Thursday, January 04, 2024

पहाड़ की बरबादी की खोज-खबर- देवभूमि डेवलपर्स

 (कथाकार और शोधधर्मी लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा जी ने मेरा उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' पढ़कर निम्नांकित  टिप्पणी लिखी है)


नशा नहीं, रोजगार दो, काम का अधिकार दो, यह नारा हमने 1984 के आसपास सुना था। तब गढ़वाल और कुमाऊं मण्डल, उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्से थे। गर्मियों में नेताओं की सैरगाह थे। नैनीताल ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। इस सैरगाह को ऐशगाह में बदलने वाली सत्ता ने नशाखोरी को बढ़ाया। पहाड़ों के प्राकृतिक विकास पर कभी गंभीरता से सोचा नहीं । उद्योगपतियों की निगाहें चूना पत्थर के खनन तक सीमित थीं। पर्वतों की रानी मसूरी उजाड़ हो रही थी और चूना पत्थर खदानों के धुंए से देहरादून की आबोहवा बर्बाद हो रही थी। लीची के बाग उजड़ने शुरू हुए थे। प्राकृतिक संसाधनों की लूट, झूठ और गांवों को नशाखोरी में लिप्त कर, पांच बजे ही सुला देने वाले निजाम के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन जंगलों को बचाने का चला, चिपको आंदोलन। बाद में नशाखोरी से बर्बाद होते गांवों को बचाने का एक मजबूत आंदोलन चला, नशा नहीं, रोजगार दो। इस आंदोलन की बागडोर महिलाओं के हाथों में थी। शराब के ठेकों की नीलामी रोकने के लिए महिलाओं ने लाठियां खाईं। शासन, प्रशासन के दोगले चरित्र से टकराईं और पहाड़ों का चक्का जाम कराया। इसी पृष्ठभूमि से उत्तराखण्ड का आंदोलन शुरू हुआ जो 2000 तक जाते, जाते अलग प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आया। मगर अलग अस्तित्व मात्र से पहाड़ का दर्द खत्म नहीं हुआ। पहाड़ की चोटियों ने खुद को प्राकृतिक रूप से भी लुटा- पिटा पाया तो, रोजगार की तलाश में जारी विस्थापन ने इन्हें भुतहा भी बनाया। गांव के गांव उजड़ गए। विकास का माडल कार्पोरेट हितैषी था तो बड़े- बड़े बांध बनाने के खेल में प्राकृतिक नुकसान तो हुआ ही, विस्थापन की नई त्रासदी सामने आई। टिहरी बांध से डूबी पुरानी टिहरी का दर्द, आंदोलन, विस्थापन, पहाड़ों को छलनी कर गया। नए निजाम का चेहरा, पहले से कम विकृत न था। उत्तराखंड का दर्द कम न हुआ। मुझे इस दर्द को करीब से देखने का अवसर मिला है। लगभग 12 सालों तक देहरादून में रहा हूं। कुमाऊँ और गढ़वाल के सभी स्थलों को देखा हूं। पुरानी टिहरी को और नई टिहरी, दोनों को देखा है। प्राकृतिक आपदाओं को भी विकास के नए माडल ने बढ़ाया है । इधर बादल फटने से जो पहाड़ों पर तबाही आई उसकी कहानी अलग है। देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड के प्रति सभी सरकारों का नजरिया मात्र व्यवसायिक रहा है। 
वरिष्ठ कथाकार और उपन्यासकार, नवीन जोशी ने अपने उपन्यास" देवभूमि डेवलपर्स" में पहाड़ के इन्हीं मुद्दों को, जनसरोकार के नजरिए से उठाया है। इस उपन्यास में सिर्फ कथारस चाहने की ललक के बजाय, विगत चार दशकों की राजनीति, पहाड़ों की बरबादी, विस्थापन, विकास के दोगले तरीकों को जानने में नवीन जोशी का यह उपन्यास हमारी मदद करता है। यह विस्थापन कई तरह का है। एक उनका भी है, जो हैं तो वहीं, मगर पहाड़ पर उनका हक नहीं बचा है। बूढ़ी भागा देवी को तभी तो कहना पड़ता है कि, "इन खबीसों ने हमारी जमीन घेर ली है। बिजली का करंट दौड़ा रखा है बल तार में। नहीं तो मैं दातुला लेकर चली जाती भीतर। हम घास कहां से काटेंगी? जानवर कहां चरायेंगी?" बैजंती काकी जा चुकी हैं। उत्तराखंड की राजधानी का प्रश्न अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। अब गैरसैंण राजधानी बनने से रही मगर गांव की जमीनों पर कब्जा कर डेवलपर्स अपना धंधा जारी रखे हुए हैं। 
इस उपन्यास में एक साथ कई जनांदोलनों और विडंबनाओं की श्रृंखला से गुजरते हुए, हम शोषकों के वर्गचरित्र से रूबरू होते हैं और कल के भारत को बर्बाद करने वालों की भी पहचान कर सकते हैं। (प्रकाशक- हिंदयुग्म, नोएडा)

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