Friday, January 15, 2021

प्रकृति की पूजा के पर्व और यह हा-हाकार!

 

मकर संक्रांति हो गई। दिन पहले ही बड़े होने लगे थे। अब धीरे-धीरे सूरज की तिरछी किरणें धरती पर सीधा पड़ना शुरू होंगी। ताप बढ़ेगा और जीव-जंतुओं से लेकर वनस्पतियों तक में नए प्राण का संचार करेगा। वसंत के गर्भादान का भी यही समय है। कुछ ही समय में हमें सूखी शाखाओं पर नई कोपलें फूटती दिखाई देंगी। सूर्य की ऊर्जा ही इस सृष्टि की संचालक शक्ति है।

पूरी प्रकृति का जाग्रत होना इस पर्व के केंद्र में है। हमने भी उत्तरायणी (घुघुतिया) मनाई। कौवे के लिए पूरी, बड़े, साग, तरह-तरह के घुघुते (पकवान) पकाए और दूसरी सुबह-सुबह छत पर जाकर उसे पुकारा- काले कौवा, काले। यो घुघुते खा ले!उत्तराखण्ड के आबाद बचे गांवों में तड़के यह पुकार गूंजी होगी। कौवों के झुण्ड के झुण्ड का-का-काकरते हुए खूब दावत उड़ाने आए होंगे। उसकी अनुगूंजें अब तक मन में उठती रहती हैं। उनसे ऊर्जा मिलती है।

नीम की डाल पर बैठा कौवा छत की मुंडेर पर रखे पकवानों को गर्दन टेढ़ी कर देखता रहा। उससे थोड़ी दोस्ती है। पता नहीं किस दुर्घटना या हमले में एक पैर गंवा बैठा। उचक-उचक कर तिरछा दौड़ता है। एक पंख भी टेढ़ा है लेकिन उड़ लेता है। वैसे भी रोज अपनी रोटी की प्रतीक्षा करता है। आज तो दावत का दिन था। उसकी पुकार पर तत्काल तीन-चार और कौवे आ गए। फाख्ते का एक जोड़ा भी ललचाई नज़रों से देख रहा था लेकिन कौवे किसी को पास फटकनें दें तब तो! छत पर देर तक का-का-का होती रही। कौवों ने हमारी उत्तरायणी मना दी। सुबह आनंद से भर गई।

जीवन का यह ढंग, जिसमें हमारे पुरखों ने बड़ी आत्मीयता से पशु-पक्षियों-वनस्पतियों को बराबर साझीदार बना रखा था, क्रमश: लुप्त हो रहा है। प्रकृति के अत्यंत निकट रहे समाजों में, वनवासियों के बीच यह साझा अब भी बना हुआ है। शहरी आपाधापी में खो जाने के बावजूद परम्पराओं-स्मृतियों में वह साथ चला आया और अक्सर जोर मारता है। वहां प्रत्येक संक्रांति एक पर्व है। वह फसलों से, पशुओं से, पक्षियों से, जंगल से, नदियों से जुड़ा है। ये सब मानव के संगी-साथी और जीवन-आधार हैं। पर्वों के बहाने उन्हें जीवन में बराबर शामिल रखना है।

वास्तव में हो यह रहा है कि यह जीव-जगत हमारे जीवन से बाहर हो रहा है। पशु-पक्षियों से लेकर नदियों तक का कितना और कैसा स्थान रह गया है जीवन में? मकर संक्रांति पर हर नदी गंगा बन जाती है लेकिन देखिए तो इसी लखनऊ में बहुत सारे लोगों ने कैसी गोमती में डुबकी लगाई! श्रद्धा बची रही, नदियां नहीं। मानव कोरोना से जूझ रहा है और पक्षी एवियन फ्लूसे मर रहे हैं। उस दिन यह खबर सुनकर मन कैसा तो खराब हो गया था कि कानपुर चिड़िया घर के सारे पक्षियों को मार देने का आदेश हुआ है। उसकी नौबत नहीं आई लेकिन क्या भरोसा! कितनी बार तो हो ही चुका है। अब तो लगता है मनुष्य के हाथ से दुनिया निकली जा रही है।

कोरोना का आधा-अधूरा (उसके पूरे परीक्षण, प्रभाव और सुरक्षा पर अभी परीक्षण जारी हैं) टीका लगाकर उस बीमारी को जीतने के दावे किए जा रहे हैं जिसको अभी ठीक से पहचाना भी नहीं गया है। विज्ञानियों को अभी कई सवालों का जवाब देना है; लेकिन आज की दुनिया को बहुत ज़ल्दबाजी है।

एक तरफ प्रकृति से जुडे आत्मीय पर्व और दूसरी तरफ यह मारा-मारी। अपने होने की यात्रा के किस मुकाम पर आ पहुंचा है मनुष्य?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 जनवरी, 2021)    

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