Tuesday, January 05, 2021

वैक्सीन नहीं, स्वयं विपक्ष घिर गया

महामारियां, वैज्ञानिक अनुसंधान, चिकित्सा शोधादि, देश की सुरक्षा और सेनाएं अनर्गल और दलगत राजनैतिक बयानबाजी का मुद्दा नहीं बनते थे। ऐसे सम्वेदनशील विषयों पर सभी राजनितिक दल लगभग एक स्वर बोलते या फिर मौन रहा करते थे। इक्कीसवीं शताब्दी मर्यादाओं के ध्वस्त होने की भी सदी बन रही है। पिछले कुछ वर्षों में हमने सैन्य बलों और उनकी कार्रवाइयों तक को वोट की राजनीति के पंक में घसीटे जाते देखा। सत्तारूढ दल को घेरने और विपक्ष की छवि ध्वस्त करने के लिए वोट की यह राजनीति अब कोविड-19 महामारी से बचाव के लिए बने टीकों तक चली आई है।

दो दिन पहले जब भारत के औषधि नियामक (केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन या सीडीएससीओ) ने कोविशील्डऔर कोवैक्सिननाम के दो टीकों (वैक्सीन) के सीमित एवं आपातकालीन प्रयोग की अनुमति दी तो कतिपय ज़िम्मेदार नेताओं के मुखारविंद से सर्वथा मर्यादाविहीन बोल फूटे। सबसे गैर-ज़िम्मेदाराना बयान उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के युवा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दिया। उन्होंने इन टीकों को सीधे-सीधे भाजपाई टीकाबताते हुए ऐलान कर दिया कि मैं तो यह टीका नहीं लगवाऊंगा। अखिलेश यादव युवा हैं, उनके पास आस्ट्रेलिया के एक विश्वविद्यालय से अध्ययनोपरांत अर्जित पर्यावरण विज्ञान की डिग्री है। सारी दुनिया को हलकान किए हुए एक वायरस से बचाव के लिए वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से बने टीकों के बारे में उनसे ऐसे बयान की उम्मीद कोई नहीं करता, भले ही वह धुर-भाजपा-विरोधी राजनीति के राही हों।

कुछ अन्य बयान चंद कांग्रेसी दिग्गजों की ओर से आए, यद्यपि उन्होंने राजनैतिक बयानबाजी को तकनीकी सवालों की आड़ देने की सतर्कता बरती। शशि थरूर और जयराम रमेश ने सवाल उठाया कि जब टीके की प्रभावशीलता के बारे में सुस्पष्ट आंकड़े और जानकारियां नहीं हैं तो अनुमति देने में आतुरता क्यों दिखाई गई। प्रक्रिया आधारित कुछ सवाल वरिष्ठ काग्रेसी नेता आनंद शर्मा ने भी उठाए जो कि इस मामले में गृह मंत्रालय की उस संसदीय समिति के अध्यक्ष भी हैं, जिसने टीके की अनुमति देने के विविध पक्षों पर विचार किया। आनंद शर्मा ने पूछा कि अनुमति देने के लिए तीसरे चरण के जारी परीक्षणों के परिणामों और उनके विश्लेषण की अनिवार्यता को क्यों अनदेखा किया जा रहा है। सरकार की ओर से स्वास्थ्य मंत्री समेत कई बड़े नेताओं को इन विपक्षी नेताओं को आड़े हाथों लेने का अवसर भला क्यों छोड़ना था!

स्थापित सत्य है कि कोविड-19 से बचाव के जो भी टीके भारत समेत पूरी दुनिया में बने हैं, उनका तीसरा और सम्पूर्ण परीक्षण अभी नहीं हुआ है। अमेरिका और यूरोप में भी अभी आपातकालीन अनुमति के अंतर्गत ही ये टीके लगाए जा रहे हैं। परीक्षणों का निर्णायक दौर चल ही रहा है। किसी भी टीके की अंतिम रूप से अनुमति उसके शत-प्रतिशत सुरक्षित प्रमाणित होने पर ही दी जाती है। यह बहुत लम्बी प्रक्रिया है। टीके से तनिक भी हानि होने की आशंका भर से उसकी सुरक्षित प्रभावशीलता की गारण्टी प्रयोगशालाओं में सहमी-अटकी रहती है। टीका बनने के बाद उसके अंतिम रूप से सफल एवं सुरक्षितघोषित होने में कई साल लग जाते हैं। आज तक सबसे ज़ल्दी जिस टीके को अंतिम अनुमति मिली वह गलसुआ (मम्प्स) का टीका है जिसे बना लेने के साढ़े चार साल बाद पूर्ण रूप से सुरक्षित घोषित किया गया था।

कोविड-19 महामारी से दुनिया जिस तरह त्रस्त है उस पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। सन 2021 की अगवानी करना हुआ विश्व इस आशा से बहुत राहत अनुभव कर रहा है बचाव का टीका पहुंच में आ गया है। इसके पीछे सदियों की वैज्ञानिक तरक्की और चिकित्सा विज्ञानियों की अनथक मेहनत है। निश्चय ही इसमें दवा-कम्पनियों की घनघोर प्रतिस्पर्द्धा और उनके भारी मुनाफे का गणित भी शामिल होगा लेकिन कोई इनकार नहीं करेगा कि कोविड-19 से बचाव का टीका साल भर में बना लेना चिकित्सा विज्ञान की ऐतिहासिक छलांग है, हालांकि अभी इन टीकों को लेकर कई चिंताएं, आशंकाएं और प्रश्न हैं। अंतिम शोध-परीक्षणों के आंकड़ों से पुष्ट, अधिकतम प्रभावी एवं पूर्ण सुरक्षित टीकों के बारे में बहुत से सवाल अनुत्तरित हैं। ये सवाल पूरी दुनिया में उठ रहे हैं और उठने भी चाहिए। स्वयं विज्ञानी और कम्पनियां इन प्रश्नों से इनकार नहीं कर रहीं। यह विषय और क्षेत्र भी उन्हीं का है। और, ध्यान रहे कि आम जन का टीकाकरण शुरू नहीं हो रहा, अनुमति मात्र सीमित एवं आपातकालीनहै।

इसका आशय यह नहीं कि राजनैतिक दलों को टीकों या वैज्ञानिक शोधों के बारे में सवाल पूछने का अधिकार नहीं है। सरकार के निर्णयों पर विपक्ष प्रश्न नहीं पूछेगा तो करेगा क्या? यह उसकी राजनीति और उत्तरदायित्व के लिए आवश्यक है कि वह सही अवसर पर सही सवाल उठाए और सरकार से जवाब मांगे; लेकिन इसे क्या कहेंगे कि उसके प्रश्न सरकार की बजाय स्वयं उसकी विश्वसनीयता को हास्यास्पद बना दें, अप्रासंगिक प्रश्नों से विज्ञानी और और कम्पनियां हतोत्साहित हों और जनता अनावश्यक रूप से  भ्रमित हो?

हमारे देश में आज भी एक वर्ग ऐसा है जो रोग निरोधक टीकों को संदेह और साजिश के रूप में देखता है। अब भी कुछ टीकों को नपुंसकता बढ़ाने वाला माना जाता है। राजनैतिक नेताओं के अनुत्तरदायित्वपूर्ण बयान ऐसे वर्गों का संदेह बढ़ाते हैं। नेशनल कांफ्रेंस के नेता और अखिलेश यादव के हम उम्र उमर अब्दुल्ला ने ठीक ही टिप्पणी की कि टीका किसी राजनैतिक दल का नहीं होता। मैं तो उसे लगवाऊंगा। तब अखिलेश को भी सफाई पेश करनी पड़ी।

विपक्ष की समस्या वास्तव में यह है कि वह भाजपा के विरुद्ध कोई ठोस और प्रभावी मुद्दा खड़ा नहीं कर पा रहा। 2014 के देशव्यापी उभार के बाद भाजपा लगातार मजबूत होती गई है। 2019 की और भी बड़ी विजय के बाद उसने जिस तरह कश्मीर से अनुछेद 370 को निष्प्रभावी करके उसका विभाजन किया और नागरिकता संशोधन कानून लेकर आई, उससे मोदी सरकार की मजबूती और विपक्ष की निरुपायता साबित हुई। मोदी सरकार को घेरने के लिए वह विश्वसनीय जनमत नहीं बना पा रहा है, यद्यपि देश में जनहित के मुद्दों की कमी नहीं है। आर्थिक मोर्चे की असफलताएं, भारी बेरोजगारी, महंगाई, किसानों का भारी असंतोष, महामारी सम्बंधी कतिपय निर्णयों की मार, चिकित्सा तंत्र की खस्ताहाली, आदि-आदि के बावजूद विपक्ष मोदी सरकार के विरुद्ध प्रभावी मोर्चाबंदी कर पाने में सफल नहीं हो रहा। इस निरुपायता में कई बार वह संवेदनशील विषयों पर गैर-ज़िम्मेदाराना बयान दे देता है। इससे स्वयं वह जनता की दृष्टि में विश्वसनीयता खोकर अपना संकट और बढ़ा लेता है।

कोविड-19 के टीकों को अनुमति देने पर उचित प्रश्न अपनी जगह रहेंगे और सही जगह उन पर पड़ताल होती रहेगी लेकिन विपक्ष को पहले अपनी विश्वसनीयता और जनाधार पर लगे प्रश्नों का उत्तर तलाशना होगा।

(प्रभात खबर, 6 जनवरी, 2021)

     

    

        

     

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