वे सब महिलाएं हैं जिन्होंने जन्म लेने के साथ ही पानी के लिए जीवन खपा देने वाली अपनी मांओं, चाचियों, बुआओं आदि को देखा, बाली उम्र से स्वयं भी दूर-दूर भटककर पानी लाने के संग्राम में शामिल हुईं, पानी के लिए गालियां और मार खाई। फिर एक दिन ‘परमार्थ’ नाम की संस्था की पहल पर इन्होंने संकल्प ठाना कि अपनी परती धरती पर पानी का इंतज़ाम किए बिना चारा नहीं है। संस्था ने इन्हें ‘जल सहेलियां’ नाम दिया लेकिन वास्तव में काम इन्होंने कर दिखाया ‘जल-योद्धा’ का। ये न माधौ सिंह भण्डारी हैं न दशरथ मांझी इसलिए सीधी-सादी, ठेठ ग्रामीण और परिवार के लिए समर्पित इन महिलाओं की कहानी फिल्म या नृत्य-नाटिकाओं की सुर्खियां नहीं बनी लेकिन उनके अथक प्रयत्नों का परिणाम यह है कि आज बुंदेलखण्ड के कई गांवों में सिंचाई से खेती हो रही है, सब्जियां उगाई-बेची जा रही हैं, और पानी की उपलब्धता ने जीवन में कुछ हरियाली ला दी है, जिसकी कुछ वर्ष पहले तक कल्पना करना भी कठिन था।
लगभग अविश्वसनीय लगने वाली इन प्रेरक व रोमांचक कथाओं पर रोचक शैली में लिखी गई शिखा एस (हम उन्हें पत्रकार शिखा श्रीवास्तव के नाम से जानते रहे हैं) की पुस्तक ‘जल सहेलियां’ का जब बीते रविवार को लखनऊ में कोई दो दर्जन जल सहेलियों की उपस्थिति में लोकार्पण हुआ तो सभागार में उपस्थित व्यक्तियों ने न केवल उनकी संकल्प-कथा सुनकर रोमांच अनुभव किया बल्कि एक सम्पूर्ण, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर एवं साहसी व्यक्ति के रूप में इन ग्रामीण स्त्रियों के रूपांतरण का प्रत्यक्ष अनुभव भी किया। इन महिलाओं ने, जो पहले मीलों दूर जाकर पानी ढोया करती थीं, अपने गांवों तक नहर या बांध या कुओं य अन्य उपायों से पानी सुलभ कराने से पहले उससे भी बड़ी लड़ाई लड़ी जो अक्सर देखी-दिखाई नहीं जाती। वह लड़ाई है बुंदेलखंड जैसे घोर पितृसत्तात्मक समाज से लड़ते हुए अपने संकल्प को पूरा करने के वास्ते एक राह बनाना। पानी लाने के प्रयासों की पहल तो बाद में शुरू हुई, घूंघट में रहने वाली इन महिलाओं के लिए पहले शुरू हुआ अपने पति और गांव के पुरुषों की घोर निषेधात्मक चट्टान से टकराना। उसके बिना उनके लिए पानी ढोने और चूल्हा-चौका करने के अलावा कुछ भी करना बेहद कठिन था।
इसलिए इन जल सहेलियों की ये सफलता-कथाएं सबसे पहले स्त्री-स्वतंत्रता, समान अधिकार और निर्णय में भागीदार बनने की ओजपूर्ण कथाएं हैं। यह सही अर्थों में नारी स्वतंत्रता और समानता हासिल करना है जो शहरों के सेमिनारों और मंचीय घोषणाओं से नहीं पाया जा सकता। इन जल सहेलियों ने समानता और स्वतंत्रता लड़कर, छीनकर हासिल की है। पुस्तक लोकार्पण समारोह में विभिन्न वय की इन महिलाओं को निस्संकोच अपनी बोली में ललकारते और अपनी कथा सुनाते देख-सुनकर इसे अनुभव किया जा सकता था। वे अपने घर-परिवार, गांव और ब्लॉक, क्षेत्र पंचायत में ही नहीं कभी-कभार सभा करने आने वाले नेताओं के सामने भी डटकर वह सच कहना सीख गई हैं जो राजनैतिक भाषणों के झूठे परदे में अक्सर ढका रह जाता है।
जल के रंग वाली आसमानी साड़ियां पहनने वाली ‘जल सहेलियों’ की सफलता के पीछे ‘परमार्थ’ संस्था के संजय सिंह की प्रेरणा है, जिन्होंने बुंदेलखंड के गांवों में पानी बचाने और जुटाने का सपना देखने के बाद इन महिलाओं को आगे आने के लिए प्रेरित किया। ललितपुर के तालबेहट गांव की सिरकुंवर वह महिला है, जिसने सबसे पहले पानी की लड़ाई लड़ने की हामी भरी और घर के पुरुषों के गुस्से की परवाह न कर मोर्चा बांधा। आज वे अपने इलाके में ‘नेताजी’ के नाम से सम्मानित हैं।
शिखा ने यह किताब लिखकर सराहनीय काम किया है। जल सहेलियों की ये सच्ची कथाएं खूब पढ़ी-पढ़ाई जानी चाहिए ताकि इस विशाल देश के ग्रामीण समाज की जमीनी हकीकत बदलने की यह लड़ाई फैले और समाज जाने कि सीधी-भोली-शर्मीली कही जाने वाली स्त्रियां जब कुछ ठान लेती हैं तो कैसे बदलाव आता है। पुस्तक को ‘ग्रे पैरट पब्लिशर्स’ (हमारे इनोवेटिव अविनाश चंद्र का उद्यम) ने बड़ी सादगी लेकिन सुरुचि से प्रकाशित किया है।
‘जल सहेलियां’ नाम से किताब अमेजन पर उपल्बध है। इसकी विक्री और रॉयल्टी का धन जल सहेलियों के आंदोलन के विस्तार हेतु ही खर्च किया जाएगा, ऐसी घोषणा भी किताब की विक्री को बढ़ाने में सहायक होनी चाहिए।
- नवीन जोशी, 09 जनवरी, 2024
No comments:
Post a Comment