाज सुनते ही सीजर सब कुछ छोड़कर उस कमरे की देहरी
पर जा बैठता। अगले दो पैर देहरी से तनिक भीतर और उन पर थूथन टिकाए। पूजा करने के
बाद इजा बच्चों को प्रसाद देती थी। चंद इलायची दानों का वह प्रसाद अब सीजर के
हिस्से भी आने लगा। बल्कि, सबसे पहले सीजर को देती फिर
बच्चों के लिए रखती।
‘तू तो सबसे पहले सीजर को प्रसाद देती है,’ एक दिन मैने हंसते हुए कहा।
‘क्या करूं, नहीं दिया तो मुख ही मुख देखे
रहता है।’ इजा मुस्कराई और सीजर को प्यार करने लगी। दोनों
में अब सम्वाद भी होने लगा था। दसेक महीने में सीजर अच्छा खासा बड़ा हो गया था।
नवरात्र के दिनों में इजा पास के एक मंदिर में कीर्तन सुनने
जाती। लौटते समय उसके हाथ के दोने में प्रसाद होता। पहले उसे बच्चों के लिए रख
दिया जाता था। अब सीजर हक जताने लगा। उसे पूरा दोना चाहिए होता। बड़े होते बच्चे
यूं भी पंजीरी, बताशा और कटा केला खाने में ना-नुकुर करते थे। सीजर की मौज हो
गई। वह इजा के इंतज़ार में फाटक पर बैठा रहता। नवरात्र के बाद इजा खाली हाथ आती तो
बेचैन होता। उछलकर अगले दोनों पैर उसके कंधों पर रख देता। तब इजा उसे कुछ न कुछ खाने
को दे देती।
इजा से हमारी कम ही बात होती थी। उसे जो भी कहना होता, हमें
सुनाते हुए सीजर से कहती- ‘पेंशन लेने जाना था। कब जाएं, सीजर?’, ‘सीजर, आज हाथ-पैर
बहुत चड़क रहे रे। कुछ दवाई होती...।’ ‘त्रिलोचन के यहां
मिलने जाना था, तू ले जा देगा सीजर?
‘आज क्या साग पकाएं?’ वह सीजर से पूछती- ‘झोली खाएगा, झोली?’ वह पकौड़ी
वाली झोली (कढ़ी) का बड़ा खवैया बन गया था। पहले उसे एक ग्रास देने वाली इजा अब उसके
कटोरे में ज़्यादा खाना देने लगी थी। डॉक्टर की सलाह के अनुसार हमने उसका दो टाइम
का खाना बांध रखा था। इजा भी उसे सुबह शाम खिलाने लगी। जो खाना बचता वह भी उसके
कटोरे में डाल देती। आम खाती तो गुठली सीजर के हिस्से। घी बनाती तो बचा मट्ठा और
कढ़ाई की खुरचन तक सीजर के पेट में जाने लगे। हम मना करते तो इजा नाराज हो जाती- ‘दो ही रोटी देते हो उसे। भूखा रहता है वह।’
नतीजा यह हुआ कि उसका पेट खराब रहने लगा। बीमारी में वह
खाना छोड़ देता तो इजा पुचकार-पुचकार कर अपने हाथ से उसे खिलाती। मिठाई का शौकीन हो
गया था। सो, मिठाई के साथ रोटी मींज कर खिलाती। सीजर उसके हाथ से खा लेता
मगर फिर उलटी कर देता। डॉक्टर के पास ले गए। उन्होंने हिदायत दी कि इसे समय पर ही
खाना दें और ज़्यादा बिल्कुल नहीं। इजा मानती तब न! उसने नाराज़ होते हुए कहा- ‘कैसा डॉक्टर है जो कम खिलाओ कहता है। शिबौ, भूखा रह
जाता है बिचारा।’
हमारे बहुत कहने पर उसने नाराज़ होकर एक-दो दिन सीजर को कुछ
नहीं दिया। सीजर उसका मुंह ताकता और पीछे-पीछे लगा रहता। वह गुस्से से हमें
सुनाती- ‘कुछ नहीं दूंगी तुझे, मुझे डांट पड़ती है।’
दो दिन बाद दोनों का लाड़ फिर शुरू हो जाता। घर में जो भी चीज आती
उसका एक हिस्सा सीजर के पेट में जाता रहा। पर्व-त्योहारों, बच्चों
के जनम बार पर पुए, सिंगल, पूरी,
हलवा पकता। खुशबू मिलते ही सीजर बौरा जाता। अपना कटोरा दांतों में
दबाए लॉबी में चक्कर लगाता और रसोई की तरफ टकटकी लगाए रहता। वह पुए का बहुत ही
शौकीन ठहरा और दरिया दिल इजा। वह सीजर को पिठ्यां लगाती और उसके सिर पर हरेला भी
धरती। पकवान उसके इतना मुंह लग गए थे कि एक-दो बार मंदिर में रखा भगवान का हिस्सा
चुपके से चट कर आया।
‘क्यों, मंदिर के पुए कहां गए?’ वह पूछती। बच्चों पर या घर में काम करने वाले लड़के बूबा पर शक करती। वे समझ
जाते- ‘सीजर, तूने चुराए ना पुए?’
सीजर आंख नहीं मिलाता और मुंह चुराने लगता लेकिन इजा मानती ही नहीं थी
कि सीजर मंदिर में जाकर पुए टपका सकता है।
हम पति-पत्नी दिन भर बाहर रहते। बच्चे स्कूल जाते। घर में
अकेली इजा का सीजर पूरा साथ देता। वे उससे बातें करती रहतीं। राम चरित मानस पढ़तीं
या भजन गातीं तो सीजर देहरी पर बैठा सुनता रहता। वे सो जातीं तो चौकीदार की तरह
सतर्क रहता। फाटक से कोई घण्टी बजाता तो इजा के उठने से पहले सीजर भौंकता हुआ
पर्दा हटाकर बैठक की खिड़की से झांक आता। उसके भौंकने के अंदाज और पूंछ के हिलने से
इजा समझ जाती कि कोई परिचित आया है या अजनबी खड़ा है।
बूबा सुबह-शाम सीजर को बाहर घुमाने ले जाता। यही उसके
निवृत्त होने का समय भी था लेकिन इजा दिन में कई बार बूबा को टोकती- ‘जा,
उसे बाहर ले जा। पिशाब लगी है उसे।’
गर्मियों में पहाड़ जाती तो फोन पर सीजर का हाल पूछना नहीं
भूलती- ‘उसे ठीक से खाना देना, हां! भूखा मत मार देना।’
उसे हमेशा यही लगता था कि हम सीजर को कम खिलाते हैं।
जमाना बीत गया। बच्चे बड़े होकर बाहर चले गए। सीजर बूढ़ा हो
गया। इजा की भी अच्छी उम्र हो गई थी। हालांकि वह स्वस्थ और सक्रिय थी लेकिन बुढ़ापे
के कष्ट घेरे रहते। सीजर की उसे अब और भी चिंता होने लगी थी। अपने हाथ-पैरों में
दर्द होता तो सीजर के पैर सहलाती- ‘तेरे भी चड़क हो रही होगी ना?’ सीजर का बुढ़ापा उसके पैरों से आया। चलने में लड़खड़ाने लगा। धक्के जैसे
लगते। सीमेण्ट की फर्श पर रहने-चलने से पैर उतने मजबूत नहीं रहे जितने बाहर खुले
में दौड़ने से होते। वैसे भी उसे हमारे यहां तेरह बरस हो रहे थे। लगभग पूरी उम्र। कुछ
समय बाद सुबह-शाम बाहर ले जाना भी मुश्किल हो गया। उसने खाना भी छोड़ दिया। इजा
उसका हाल देखकर ‘शिब-शिब’ करती और उदास
हो जाती। डॉक्टर ने इंजेक्शन लगाए लेकिन बता दिया कि अब इलाज से कोई लाभ नहीं
होगा।
एक सुबह सीजर खड़ा ही नहीं हो सका। ठीक से सांस भी नहीं ले
पा रहा था। पुकारने पर धीरे से पलकें उठाता, फिर शिथिल पड़ जाता।
‘मरता है ये अब,’ इजा रोने लगी।
सीजर का अंत समय जानकर हमने कुत्तों का अंतिम संस्कार कराने
वाली एजेंसी को फोन किया। डॉक्टर ने उसका नम्बर दे रखा था। उनके आने तक सीजर शांत
हो चुका था। हम सब उदास थे। इजा उसके पास बैठी, उसे प्यार करती और रोती
रही। उसकी स्थिर पुतलियां इजा की तरफ ही टिकीं थीं।
वे सीजर को उठा ले गए। हमने नम आंखों से उसे विदा किया। इजा
को चुप कराना मुश्किल हो गया था। जिस दिशा में सीजर को ले गए थे, उस
तरफ देखते हुए वह विलाप करती रही- ‘जा, सीजर जा, आराम से जाना। तेरे कारण मैंने कितनी डांट
खाई, कितनी टुकाई खाई, अब जा।’ सिसकियां रोकने के लिए उसने आंचल मुंह में ठूंस लिया था।
सीजर की बहुत याद आती। लगता वह अभी पूंछ हिलाता किसी कोने
से निकल आएगा। उसकी एक फोटो फ्रेम में लगाकर लॉबी के आले में रख दी। इजा खाना
बनाते-खाते, दिन भर में कई बार उसे याद कर रोती। बच्चे छुट्टियों में घर
आए तो उनके सामने सीजर को याद कर खूब रोई। छोटे बेटे ने कहा- ‘आमा, रोओ मत. हम एक और सीजर ला देंगे।’
इजा भड़क गई। रोना भूल कर गरजी- ‘खबरदार,
अब किसी को मत लाना। कुत्ते
का बच्चा हो, चिड़िया का पोथिला हो, प्राणी
हुआ। बड़ा मोह हो जाता है। मत लाना, मैंने कह दिया।’
भीतर जाकर सीजर की फोटो के पास खड़े होकर वह फिर आंसू बहाती
रही थी।
और, कल रात वह सपने में सीजर के लिए रोटी पकाती
दिखी। सीजर और इजा के किस्से हम अब भी अक्सर कहते-सुनते हैं।
('पुरवासी'- 2021. अल्मोड़ा)
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