धूप में अमरूद खाने न बैठे तो जाड़े का क्या आनंद! चौराहे के ठेले वाले ने ललकार कर बुलाया और डेढ़ किलों में दो तोल दिए! हम आधा किलों में पांच-छह दाने लाते थे। कुछ नायाब ले आने के गुरूर से भरे घर आए तो सुनने को मिला- अमरूद लेने गए थे, ये क्या ले आए? हमने कुछ ठेले वाले की, कुछ दोस्तों से सुनी और कुछ अपनी पढ़ी सुना दी।
यह जम्बो अमरूद है और नाम है इसका ‘वीएनआर-बिही।
रायपुर (छतीसगढ़) के नारायण चावड़ा की खोज है जिन्होंने कभी थाइलैण्ड के अमरूद से ललचा
कर इसे विकसित किया। अब पूरे देश में इसकी खूब खेती हो रही है और अच्छा मुनाफा भी दे रही
है। कुछ युवा कम्प्यूटर इंजिनीयरों ने भी नौकरी छोड़कर इसे उगाना शुरू किया है,
ऐसा गूगल बता रहा है। ठेले वाले अस्सी रु किलो बेच रहे हैं तो फलों
की दुकान में उसे जालीदार टोपी पहना कर सौ रु किलो तक बेचा जा रहा है। एक अमरूद कम
से कम आधा किलो का है, कोई कोई तो पौन से एक किलो तक का।
तत्काल मुस्किया कर सुनाया गया- लेकिन अपने लखनउवा और कनपुरिया
के सामने न टिकेगा। बात ठीक निशाने पर जा लगी। छोटे-छोटे, सफेद,
मीठे और खुशबूदार लखनउवा-कनपुरिया अमरूदों की याद जोर मारने लगी।
स्वाद ने रंग कुछ और चोखा किया। ऊपर चित्तीदार और अन्दर से लाल-गुलाबी इलाहाबादी
अमरूद तो इसकी तरफ देखे भी न! बड़ा हुआ तो क्या हुआ, वह मौलिक
स्वाद और रूप-रस कहां से लाओगे? अमरूद हो तो तरबूज की तरह
क्यों फूल रहे? गूदा खूब भरे हो, बीज
भी कम हैं और सुना है कि दस-पंद्रह दिन तक खराब भी नहीं होते हो! मियां छतीसगढ़ी,
यह अमरूद की तासीर नहीं। वह भी कोई अमरूद हुआ जो डाल से टूटते ही
कहे, फौरन खा लो नहीं तो बासी हो जाउंगा!
पौन किलो का अमरूद क्या बोलता! वह प्लेट में वैसे ही फब
नहीं रहा था। गोल-मटोल, जैसे धानी बैगन! ऐसा भी क्या कि एक काटो तो
पूरा परिवार खा ले और फिर भी बचा रहे! हम लखनऊ वाले तो अमरूद को छोटा, प्यारा और मीठा बनाए रखने के लिए उसे ‘अरमूद’
कहते आए हैं। और भला, इत्ते बड़े को जेब में
कैसे छुपाएं, दांत से काटकर कैसे खाएं!
हमारा पुराना अपना दर्द उभर आया। एक-एक कर देसी स्वाद पिट रहे
हैं। कितने बाग थे लखनऊ में अमरूदों के, क्या हुए? बचपन में
रेजीडेंसी के आस-पास खूब चुरा कर खाए। कानपुर से चला आता था अपनी अलग ही खुशबू लिए
और गंगा किनारे झव्वा-झव्वा बिका करता था। एकदम मद्दा। स्वाद में निराला। एक बार
में पूरा गप्प और आधा किलों एक बार में चट। तनिक हरी धनिया और हरी मिर्च की लहसुन
वाली चटनी मिल जाए फिर देखो!
अभी चंद रोज पहले खबर पढ़ी थी कि इलाहाबादी अमरूद संकट में
है। उसे किसी रोग ने धर लिया। कई साल हुए वैसा इलाहाबादी न मिला जो हुआ करता था।
झोले में छुपा कर लाओ तो बाजार और मुहल्ला महक जाए। इधर कभी मिला भी तो खराब और
कीड़े पड़ा हुआ।
क्यों भई उपोष्ण फल-विज्ञानियो, अपने
देसी अमरूदों को क्यों नहीं बचा रहे? हाइब्रिड तो बहुत लोग
बना ले रहे हैं। देसी टपका आम के पेड़ काट-काट कर कलमी लगा लिए। यही अमरूदों का हो
रहा। प्रयोग दर प्रयोग। कलमी को इनाम मिले मगर स्वाद नदारद। हुआ तो नकली ही! हम तो
दशहरी को भी देसी न मानें।
यह बढ़ती उम्र का दोष है या जीभ के स्वाद तंतुओं का कि वापस
चौराहे पर गए और साठ रु किलो वाले देसी दाने बीन लाए। वह मुटल्ला छतीसगढ़ी दिखाने-सजाने
के काम आ रहा!
(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 जनवरी, 2021)
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