क्या अपने प्रदेश या देश में कभी ऐसा होगा कि एक भी ग्राम पंचायत नहीं होगी? ‘गांव’ और ‘प्रधान जी’ नहीं होंगे? यह सवाल यूं ही नहीं उठा। प्रदेश में ग्राम पंचायतों के चुनाव पिछले साल हो जाने चाहिए थे लेकिन महामारी ने सब कुछ ठप कर दिया। अब इन्हें अगले कुछ महीनों में पूरा कराने की तैयारी शुरू हो गई है। पंचायती राज विभाग ने ग्राम पंचायतों का नया परिसीमन करके जो रिपोर्ट राज्य निर्वाचन आयोग को सौंपी है, उसके मुताबिक पिछली बार (2015) की तुलना में ग्राम पंचायतों और ग्राम प्रधानों की संख्या काफी कम होने वाली है।
पंचायती राज विभाग की ताज़ा रिपोर्ट और उसकी वेबसाइट के आंकड़ों में तनिक अंतर दिखता है (2015 में 59062 ग्राम पंचायतों का चुनाव हुआ था या 59074 का?) जो भी सही हो, सन 2021 में 880 (या 868) ग्राम पंचायतें कम होंगी। इतने ही ग्राम प्रधान कम चुने जाएंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है कि साल-दर-साल ग्रामीण इलाके शहरी निकायों में शामिल होते जा रहे हैं और उनसे ‘ग्राम’ का दर्ज़ा छिनता जा रहा है।
‘विकास’ का जो रास्ता हमने चुना है, उसमें गांवों को ‘गांव’ रहते उतना ‘विकास’ या ‘बजट’ नहीं मिलता जितना उससे ऊपर के ‘क्षेत्र’ और ‘नगर’ को। उन्हें ‘और विकसित’ होने के लिए ‘गांव’ की परिभाषा से निकलना होता है। इसलिए गांव वाले नगर निकायों का हिस्सा बनना चाहते है। उधर, नगरों के ‘तेजी विकास’ का आलम यह है कि उन्हें फैलते रहने के लिए गांवों को निगलने की आवश्यकता पड़ती है। साल-दर-साल नगरों से लगे गांवों को उनकी सीमा में शामिल कर लिया जाता है। गांव वाले प्रसन्न होते हैं कि अब वे ‘नगर’ हो गए हैं, उन्हें भी नगरों वाला ‘तेज विकास’ मिलेगा। यह अलग मुद्दा है कि हाल के वर्षों में जो गांव नगर सीमा में शामिल हुए, उनका जमीनी हाल क्या है। कई गांव कहीं के नहीं रह गए, ‘गांव’ से बाहर निकल गए और नगर उन्हें अपना कुछ दे नहीं पाया। बीच में फंसे हुए, उपेक्षित।
त्रिस्तरीय पंचायतों की जो संवैधानिक व्यवस्था की गई थी, उसमें गांवों को शहर बना देने का विचार नहीं था। विचार यह था कि गांवों की ‘अपनी छोटी-सी सरकार’ होगी जो अपना खुद विकास करेगी। लोकतंत्र द्वार-द्वार पहुंचेगा और स्थानीय संसाधनों से ग्राम सभाएं अपने लिए सारी सुविधाएं जुटाएंगी। गांधी जी ने कभी गांवों को स्वावलम्बी बनाने का सपना दिखाया था। आज के हमारे प्रधानमंत्री भी आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं लेकिन इतने वर्षों में हमारे निर्वाचित सांसदों-विधायकों ने जो किया वह पंचायती राज व्यवस्था का अपहरण ही कहा जाएगा। पंचायतों को वे अधिकार दिए ही नहीं जो संविधान के अनुसार देने थे। बड़े बजट और अधिकतर अधिकार प्रदेशों की ‘बड़ी सरकारों’ और ‘अफसरशाही’ ने अपने कब्जे में रखे। गांव वंचित ही रहे आए।
गांव, ‘गांव’ ही रहते लेकिन वहां का जीवन सुविधापूर्ण और सुकून भरा रहता, खेती विकसित होती और छोटे किसान जमीन बेचकर शहरी मलिन बस्तियों में भागने को मजबूर न होते, शिक्षा से लेकर चिकित्सा तक के लिए शहर भागना मजबूरी न होती और ग्राम पंचायंतें सिर उठाकर बड़ी सरकारों के सामने खड़ी हो पातीं। ऐसा होने नहीं दिया गया और जो होने दिया गया उनमें गांवों को कागजी परिभाषा में बचना नहीं है।
गांव आज भी इस देश की आत्मा हैं। कोरोना काल में महानगरों से ‘भाग’ कर गए ‘शहरी’ लोगों ने यह खूब अनुभव किया। इसके बाद भी गांवों को ‘गांव’ रहने देकर ‘विकास’ का रास्ता पकड़ाया जाए, इस बारे में कोई सोच-विचार नहीं हो रहा। ऐसे में गांवों और प्रधानों को धीरे-धीरे गायब ही होना होगा।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 23 जनवरी, 2021)
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