Friday, April 08, 2022

नए मंत्रियों का जोश और तंत्र की बीमारी

नए मंत्री, भले ही वे पुराने हों, आजकल जोश में हैं। नई-नई सरकार बनी है या कह लीजिए पुरानी सरकार की नई पारी शुरू हुई है। कुछ मंत्री सचमुच नए हैं और कुछ पुराने होकर भी नई भूमिका में हैं। हर शुरुआत जोश में होती है। सो, आजकल मंत्रीगण कहीं छापे डाल रहे हैं, कहीं अचानक निरीक्षण कर रहे हैं, कहीं किसी अन्यायकी खबर पाकर अधिकारियों से जवाब तलब कर रहे हैं, किसी बच्चे का स्कूल में प्रवेश न हो पाने की खबर पाकर उसे न्यायदिला रहे हैं। कह रहे हैं कि जनता ने हम पर विश्वास जताया है, हमें उस विश्वास की रक्षा करनी है।

बहुत अच्छी बात है। सरकार को जनता का, उससे किए गए वादों का और उसकी अपेक्षाओं का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। आजकल सोशल मीडिया का बोलबाला है। बलिया से एक वीडिया आया और बहु-प्रसारित हो गया। सकुल प्रजापति अपनी बीमार पत्नी को हथठेले में खींचते हुए चार किमी दूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तक ले गया। बीमार पत्नी बाद में बची नहीं। उसकी लाश ले जाने के लिए भी उसे वाहन नहीं मिल पाया। यह वीडियो देखकर स्वास्थ्य मंत्री ने फौरन स्वास्थ्य महानिदेशक को मामले की जांच के आदेश दे दिए। इसके कुछ दिन बाद मंत्री जी सामान्य नागरिक के रूप में मेडिकल कॉलेज गए। उन्होंने देखा कि आम मरीज को किन-किन मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।

कुछ और मंत्री भी इन दिनों अचानक निरीक्षण पर निकल रहे हैं। अधिकारियों के पेच कस रहे हैं। जनता की फरियाद सुन रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके इन प्रयासों का असर होगा। मंत्रियों और सरकार की अच्छी छवि बनने के साथ-साथ जनता की समस्याएं कुछ सीमा तक दूर होंगी।

काश कि समस्याओं का समाधान इतना आसान होता! प्रत्येक नई सरकार में मंत्रियों की यह जनमुखी तेजी हमें दिखाई देती है। सुबह अचानक किसी कार्यालय पहुंचकर गेट बंद करवा देना ताकि कर्मचारी समय के पाबंद बनें, सामान्य आदमी का वेश धरकर एफआईआर लिखवाने थाने पहुंच जाना, आम यात्री बनकर बस में बैठ जाना, रात में सड़कों पर अकेले निकल पड़ना, आदि-आदि। उस समय तो कुछ कार्रवाई हो जाती है लेकिन क्या इससे काम-काज में आई तात्कालिक चुस्ती स्थाई बन पाती है? मंत्री रोज-रोज अचानक निरीक्षण नहीं कर सकते। इसलिए यह तंत्र चंद रोज में ही वापस अपने ढर्रे पर आ जाता है।

उदाहरण के लिए, किसी आदमी का अपनी बीमार पत्नी को हथठेला खींचते हुए अस्पताल ले जाना हमारे यहां बहुत आम दृश्य है। गोद में बीमार को लादे मीलों दूर ले जाते या लाश को कभी साइकल पर और कभी रस्से से खींचते हुए ले जाते दृश्य झकझोरते हैं लेकिन वास्तविकता हैं। किसी एक घटना की जांच से क्या निकलेगा और क्या समाधान होगा? सकुल प्रजापति ने अपने भोलेपन में कहा कि मैं यही समझता था कि एम्बुलेंस किसी इमरजेंसी में ही मिलती है। इसीलिए किसी से कहा नहीं। स्वास्थ्य महानिदेशक की जांच में किसी को जवाबदेह तो ठहराया जा सकता है लेकिन इसका क्या उपाय  सुझाएंगे कि सकुल जैसे इनसानों को एम्बुलेंस मंगाना अपना भी अधिकार लगे?

यह बढ़िया उदाहरण है इस तथ्य का एक बड़ी आबादी आज भी मानती है कि एम्बुलेंस उसके लिए है ही नहीं। इमरजेंसीउन जैसे लोगों के लिए होती नहीं! तो, इस व्यवस्था में गड़बड़ी कहां और कितनी पुरानी है? क्या पूरा तंत्र ही बीमार नहीं है? वह कैसे दुरस्त होगा? स्कूल, अस्पताल, तहसील-ब्लॉक, कोर्ट-कचहरी, बड़े सरकारी दफ्तर अचानक निरीक्षण या औपचारिक जांच से कैसे सुधर सकते हैं? उसके लिए जो उपाय चाहिए उनकी पहचान भी कहीं हो रही है?      

(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 अप्रैल, 2022)               

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