उमेश डोभाल का नाम सुनकर पुष्कर वर्तमान में लौटा। सम्मेलन में देश भर से आए विभिन्न संगठनों के नेताओं के भाषण सुनते-न सुनते हुए वह दो साल पीछे पहुंच गया था। मंच से प्रस्ताव पेश करके कहा जा रहा था कि वाहिनी उमेश डोभाल का शीघ्र पता लगाने और शराब माफिया की गिरफ्तारी के लिए चल रहे आंदोलन का पूर्ण समर्थन करती है और कार्यकर्ताओं का आह्वान करती है कि वे शराब माफिया तथा उसे संरक्षण देने वाले नेताओं के खिलाफ इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लें।
शाम को सांस्कृतिक संध्या थी। गिर्दा ‘जागर’
की सांस्कृतिक टीम लेकर आए थे लेकिन पुष्कर सलीम के अब्बू-अम्मी से
मिलने चला गया। लाला बाजार से गुजरते हुए उसने ‘मास्टर
मुस्तफा टेलरिंग शॉप’ की तरफ नज़र डाली। कलीम चच्चा गर्दन
सीधी करने के लिए सामने ही देख रहे थे। उसने हाथ जोड़े- ‘चच्चा,
कैसे हैं आप?’
‘अहा! पुष्कर बेटा, कैसे हो? सम्मेलन में आए होगे।’ कलीम चाचा खुश हो गए।
‘जी, चच्चा। घर ही जा रहा था।’
‘अच्छी बात बेटे, ज़रूर जाओ। मुझे आज देर
होगी। रोटी खाने के लिए रुकना तो बात होगी।’
सलीम के बड़े भाई असगर पीछे सिलाई मशीन पर झुके हुए थे। पुष्कर
‘जी’ कहकर आगे बढ़ गया। सलीम की अम्मी ने दोनों हाथ
पकड़कर उसका स्वागत किया- ‘बहू को नहीं लाए?’
‘चच्ची, उसे कुछ काम था।’
‘ओए, पुष्कर! मेरा उसे देखने का इत्ता मन
था।’ उन्होंने उसे तखत पर बैठाया और खुद पास में बैठ कर सलीम
का रोना ले बैठी- ‘एक हमारा है, ब्याह
को राजी नहीं होता।’ सलीम की शादी की उन्हें बड़ी तमन्ना थी
लेकिन वह भागा-भागा फिरता था। एक अरसे से उसने तराई के किसान आंदोलनों में अपने को
झोंक रखा था। अब अल्मोड़ा भी बहुत कम आता था। बड़े भाई असगर के बच्चे बड़े-बड़े हो गए
थे। उन्होंने अपने लिए बगल में दो कमरे अलग से किराए पर ले लिए थे। बहनों की शादी
हो गई थी।
‘ए पुष्कर,’ अचानक उन्होंने पूछा- ‘वो कौन पतरकार है, जिसे कह रहे कि मार दिया? तू जानता था उसे?’
‘हां चच्ची, बहुत अच्छा दोस्त था।’
‘च्च-च्च,’ वे कुछ देर सोचती रहीं। फिर
बोलीं- ‘मुझे तो सलीम का भी डर लगे है, बेटे। शादी कर लेता तो पैर बंध जाते… तू बहू से कह न कि उसे समझा।’
चच्ची हर मुलाकत में यह बात कहती थीं। पता नहीं उन्हें क्यों लगता
था कि कविता के कहने से सलीम शादी के लिए तैयार हो जाएगा।
‘अबकी मिलने जाएंगे तो समझाएंगे,’ पुष्कर
ने उनका दिल रखने के लिए कह दिया।
‘हां बेटे। जरूर जाना। नैनीताल से तो नजीक हुआ।’ वे चाय बनाने में जुट गईं- ‘खाना खाके जाएगा। तेरी
पसंद का कोरमा बना दूंगी।’ पुष्कर की उन्होंने एक न सुनी।
चाय और खुरमे उसके सामने रखकर वे खाना बनाने की तैयारियों में लग गईं। उन्हें
देखकर पुष्कर को लखनऊ में कैनाल कॉलोनी की ताई जी याद आ जातीं। वे भी इतनी ही सरल
और ममतामयी थीं। वह सोचने लगा हर मां के भीतर ममता का अनंत सागर होता है। उसे इजा
की याद आने लगी। गांव में अकेले रहते हुए वह उसके लिए कितना कलपती थी।
‘सुन रहा तू?’ चच्ची ने जोर से कहा तो
पुष्कर चौंका- ‘जी, चच्ची?’
'ये तराई का झगड़ा कब तक चलेगा?' वे पूछ
रही थीं। लगता है, पुष्कर के आने के बाद उनके दिमाग में सलीम
ही छाया था- 'कित्ते बरस तो हो गए लड़ते हुए।'
पुष्कर क्या जवाब दे कि तराई के भूमिहीनों-विस्थापितों का
संघर्ष कब तक चलेगा! एक भोली मां अपने बेटे के लिए चिंतित है और बेटा अपना जीवन
अन्याय के खिलाफ लड़ने में झोंक चुका है। ऐसी लड़ाई जिसका कोई अंत दिखता नहीं, बल्कि
लड़ाई और कठिन होती जा रही है। सरकार के फैसले जनता के हक में होने की बजाय बड़े
भू-स्वामियों, अवैध कब्जा करने वाले दबंगों के पक्ष में हो
जाते हैं। हजारों की संख्या में विस्थापितों, भूमिहीनों के
लिए जो जमीन अस्तित्व का प्रश्न है उसे सरकार का कानून अवैध कब्जा ठहरा देता है।
वे बार-बार उजाड़े जाते हैं। एक उम्मीद के सहारे ही वे लड़ रहे है। सलीम जैसे
समर्पित युवा इस उम्मीद का सहारा हैं।
'होगा चच्ची, कोई रास्ता निकलेगा जरूर,'
वह उन्हें असलियत बताकर और परेशान नहीं करना चाहता था।
कलीम चाचा दुकान बंद करके आ गए थे। वे सलीम का ज़्यादा जिक्र
नहीं करते थे। चच्ची ने दूसरी बातें शुरू कर दीं। खाना तैयार हो गया तो गरम-गरम
रोटियां सेंक कर उन्होंने दोनों को खिलाया। उनके हाथ के कोरमे में गजब का स्वाद
होता है। चच्चा हुक्का भर कर बैठ गए। पुष्कर गुड़ की एक बड़ी-सी डली लेकर खाता हुआ
चला आया।
'हमीदा से मिल आना। बिचारी बड़ी बीमार है रे,' चलते समय चच्ची ने कहा। उनके कहे बिना भी वह मिलने जाता अवश्य।
सम्मेलन के आखिरी दिन जुलूस और आम सभा में शामिल होने के
बाद पुष्कर हमीदा चाची से मिलने चला गया। 'नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन
में हमीदा चाची हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहती थीं। हिम्मती इतनी कि एक बार जब
ज़्यादातर आंदोलनकारी पुरुष जेल में थे, उन्होंने कुछ महिलाओं
के साथ जिलाधिकारी का घेराव किया, ठेकेदारों की कुर्सी–मेज
उलट दी और शराब दुकानों की नीलामी नहीं होने दी थी। उनके कारण ही कई मुस्लिम
युवतियां आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। कुछ तो हमीदा चाची के साथ गिरफ्तार भी
हुई। अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता के कारण वे अल्मोड़ा में खूब पहचानी जाती
थीं। पुष्कर को वे बाहर के कमरे में कम्बल ओढ़े लेटी मिलीं। कमरे की फीकी रोशनी में
पहले उन्होंने पहचाना नहीं। जब पहचाना तो पीला कमजोर चेहरा तनिक ताज़ा हो गया।
उन्होंने क्षीण आवाज में कहा- 'ओए, मायके
के लड़के!'
हमीदा चाची फैज़ाबाद की थीं। मतलब, मायका
था वहां उनका। पुष्कर से लखनऊ का रिश्ता जोड़ती थीं। करीब पचास साल अल्मोड़ा में गुजार देने और जुबान
पर ठेठ कुमाऊंनी चढ़ जाने के बावजूद वे घर में और आत्मीय जनों से अवधी ही बोलतीं।
'कबहिन आयो?' वही क्षीण आवाज।
'आज तीसरा दिन है, चच्ची।' उनकी बहू एक मोढ़ा ले आई। पुष्कर ने उसे तखत के पास रखकर चाची का हाथ थाम
लिया।
'तौन अब फुर्सत पायो?' उन्होंने उसका हाथ
हौले से दबाकर शिकायत दर्ज़ की।
'तबीयत कैसी है?’
जवाब बहू ने दिया- ‘डॉक्टर ने दवा दी है लेकिन हल्द्वानी ले
जाने को कहा है। दिल के डॉक्टर को दिखाने। ज्योति दीदी भी देख गईं।’
‘हम न जाब हलद्वानी-फलद्वानी। हमार दिल ठीक बा। चा बना लड़के
खातिर,’ उन्होंने बहू को निर्देश दिया। बहू बड़ा बल्ब जलाकर
भीतर चली गई।
‘रहने दीजिए,’ पुष्कर ने मना किया।
‘काहे रहने देव। तू बना। हमहू पियब,’ उन्होंने
करवट बदली और दीवार के सहारे तखत पर बैठ गईं। तेज रोशनी में चाची का चेहरा बहुत
बीमार और निचुड़ा लगने लगा। बैठने की कोशिश भर में वे हाँफ गई थीं। पुष्कर सोचने
लगा, इतना बड़ा और पुराना नगर है अल्मोड़ा लेकिन दिल का एक
डॉक्टर नहीं। हल्द्वानी और देहरादून छोड़कर पूरे उत्तराखण्ड में कार्डियोलॉजिस्ट
नहीं मिलेगा। सरकारी अस्पतालों के दो-चार डॉक्टरों और चंद प्राइवेट प्रैक्टिशनरों
के अलावा किसी तरह का विशेषज्ञ चिकित्सक नहीं। हल्द्वानी-देहरादून में भी कैसे
विशेषज्ञ हैं, पता नहीं। उत्तराखण्ड की उपेक्षा का यह हाल
आजादी के बाद से ही चला आ रहा है। पृथक राज्य की मांग आखिर क्यों न उठे? संघर्ष वाहिनी को स्वायत्त उत्तराखण्ड की बजाय पूर्ण राज्य की मांग करनी
चाहिए थी। इसमें भी वह पिछड़ गई।
चाय पीकर चाची कुछ चैतन्य हुईं। उन्होंने तखत के नीचे से
पानदान उठाया। एक गिलौरी मुंह में दबाकर डिब्बे से काली तम्बाकू की दो चुटकी मुंह
में डालीं और चुभलाने लगीं।
‘ए पुष्कर,’ मुंह तनिक उठाकर वे बोलीं- ‘सरकार से न जीत सके पब्लिक। कित्ता अंदोलन किए तू सब...।’
‘आपने कम आंदोलन किया चाची? मार खाई,
गिरफ्तार हुईं।’
‘का मिला? सब बेकार... पहले से ज़्यादा
हालत खराब भई कि ना! शाम ढले बाद द्याखो अल्मोड़ा। पूरा पहाड़ बरबाद है रे!’ हमीदा चाची की तरह पहाड़ की लाखों महिलाओं ने ‘नशा
नहीं रोजगार दो’ आंदोलन से बड़ी उम्मीद लगा रखी थी कि नशे के
जंजाल से मुक्ति मिलेगी। लड़कों को रोजगार मिलेगा। नशे का साम्राज्य अब और फैल गया
था और रोजगार यहां थे नहीं। पुष्कर की समझ में नहीं आया कि क्या कहे। बोलने के लिए
कह गया- ‘अब अलग राज्य की मांग हो रही।’
चाची ने उपेक्षा से खड़ी हथेली हवा में मारी और उगालदान
उठाकर मुंह खाली किया- ‘जिनके कछु काम-धाम न हो वो नारा लगाते
फिरें। मुला होना-हवाना कछु नाहीं।’ वे थककर लेट गईं। पुष्कर
ने विदा मांगी।
‘जा, घर-गिरस्थी सम्भाल आपन।
अंदोलन-फंदोलन में ज़िनगी न गंवा। बहू का ख्याल करियो,’
उन्होंने नसीहत दी। लौटते हुए उसके दिमाग में बहुत हिम्मती और जुझारू हमीदा चाची
छाई रहीं। उनके तेवर महिलाओं ही नहीं पुरुषों को भी ताकत देते थे। पति और दो जवान
बेटों की मौत के दु:ख के बावजूद उन्होंने खूब पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाईं और
समाज के लिए लड़ाई लड़ी। अब उन्होंने शरीर और मन दोनों से हिम्मत हार दी थी।
उम्मीद टिके भी तो किस आसरे?
(‘हिंद युग्म’ से शीघ्र
प्रकाश्य उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ का
एक अंश जैसा नवजीवन साप्ताहिक, 03 अप्रैल, 2022 के अंक में प्रकाशित हुआ)
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