Friday, January 29, 2021

किसान आंदोलन को तोड़ने की साजिश तो नहीं हुई थी?

गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली के लिए स्वीकृत पथ का उल्लंघन करके आंदोलनकारी किसानों या उनके बीच पैठे अराजक तत्वों ने दिल्ली में आईटीओ और लाल किले पर जो बवाल किया सबसे पहले उसकी कड़ी निंदा की जानी चाहिए। पिछले दो महीने से दिल्ली की सीमाओं पर शांति पूर्ण आंदोलन चला रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से इस हिंसा को अराजक तत्वों की करतूत बताते हुए इससे पल्ला झड़ा है। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण आंदोलन और प्रतिरोध की जगह है लेकिन हिंसा और अराजकता की नहीं। उससे आंदोलन कमजोर होता है और भटकता है। छब्बीस जनवरी को नई दिल्ली में जो हुआ उससे नए कृषि कानूनों के विरुद्ध किसानों का संघर्ष, जो अब तक निरंतर मजबूत और व्यापक जन-समर्थन वाला होता जा रहा था, निश्चय ही कमजोर हुआ है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कई पहलू हैं। उनसे कई सवाल भी उठते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा हिंसा की सिर्फ निंदा करके नहीं बच सकता। उसकी बड़ी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है। ऐसा क्यों हुआ कि पिछले दो महीने से बहुत अनुशासित चले रहे आंदोलनकारी किसानों में से कई ट्रैक्टर रैली में अनुशासनहीन हो गए? खबर है कि पच्चीस जनवरी की रात टिकरी सीमा पर बने आंदोलन के मंच पर कुछ ऐसे उग्र तत्वों ने कब्जा कर लिया था जो नेतृत्वकारी मोर्चे का हिस्सा नहीं थे और किसानों को दिल्ली कूचके लिए उकसा रहे थे। अगर यह सच है तो सवाल संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं पर भी उठते हैं। उन्होंने इसे नियंत्रित करने और रैली को अनुशासित रखने के लिए क्या किया?

निर्धारित पथ का उल्लंघन कर लाल किले तक जाने और हिंसा फैलाने वाले आंदोलनकारीया अराजक तत्व बहुत बड़ी संख्या में नहीं थे। बड़ी ट्रैक्टर रैली निर्धारित पथ पर ही शांतिपूर्ण तरीके से निकली। बैरियर तोड़कर लाल किले की तरफ जाने की खबर फैलने के बाद रैली से कई किसान उस तरफ दौड़े। दो महीने से वार्ताओं का कोई नतीज़ा नहीं निकलते और केंद्र सरकार की टाल-मटोल की नीति देखकर भी कई किसानों का धैर्य टूटा होगा। कुछ ऐसे चेहरे सामने आ रहे हैं जो किसानों को उकसाने और पुलिस बल पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। ये कौन लोग थे?

सरकार को आशंका थी कि किसान रैली में स्वीकृत पथ का उल्लंघन करने की कोशिश हो सकती है। इस आशंका पर लगातार गृह मंत्रालय विचार कर रहा था। बैठकें हो रही थीं। फिर इतनी अराजकता कैसे हो गई? क्या इसके लिए गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस उत्तरदाई नहीं हैं? सारा दोष किसानों और उनके नेताओं का ही है? इसे सरकार और प्रशासन की विफलता क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? गौर किईजिए कि यह सामान्य दिन नहीं था। राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड हो रही थी। सारी सुरक्षा एजेंसियां और गुप्तचर इकाइयां पूर्ण सतर्क रही होंगी। इस अत्यंत संवेदशील समय पर दिल्ली की सड़कों पर अराजकता हो जाए तो ज़िम्मेदारी किसकी है?

तो, एक सवाल यह भी है कि क्या अराजकता करवाई गई या होने दी गई? यह सवाल उठने के पर्याप्त कारण हैं और पूर्व के उदाहरण भी। किसान पिछले दो महीने से दिल्ली की सीमा पर डटे हुए थे। आंदोलन अत्यंत शांतिपूर्ण और अनुशासित था। दिल्ली की ओर ज़बर्दस्ती बढ़ने की कोई कोशिश नहीं हुई। पुलिस से टकराव कहीं नहीं दिखता था। टिकरी और सिंघु सीमा पर किसानों का आंदोलन प्रतिरोध के सांस्कृतिक मेले में बदल गया था। धीरे-धीरे बाकी देश में उसके प्रति सहानुभूति बढ़ने लगी थी। बहुत सारे संगठन उनके समर्थन में जुट रहे थे। सरकार और उसके समर्थकों की ओर से आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें जारी थीं। कहा जा रहा था कि उसमें खालिस्तानी आतंकवादी घुस आए हैं। उसे खाए-अघाए अमीर किसानों और आढ़तियों का आंदोलन करार दिया जा रहा था। इस सबके बावजूद आंदोलन शांतिपूर्ण बना रहा।    

आंदोलन का शांतिपूर्ण और अनुशासित बना रहा उसकी सबसे बड़ी ताकत थी तो उसका टूटना-बिखरना हिंसक हो जाने से ही सम्भव था। 26 जनवरी को वह हो गया। आंदोलन न केवल कमजोर हुआ बल्कि उसे मिल रहा जन-समर्थन भी एकाएक विरोध में बदल गया। गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर जो हुआ उसका सारा दोष किसानों के मत्थे आ गया। जनता उसके विरुद्ध हो गई। सरकार को क्लीन चिट मिल गई कि उसने तो पहले बातचीत की, कृषि कानूनों को स्थगित करने का प्रस्ताव दिया, फिर गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली की इजाजत भी दे दी। किसान ही ज़िद्दी और अतिवादी हैं। वे गणतंत्र दिवस के दिन हिंसा करने ही आए थे।      

क्या यह सोची-समझी रणनीति नहीं हो सकती? साल भर पहले भी ऐसा हुआ था। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ देश में जगह-जगह बेमियादी धरना-प्रदर्शन चल रहे थे। दिल्ली का शाहीनबाग इन विरोध-प्रदर्शनों का सबसे बड़ा अड्डा बन गया था, जहां इस देश के संविधान में आस्था रखने वाले विविध संगठन, समूह और स्वतंत्र चेता नागरिक भी बड़ी संख्या में शामिल हो रहे थे। कड़ाके की सर्दी, बारिश और बीमारियों के बावजूद शाहीनबाग का मोर्चा डटा रहा था। प्रदर्शन बहुत व्यवस्थित, शांतिपूर्ण और नियोजित था। प्रदर्शनकारी संविधान की उद्देश्यिका का पाठ करते और राष्ट्रीय ध्वज लहराते थे। किसी तरह की अराजकता और बाहरी उपद्रवी तत्वों पर निगरानी करने के लिए कार्यकर्ताओं की टीम तैनात थी। सरकार और विरोधियों को शाहीनबागों’ (विभिन्न शहरों-कस्बों के प्रदर्शन को भी यही नाम मिल गया था) को बदनाम करने का बहाना नहीं मिल रहा था, हालांकि वे उसे पाकिस्तान-समर्थक, देशद्रोही और आतंकवादियों का जमावड़ा बताने में लगे थे।

तभी एक दिन तत्कालीन केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर की सभा में नारे लगे- देश के गद्दरों को, गोली मारों सालों...।इसी के ठीक बाद दो घटनाएं एक के बाद एक हुईं। पहला, सीएए के विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे जामिया मिलिया के छात्रों पर एक अवयस्क लड़के ने देसी कट्टे से गोलियां चला दीं। उस घटना की तस्वीरें आज भी गवाह हैं कि पुलिस वाले उसे गोली चलाते हुए खड़े-खड़े देख रहे थे। दूसरा, कपिल बैसला नाम के युवक ने शाहीनबाग में प्रदर्शकारियों बीच घुसकर जयश्री रामके नारे लगाए और गोली चलाई। दोनों घटनाओं को सरकार और प्रशासन की ओर से इस तरह पेश किया गया था कि जामिया मिलिया और शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी हिंसक, देशद्रोही और उग्रवादियों से मिले हुए हैं। इसकी पोल भी बहुत ज़ल्दी खुल गई थी, जब कपिल बिसारिया को भाजपा में शामिल कर लिया गया और बवाल मचने पर निकाल भी दिया गया था।

क्या ऐसे स्पष्ट संकेत नहीं थे कि जामिया मिलिया और शाहीनबाग के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने, जनता की नज़रों में उन्हें देशद्रोही साबित करने के लिए इन हमलों की साजिश रची गई थी? ऐसा ही जेएनयू में हुआ था जब बाहरी लोगों ने परिसर में घुसकर छात्रों-अध्यापकों के साथ मार-पीट और तोड़फोड़ की। पुलिस फाटक पर मूकदर्शक बनी रही थी। हमलावरों के वीडियो उपलब्ध होने के बावजूद आज तक किसी को पकड़ा नहीं गया।

जिस तरह शाहीनबाग संविधान से छेड़छाड़ के विरुद्ध राष्ट्रीय प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था, उसी तरह दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का बेमियादी जमावड़ा कृषि कानूनों और उन्हें पास कराने की सरकार की तानाशाहीके खिलाफ राष्ट्रीय मंच बन गया था। शाहीनबाग आंदोलन को कुछ अदालती निर्देशों और बाकी कोरोना के कारण वापस होना पड़ा था। किसान आंदोलन कोरोना के बावजूद जोर पकड़ता जा रहा था। गणतंत्र दिवस पर जो हुआ उसने उसे कमजोर और बदनाम कर दिया।

इसके पीछे किसका हाथ था और किसने क्या भूमिका निभाई, क्या इसकी निष्पक्ष जांच होगी? अराजकता फैलाने में जिन लोगों के नाम और फोटो सामने आ रहे हैं, क्या उनके विरुद्ध कार्रवाई होगी?        

(नवजीवन साप्ताहिक, 31 जनवरी, 2021) 

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