इस समाचार पर खूब हो-हल्ला मचना चाहिए था कि राजधानी लखनऊ के 66 सरकारी स्कूलों में एक पखवाड़े से अधिक समय तक बिजली नहीं थी। मार्च के अंतिम सप्ताह में ही चालीस डिग्री से ऊपर चढ़ गए तापमान में बच्चे (और टीचर भी) बिना बिजली-पंखे बैठे रहे। कारण यह था कि इन स्कूलों पर कई साल से करोड़ों रु का बिजली बिल बकाया था। इसलिए बिजली विभाग ने उनका कनेक्शन काट दिया। काफी लिखा पढ़ी के बाद और बकाए का एक बड़ा हिस्सा चुका दिए जाने के बाद कई स्कूलों की बिजली जोड़ दी गई है। कुछ का कनेक्शन अभी जुड़ना बाकी है।
जब नई सरकार का आगाज गाजे-बाजे
और बड़ी-बड़ी घोषणाओं के साथ हो रहा है, तब एक पखवाड़े
तक स्कूलों का बिना बिजली रहना, बड़ी खबर नहीं बनता। यह भी पता चलता है कि
सरकारी विभाग कैसे काम करते हैं। बिजली विभाग ने शिक्षा विभाग को बकाए के कई नोटिस
भेजे होंगे, चेतावनी दी होगी। फाइलें इस मेज से उस मेज तक
चली होंगी। अब कहा जा रहा है कि ‘लैक ऑफ कम्युनिकेशन’
हो गया था। यानी सरकार का एक हाथ दूसरे हाथ से संवाद नहीं कर पाया।
ऐसा सरकारी विभागों के बीच अक्सर होता रहता है लेकिन हालात
सुधरते नहीं। सरकारी स्कूल वैसे भी हमारे यहां ‘ग्वाला न गुसांई’ वाली हालत में रहते हैं- लावारिस जैसे। उनकी दुर्दशा की मौसमी खबरें
मीडिया में आती रहती हैं। कनेक्शन कटा न हो तो भी बिजली आती नहीं, कई की इमारत खण्डहर हो रही हैं, बारिश में छतें चूती
हैं और कमरों तक लबालब पानी भरा रहता है, वगैरह-वगैरह।
आंकड़ों के अनुसार गांवों तक बिजली पहुंचाने के केंद्र सरकार
के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के चलते 2021 तक 96 फीसदी गांवों में बिजली आ गई थी।
तब भी देश के 37 फीसदी स्कूलों में बिजली नहीं पहुंच पाई थी। ‘वर्ल्ड
रिसोर्स इंस्टीट्यूट, इण्डिया’ की यह
रिपोर्ट पिछले ही साल सरकार को सौंपी गई थी। सितम्बर 2020 की एक रिपोर्ट थी कि उत्तर
प्रदेश के करीब 28 हजार स्कूलों में बिजली नहीं थी। इसका मुख्य कारण यह था कि
स्कूल की इमारत से बिजली के खम्भे बहुत दूर थे। तब यह उपाय निकाला गया था कि 2019
के लोक सभा चुनाव में निर्वाचन आयोग ने स्कूलों को मतदान केंद्रों के वास्ते जो धन
दिया था, उसमें से बची रकम से स्कूलों तक बिजली के खम्भे
लगाए जाएं। पता नहीं इस दिशा में कितना काम हुआ होगा।
सरकारी स्कूलों का कोई एक रोना नहीं है। इमारत-बिजली-पानी का
मामला हो या पढ़ाई-लिखाई का, प्राथमिक शिक्षा सबसे अधिक उपेक्षित है। हर
सरकार सरकारी स्कूलों का कायाकल्प करने की घोषणा करती है। अदालतें सरकार को झाड़
लगाती हैं कि उन्हें ठीक कीजिए। एक बार तो यह अदालती आदेश आया था कि
मंत्रियों-अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य किया जाए।
कभी विधायकों से इन स्कूलों को गोद लेने का अनुरोध किया जाता है। फिर भी हालात सुधरते
दिखाई नहीं देते। जिन 66 स्कूलों की बिजली काटी गई थी वे सभी राजधानी लखनऊ के हैं।
बाकी जिलों और दूर-दराज के स्कूलों का क्या हाल होता होगा, इसकी
कल्पना की जा सकती है।
पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी से मध्य-निम्न मध्य
वर्गे के परिवारों की आर्थिक हालत खस्ता हुई तो सरकारी स्कूलों में बच्चों का
प्रवेश एकाएक बढ़ गया था। निजी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या घट गई थी।
बच्चों की कमी से जूझ रहे सरकारी विद्यालयों के लिए यह अच्छा अवसर था लेकिन जब
इच्छा शक्ति न हो और जोर प्रचार पर अधिक हो तो क्या नतीजा निकलेगा?
(सिटी तमाशा, नभाटा,16 अप्रैल, 2022)
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