Wednesday, April 13, 2022

जीवन और जंगल से बेदखल जंगल के राजा

शोभाराम शर्मा जी का नाम मैंने प्रयाग जोशी जी से सुना था। प्रयाग जी ने 1972-73 में पिथौरागढ़ जिले के अस्कोट-जौलजीवी क्षेत्र के बीहड़ जंगलों/बस्तियों में घूम-घूम कर वनराजियों या वनरावतों (बणरौतों) के जीवन का अध्ययन किया था। उत्तराखण्ड की पांच जनजातियों में से एक और तेजी से विलुप्त होती इस जनजाति के बारे में प्रयाग जी की महत्वपूर्ण शोध रपट वनराजियों की खोज मेंशीर्षक से पहाड़ने अपने प्रवेशांक (1982) में प्रकाशित किया था। 

उसी बारे में बात हो रही थी। प्रयाग जी ने मुझे बताया था कि 1972 में जब उनकी नियुक्ति टिहरी के इण्टर कॉलेज में हुई तब वहां शोभाराम शर्मा भी तैनात थे, जिन्होंने 1960 के दशक में वनराजियों की भाषा-बोली पर शोधकार्य किया था, जो अब तक अप्रकाशित है। शर्मा जी से वनराजियों के बारे में सुनकर ही प्रयाग जी को वनराजियों की खोज-यात्रा में जाने की प्रेरणा मिली थी। 

सन 2022 में वनराजियों के जीवन और संघर्ष को आधार बनाकर लिखे गए उन्हीं शोभाराम शर्मा जी के उपन्यास काली वार-काली पारकी जानकरी मुझे फेसबुक से हुई तो उत्सुकतावश फौरन किताब मंगाकर पढ़ डाली।

घुमंतू जीवन शैली वाले राजी या वनरावत कभी जंगल के राजाकहलाते थे। जंगल उनके स्वाभाविक ठिकाने और आजीविका के साधन थे। वे इस हिमालयी भू-भाग के सबसे पुराने वाशिंदों में हैं लेकिन सभ्यता के विकास और आधुनिक प्रगतिके चलते वे धीरे-धीरे जंगलों से बेदखल किए गए। जिनके कारण जंगल, बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति सुरक्षित और वंदनीय थी, वे ही उसके विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराए और उजाड़े जाते रहे। आज तो वे चंद सैकड़ा संख्या में बचे हैं और मुख्य धाराका हिस्सा बनकर अपनी बोली-बानी, प्रकृति और संस्कृति, सब कुछ खो चुके हैं। 

काली वार-काली पारउपन्यास में वनराजियों की आदिम जीवन पद्धति एवं समाज-संस्कृति की झलक है और विस्तार से वह संघर्ष है जो उन्हें इस व्यवस्था से तरह-तरह के टकरावों, अपने बचाव की कोशिशों और अन्तत: विलोपन या पराजय में सहना पड़ा।

दुनिया के सभी आदिम या मूल निवासियों की तरह वनराजियों को भी बाहर से आए अपेक्षाकृत ताकतवर और चालाक मानव समाजों से क्रमश: दबना और सिकुड़ना पड़ा। उपन्यास का पहला खण्ड वनराजियों के अंतरंग संसार और फिर उस पर होते बाहरी हमलों की कथा कहता है कि किस तरह उनका स्वच्छंद वन-विचरण, वन-सम्पदा और ओड्यार-निवास (गुफा वास) छिनते गए, कि किस तरह उन्होंने बाहर से आए समाजों से बचते हुए भी उनका कृषि व धातु ज्ञान और स्थायी निवास अपनाने की कोशिश की और किस तरह उनके अपने समाज में सांस्कृतिक टकराव उत्पन्न हुए। 

दूसरे खण्ड में बाहरी समाजों के अलावा व्यवस्था यानी सरकारों के हस्तक्षेप उनके रहन-सहन और आचरण को कानून-विरुद्ध बताते गए और पुनर्वास की कोशिशों के नाम पर उन्हें उनके मूल से उजाड़ा और ठगा जाता रहा। उनकी यह व्यथा या तर्क किसी ने नहीं सुने-समझे कि “तुम लोग हमें राजी, वनरौत, राजकिरात या जंगली जो चाहो कहो, लेकिन यह कभी न भूलना कि खुदाई ने इन जंगलों का भार हमें सौंपा है। ये हमारी थाती हैं और जब से दुनिया बनी, हमारा कबीला ही यहां का रजवार (राज परिवार, शासक) है। फिर भी हमने इन जंगलों का दोहन कभी भी बेरहमी से नहीं किया। हम तो बस उतना ही लेते हैं जितना ज़िंदा रहने के लिए जरूरी है।”

बाहरी हमले और व्यवस्था के हस्तक्षेप जारी रहे, बल्कि बढ़ते गए। अपनी जड़ों के बचाव में इस पार के राजी उस पार यानी नेपाल की तरफ रुख करने को भी विवश हुए। वनराजियों की पूंजी’ (समाज, रिहायस) काली वार भारत और काली पार नेपाल में समान रूप से बसी हुई थी और दोनों तरफ उनके रिश्ते काली नदी की ही तरह सहज प्रवाहित रहते थे। 

आधुनिक विकास की विसंगतियों, कानून के दखल और प्राकृतिक संसाधनों की लूट मचाने वाली व्यवस्था ने उन्हें दोनों तरफ उजाड़ा। उनके जंगलों पर सरकारी कब्जे हुए। उनमें से कुछ सभ्यबनते हुए इस तंत्र में फिट होने की कोशिश करते रहे और कुछ तब भी अपनी पहचान के लिए जूझते हुए जंगलों में और भी भीतर सिमटते चले गए। दोनों ही तरह से उनकी अस्मिता पर चोटें पड़ती रहीं और वे धीरे-धीरे मिटते गए।

तीसरे और अंतिम खण्ड में उपन्यास की कथा वनराजियों के साथ-साथ शोषित-उत्पीड़ित समस्त जनता को शामिल करते हुए पूंजी आधारित शोषक व्यवस्था को ध्वस्त करके आम जनता का शासन स्थापित करने के लिए सशस्त्र संघर्ष की वकालत तक जाती है। भारत से नेपाल तक वनराजियों के उत्पीड़न की कथा कहते हुए उपन्यासकार उन्हें पूंजीपतियों, जन-सम्पदा के लुटेरे दलालों और महिलाओं के बिचौलियों के मजबूत जाल से भिड़ाते हुए नेपाल के माओवादियों के सशस्त्र विद्रोह के साथ गोलबंद करता है। 

परिवर्तन की इस प्रक्रिया यानी विद्रोह एवं खून-खराबे पर संदेह उठाने वाले कुछ वनराजियों की मार्फत संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से व्यवस्था सुधार की कोशिशों की पड़ताल भी की गई है। इसके लिए नवगठित उत्तराखण्ड में एक बनरौत के विधायक चुने जाने का प्रसंग उठाया गया है। उसके उदाहरण के जरिए बताया गया है कि इस तरीके से सुधार का सपना देखना सिर्फ एक धोखा है और इस उत्पीड़क-शोषक तंत्र को हथियार बंद लड़ाई के जरिए ही नेस्तनाबूद करके आम जनता का राज लाया जा सकता है।

तीसरे खण्ड के अपेक्षाकृत नारेबाजी वाले कथानक और तीखी राजनैतिक पक्षधरता के अलावा उपन्यास वनराजियों के जीवन संघर्ष और सांस्कृतिक पहचान के विलुप्त होते जाने की कहानी बड़े मार्मिक ढंग से कहता है। इसे पढ़ते हुए राजी बोली, रहन-सहन, खान-पान, आदि का पूरा आस्वाद मिलता है। राजी बोली की छौंक पूरे उपन्यास में महकती है और कई विलुप्त शब्दों और स्वादों से हमारा आत्मीय परिचय होता है- 

“क्या तुमने कभी वन ककड़ी का स्वाद चखा है? गुरुबंशा, सालम मिश्री, मूसली और सालम पंजा आदि का शाक खाया है? गेंठी, तरुड़, त्यगुना, वन-प्याज, काकिला और लिगुणा-कुथड़ा से तो तुम परिचित हो, लेकिन अपामार्ग और रतपतिया (नीलकंठी) तो तुमने शायद ही चखी हो। क्वेराल (कचनार), शकुना और च्यूरा के फूलों की कीमत जानते होगे लेकिन क्या पंचांक की जड़ और उसके बीजों का उपयोग भी जानते हो? अरे, पत्थर की तरह एक जगह बैठ गए तो खुदाई ने जो इतनी चीजें हमारे लिए पैदा की हैं, उनका स्वाद कहां से मिलेगा?”

1933 में जन्मे शोभाराम शर्मा अब नवासी वर्ष के हैं। इस वय में भी वे अपनी युवावस्था के अनुभवों और अध्ययनों का जिस तरह खूबसूरत उपयोग इस उपन्यास में कर पाए हैं, वह श्लाघनीय है। उन्हें सादर प्रणाम। यह उपन्यास 'New World Publication' (8750688053) से प्रकाशित हुआ है।          

-नवीन जोशी, 14 अप्रैल, 2022                       

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