विज्ञानी मानते हैं कि यद्यपि इस धरती पर मानव दो लाख साल से रह रहा है लेकिन खेती से जीवन यापन में स्थायित्व और बसासत की स्थिरता को आए हुए मात्र 12000 साल हुए हैं। इन 12000 वर्षों में पृथ्वी के पर्यावरण में बहुत अच्छी स्थिरता रही। इस दौरान वातावरण के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि नहीं हुई। पिछले 200 वर्ष ऐसे रहे हैं जिसमें औद्योगिक क्रांति हुई जिसके परिणामस्वरूप दुनिया भर में लोगों की आय बढ़ी, बिजली और पानी की खपत खूब बढ़ी, कागज का उत्पादन, यातायात, दूरसंचार, पर्यटन, आदि में बेतहाशा वृद्धि हुई, उर्वरकों का उपयोग बढ़ता गया।और भी कई गतिविधियां बढती गईं। जनसंख्या में भी तेजी से बढ़त हुई। विकास ये सामाजिक-आर्थिक पैमाने सुपरिचित हैं और इन्हीं से आधुनिकता और विकास की पैमाइश होती है।
बीती दस जनवरी को कोलकाता से प्रकाशित 'द टेलीग्राफ' के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित अनूप सिन्हा का लेख 'अंतिम समय' (The Final Hour) पढ़ रहा था जो पृथ्वी पर मानव सभ्यता जनित पर्यावरण असंतुलन के बारे में हैं और गम्भीर चिंता के साथ चेतावनी भी देता है। लेखक का स्प्ष्ट कहना है कि धरती की मौत की घंटी बज रही है लेकिन हमारे राजनेताओं ने कान में अंगुली ठूंस रखी है।
उनके अनुसार, यह साबित हो चुका है कि तथाकथित मानव विकास के पिछले दो सौ वर्षों में 'ग्रीनहाउस गैसों' का उत्सर्जन, समुद्रों का अम्लीकरण, वनों का विनाश, रिहायशी क्षेत्र की वृद्धि, जैव विविधता का विनाश, धातुओं-खनिजों का खनन और पृथ्वी का तापमान तेजी से बढ़े। इस अवधि को 'द ग्रेट एक्सलरेशन' के नाम से जाना जाता है यानी इस अवधि में जीवन-स्तर और सुख-सुविधाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई और प्राकृतिक संसाधनों पर अतुलनीय हमला हुआ। मानव आबादी का अस्तित्व बहुत बड़ी सीमा तक मशीनों और विद्युत उर्जा पर निर्भर हो गया जो सीधे-सीधे प्राकृतिक (फॉसिल) ईंधन से ली जा रही है। इन दो सौ वर्षों में मानव आबादी, जो एक अरब से कुछ ही कम थी, सात अरब से ऊपर पहुंच गई और अब भी लगातार बढ़ती जा रही है। यह विशाल आबादी अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए पृथ्वी के हर कोने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही है। ये आवश्यकताएं जितनी अधिक होती हैं, उतने ही विकसित और शक्तिशाली हम माने जाते हैं।
प्राकृतिक संसाधनों का बढ़ता दोहन और वस्तुओं एवं सेवाओं की हमारी बढ़ती खपत के कारण बेशुमार कचड़ा पैदा हो रहा है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन केवल एक है। हमने धरती पर मिट्टी, नदियों व समुद्रों का पानी और वातावरण में हवा को भी नहीं बख्शा है। मनुष्य ऐसी भूभौतिक शक्ति बन गया है जिसके पास पृथ्वी के पर्यावरण को बदल डालने और उसके भविष्य की दिशा निर्धारित कर सकने की ताकत आ गई है। यही असल में मानव विकास की कहानी है जिसमें इस सृष्टि की मात्र एक प्राणि-जाति (यानी मनुष्य) निरंतर शक्तिशाली होती आई है जो पूरी प्रकृति को अपने हित में नियंत्रित करने का दुस्साहस कर रही है। इस प्रवृत्ति के कारण प्रकृति को बचाए-बनाए रखना बहुत कठिन हो गया है क्योंकि हमारे पास केवल एक ही ग्रह है जिस पर जीवन निर्भर है। हम पहले ही इसका जरूरत से ज़्यादा दोहन कर चुके हैं।
इसके बाद लेखक हमें ‘स्टॉकहोम रेजिलेंस सेंटर' के विज्ञानियों के उस दल के बारे में बताता है जिन्होंने 'प्लेनेटरी बाउंड्रीज फ्रेमवर्क' नाम से एक अध्ययन विधि तैयार की है जो पृथ्वी के उन नौ अत्यावश्यक क्षेत्रों/देनों के बारे में बताती है जिनका एक सुरक्षित सीमा से अधिक दोहन आपात मौसमी परिवर्तन ला सकता है, जिससे बड़े पैमाने पर जान-माल और संसाधनों का भारी नुकसान हो सकता है। ये नौ क्षेत्र हैं- मौसम परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण, फॉसफोरस और नाइट्रोजन चक्र, रासायनिक प्रदूषण, समुद्र का अम्लीकरण, ओजोन पर्त का क्षरण, भूमि उपयोग चक्र, पेयजल का दोहन और वातावरण में वायु-छत्र। लेखक चेतावनी देता है कि इनमें से लगभग सभी क्षेत्रों का हम हद से अधिक दोहन कर चुके हैं। अब विनाश की घंटी हमारे सिर के ऊपर बज रही है और सुनने वाला कोई नहीं है।
(पूरा लेख इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है-
https://www.telegraphindia.com/opinion/the-final-hour-politicians-are-deaf-to-earths-death-knell/cid/1992731
-न जो, 16 जनवरी 2024
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